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- 'सांसदों की आवाज'
आम लोगों के लिए यह हैरत की बात हो सकती है कि भारत की सरकार में संसदीय कार्यमन्त्री का पद किस वजह से रखा जाता है क्योंकि इसका काम आम जनता से किसी प्रकार का कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं रखता। मगर इस पद का जन्म 1952 में प्रथम संसद से ही किया गया। इसकी वजह यही थी कि भारत की बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली में संसद का कार्य सुचारू ढंग से चले और संसद के भीतर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच खास कर सत्ता पक्ष व विपक्ष के बीच इस प्रकार सामंजस्य बना रहे कि जनता के मुद्दों पर संसद में गतिरोध किसी कीमत पर न बन सके। वास्तव में संसदीय कार्यमन्त्री परोक्ष रूप से जनता का ही काम करता है क्योंकि वह जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों के बीच ताल-मेल बैठाने का काम करता है। उसका यह कार्य आमजनों के हितों को साधने के लिए ही होता है क्योंकि जन प्रतिनिधि जनता की आवाज ही संसद में उठाते हैं। खास कर विपक्षी नेताओं के साथ संसदीय कार्यमन्त्री ताल-मेल इस प्रकार बैठाता है कि संसद की कार्यवाही सुचारू तरीके से चलती रहे और विपक्ष भी सन्तुष्ट बना रहे। परन्तु वर्तमान समय में संसद की जो हालत बनी हुई है उसे पूरे देशवासी देख रहे हैं और सोच रहे हैं कि आखिर संसद में चर्चा या बहस क्यों नहीं हो रही? संसदीय प्रणाली के विशेषज्ञ अचम्भे में हैं कि संसदीय कार्यमन्त्री आखिरकार किस जहान में घूम रहे हैं कि विपक्ष के साथ सामंजस्य बैठाने का उनके पास समय ही नहीं है। मैंने पहले भी लिखा था कि लोकतन्त्र कभी भी 'जिद' से नहीं बल्कि 'जियारत' से चलता है। यह जियारत अवाम की ही होती है जो संसद में बैठने वालों को चुन कर भेजती है।