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- राष्ट्रपति भवन का सफर
आदित्य चोपड़ा; यह लगभग तय सा ही लग रहा है कि देश की नई राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ही होंगी। स्वतन्त्र भारत में एक आदिवासी महिला को यह सर्वोच्च पद पहली बार मिलेगा। आजादी के 75वें वर्ष के अमृत महोत्सव में यह देश के उपेक्षित समझे जाने वाले समाज के लिए एक सौगात नहीं होगी बल्कि उसके वाजिब हक की राष्ट्र द्वारा अदायगी होगी क्योंकि आदिवासी समाज न केवल उपेक्षित रहा है बल्कि सामाजिक चेतना में भी नैपथ्य में रहा है। अतः सत्तारूढ़ गठबन्धन द्वारा इस वर्ग के प्रतिनिधि का चुनाव सर्वोच्च पद के लिए किया जाना राजनीतिक समीकरणों के बावजूद कम महत्वपूर्ण नहीं समझा जाना चाहिए। इसके साथ ही एक महिला का चुना जाना भी स्वयं में काफी महत्वता रखता है। हालांकि इससे पहले भी 2007 में श्रीमती प्रतिभा पाटील राष्ट्रपति चुनी गई थीं मगर वह समाज के संभ्रान्त वर्ग का प्रतिनिधित्व करती थीं। दूसरी तरफ विपक्षी खेमे की तरफ से पूर्व वित्तमन्त्री श्री यशवन्त सिन्हा को प्रत्याशी बनाने का फैसला किया गया है। यह फैसला विशुद्ध रूप से राजनीतिक मजबूरी का लगता है क्योंकि विपक्ष द्वारा इससे पहले जिन महानुभावों सर्वश्री शरद पवार व गोपाल कृष्ण गांधी के नाम पर विचार किया गया था उन्होंने ही इसे मानने से इन्कार कर दिया था। श्री सिन्हा हालांकि वाजपेयी सरकार के दौरान विदेशमन्त्री व वित्तमन्त्री रह चुके हैं मगर उनके खाते में एक भी एेसी उपलब्धि नहीं है जिसका उल्लेख किया जा सके। इसके विपरीत जब वह 1990 के बाद अल्प समय की चन्द्रशेखर सरकार में पहली बार वित्तमन्त्री बने थे तो उन पर विदेशी मुद्रा डालर का जुगाड़ करने के लिए देश का स्वर्ण भंडार गिरवी रखने की चर्चा बहुत जोरों-शोर से हुआ था। बेशक श्री सिन्हा पूर्व आईएएस अधिकारी भी रहे हैं और उन्हें प्रशासन का भी अच्छा अनुभव है मगर लोकतन्त्र में लोकशाही के सिद्धान्त सर्वोपरि होते हैं। इन्हें देखते हुए श्रीमती मुर्मू का जीवन जमीनी राजनीतिक स्तर से उठ कर प्रशासन की कसौटी पर लोकतन्त्र के सिद्धान्तों के अनुरूप पूरी तरह खरा उतरता दिखाई देता है। वह साधारण शिक्षिका से लेकर नगर पंचायत व नगर पंचायत से गुजरते हुए ओडिशा मन्त्रिमंडल की सदस्य तक रही हैं और एक मन्त्री के रूप में उन्होंने लोक प्रशासन में अपनी छाप छोड़ी है। इसके साथ ही वह झारखंड की राज्यपाल भी रही हैं और उनका पूरा कार्यकाल बिना किसी विवाद का रहा है। जाहिर है कि राज्यपाल के रूप में वह राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में ही काम करती रहीं। अतः उन्हें उच्च संवैधानिक पद पर काम करने का अनुभव भी है। अब यदि राष्ट्रपति के निर्वाचन मंडल का जायजा लिया जाये तो विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं में आदिवासी विधायकों की सहानुभूति श्रीमती मुर्मू के प्रति होनी स्वाभाविक है मगर इससे भी ऊपर विपक्षी राजनीतिक दलों के बीच भी उनके प्रति सहानुभूति होनी स्वाभाविक है क्योंकि पहली बार कोई आदिवासी राष्ट्रपति बनेगा। इसके साथ झारखंड छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी राज्यों के विधायकों का पूर्ण समर्थन भी उन्हें मिल सकता है जिसकी वजह से राजनीतिक समीकरण पीछे रह सकते हैं। विपक्षी खेमा हालांकि सत्तारूढ़ दल के प्रत्याशी का विरोध करना अपना कर्त्तव्य मानता है मगर यह नियम सापेक्ष होता है। इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि श्रीमती मुर्मू का विरोध करना विपक्षी दलों को सियासी तौर पर महंगा पड़ सकता है क्योंकि समूचे उत्तर पूर्वी राज्यों में भी आदिवासी जनसंख्या काफी है। एक मायने में राजनीतिक बिसात पर भाजपा की तरफ से चला गया यह तुरुप का पत्ता भी कहा जा सकता है जिसे देखते हुए श्री सिन्हा की उम्मीदवारी सांकेतिक दायरे में भी सिमट सकती है और श्रीमती मुर्मू की विजय रिकार्ड मतों से हो सकती है। राष्ट्रपति चुनावों में कोई भी पार्टी अपने विधायकों व सांसदों के िलए व्हिप (सचेतक) जारी नहीं कर सकती है। राष्ट्रपति का चुनाव गुप्त मतदान द्वारा होता है जिससे विधायकों व सांसदों द्वारा अपना मत अपने राजनीतिक गठबन्धन के प्रत्याशी को ही देने की मजबूरी नहीं होती। कोई भी विधायक किसी भी प्रत्याशी को मत ठीक उसी प्रकार दे सकता है जिस प्रकार आम चुनावों में आम जनता अपना मत देती है। हम पूर्व में भी देख चुके हैं कि 1969 में किस प्रकार सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी स्व. नीलम संजीव रेड्डी की पराजय एक निर्दलीय प्रत्याशी स्व. वी.वी. गिरी के हाथों हुई थी और इस चुनाव के बाद देश की राजनीति ही बदल गई थी। हालांकि उसके कारण पूरी तरह दूसरे थे। परन्तु राष्ट्रपति चुनावों में जब कोई जमीन से उठा व्यक्ति प्रत्याशी बनता है तो देश की जनता की भागीदारी स्वतः ही हो जाती है।