सम्पादकीय

कृषक की आवाज

Gulabi
26 Dec 2020 11:04 AM GMT
कृषक की आवाज
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किसी महापुरुष ने कहा था कि जब देश का किसान खेत को छोड़ कर सड़क पर अपने हक की लड़ाई लड़ने आ जाए तो क्रांति निश्चित होती है।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। किसी महापुरुष ने कहा था कि जब देश का किसान खेत को छोड़ कर सड़क पर अपने हक की लड़ाई लड़ने आ जाए तो क्रांति निश्चित होती है। फ्रांस की क्रांति हो या रूस की, किसान जब अपने पर आ जाता है, तो शासन सहम जाता है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय किसान ही थे, जो बढ़-चढ़ कर देश को स्वतंत्र कराने में अग्रणी थे। शुरुआत से ही किसान जमीदारों, पूंजीपति वर्ग, शासन सत्ता से शोषित होते चले आ रहे हैं। मैथिली शरण गुप्त ने लिखा है- 'हो जाए अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहां/ खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहां/ आता महाजन के यहां वह अन्न सारा अंत में/ अधपेट खाकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में!'



खुद घुट-घुट कर जीने वाला, लोगों को भरपेट भोजन देने वाला, समय-समय पर देश में अकाल के समय वही किसान था, जिसने सबको भुखमरी से उबारा। किसान के लिए उसकी खेती ही उसका धर्म है। वह तो दिन भर के कठिन परिश्रम से रात में अपने घर पर आकर सुकून से सोना चाहता है। उसे न हाड़ कंपा देने वाली ठंड विचलित करती है, न ज्येष्ठ महीने की तपती धूप और न श्रावण की घनघोर वर्षा दहला सकती है।
किसानों की किसी ने कभी कोई सुधि नहीं ली। खेत में फसल सूख रही है या खाद-बीज डाचौचला गया है या नहीं। किसी नेता-अधिकारी ने उसका हाल नहीं पूछा। फसल बोने से लेकर काटने तक और बाजार में बेचने तक वह अथक परिश्रम करता है। और फिर उसका क्या पारिश्रमिक होना चाहिए, उसे खुद बताने का अधिकार नहीं है।

किसान का आत्महत्या कर लेना आज का सामान्य-सी बात हो गई है। लेकिन जब प्रताड़ना अधिक हो जाती है, तो शीतल स्थिर जल भी उबाल मारता है। दुनिया भर में किसानों की प्रतिक्रिया इसके उदाहरण रहे हैं। किसान जब अपने ऊपर आता है, तो परिवर्तन निश्चित होता है। अगर कानूनों से किसान ही असंतुष्ट हैं, तो इसका क्या फायदा? सरकार को चाहिए कि वह किसानों की बात सुने।
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