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आखिर संसद में गतिरोध समाप्त हो ही गया. लगभग दो सप्ताह तक चले इस गतिरोध के बाद स्थिति यह बनी है कि विपक्ष ने स्वीकार लिया है
By लोकमत समाचार सम्पादकीय |
आखिर संसद में गतिरोध समाप्त हो ही गया. लगभग दो सप्ताह तक चले इस गतिरोध के बाद स्थिति यह बनी है कि विपक्ष ने स्वीकार लिया है कि वह तख्तियां लेकर सदन में प्रदर्शन से बचेंगे और सरकार की ओर से महंगाई पर चर्चा को 'तत्काल' कराने की औपचारिकता भी पूरी कर ली गई है. अब महंगाई के मुद्दे पर विपक्ष ने भी अपनी बात कह ली है और सरकार की ओर से भी बचाव की कार्रवाई हो गई है. पता नहीं संसद में सरकारी पक्ष और विपक्ष की शिकायतों का पूरा समाधान हुआ है या नहीं, पर सड़क पर आम आदमी यह सवाल अब भी पूछ रहा है कि महंगाई इतनी क्यों बढ़ रही है? वह यह भी पूछ रहा है कि 'संसद में समाधान' के बाद स्थिति में क्या बदलाव आया है?
जो कुछ संसद में विपक्ष द्वारा पूछा गया वह सड़क पर पूछा ही जा रहा था और जो कुछ सरकार की ओर से कहा गया, वह भी सरकार के मंत्री इस बीच लगातार दोहराते रहे हैं. सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि यदि सत्ता-पक्ष और विपक्ष को यही कहना था, खासतौर पर सरकार को यही उत्तर देना था जो दिया गया है तो फिर इस मुद्दे को दो सप्ताह तक लटकाया क्यों गया? सरकार की ओर से महंगाई के मुद्दे पर तत्काल बहस की मांग ठुकराने का आधार यही था कि वह बहस के लिए तैयार है, वित्त मंत्री के स्वस्थ होते ही महंगाई के मुद्दे पर बहस करा ली जाएगी. सवाल वित्त मंत्री के स्वास्थ्य का नहीं, देश की आर्थिक स्थिति के स्वास्थ्य का था. और जो उत्तर वित्त मंत्री ने दिया है, वह भी सरकार अर्से से कहती रही है.
इसे कोई अन्य जिम्मेदार मंत्री भी दोहरा सकता था. सवाल महंगाई की मार झेलते आम आदमी की पीड़ा को कम करने का था, पर सरकार देश की 'अर्थव्यवस्था की मजबूती' का राग ही अलापती रही. आंकड़ों के सच और झूठ को लेकर पहले भी बहुत कुछ कहा जाता रहा है. आंकड़े यह तो बता सकते हैं कि देश में खाद्यान्न की उपज कितनी हुई, पर उनसे पेट नहीं भरता. संसद में बहस का मतलब यह होता है कि किसी मुद्दे पर गंभीरता से चिंतन हो और बातचीत के माध्यम से समस्या का समाधान हो. सरकारी पक्ष यदि यह मान लेता है कि विपक्ष द्वारा कही जा रही बात में कुछ सच्चाई है तो इससे उसकी प्रतिष्ठा समाप्त नहीं हो जाती.
और इसी तरह यदि विपक्ष भी सरकार द्वारा कही जा रही बात में कुछ सच देख ले तो उसकी भी तौहीन नहीं होती. पर जब दोनों पक्ष पहले से निश्चय करके बैठे हों कि सामने वाले की बात नहीं माननी है तो फिर बात बनती नहीं, बिगड़ जाती है. सड़क पर चलने वाला आम आदमी संसद में चल रही बातों को बड़ी उम्मीदों से देखता है. पर दुर्भाग्य से, जो कुछ दिखता है वह अक्सर निराश करने वाला होता है. पिछले पखवाड़े में महंगाई को लेकर भले ही बहस न हो पाई हो, पर सांसदों के आरोपों-प्रत्यारोपों का जो सिलसिला चला उसे किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता.
सार्थक जनतांत्रिक परंपराओं का तकाजा है कि उन्हें समझा जाए और अपनाया जाए. जनतंत्र में विपक्ष की भूमिका सरकारी पक्ष से किसी भी दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं होती. यह सही है कि चुनाव में हारने वाला पक्ष विपक्ष की भूमिका निभाता है, पर सच यह भी है कि वह हारा हुआ नहीं, विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए चुना गया पक्ष होता है. इसीलिए जनतंत्र की सफलता का एक मानदंड मजबूत विपक्ष को भी माना गया है. जहां सरकार जनता के हितों के लिए काम करती है, वहीं विपक्ष यह देखता है कि सरकार अपने काम में कोताही न बरते. भारी बहुमत से जीतने वाली सरकारें अक्सर यह गलतफहमी पाल लेती हैं कि विपक्ष को उसके किए पर सवालिया निशान लगाने का अधिकार नहीं है.
सत्ता-पक्ष का यह रवैया किसी भी दृष्टि से जनतांत्रिक परंपराओं और मूल्यों के अनुरूप नहीं है. जहां विपक्ष से मर्यादित आचरण की अपेक्षा की जाती है, वहीं सत्ता-पक्ष का भी दायित्व बनता है कि वह अपनी ताकत के घमंड में विपक्ष की अवहेलना न करे. देश में पसरी महंगाई से ग्रस्त जनता के हितों के लिए आवाज उठाना विपक्ष का दायित्व है. इस आवाज को अनसुनी न करने की अपेक्षा सत्ता-पक्ष से की जाती है. मैं दोहराना चाहता हूं कि संसद के मौजूदा सत्र में आया गतिरोध किसी भी दृष्टि से उचित नहीं था.
न महंगाई का मुद्दा उपेक्षा के लायक था और न ही पहले इस मुद्दे पर बहस की विपक्ष की मांग को स्वीकार करने से सत्ता-पक्ष की इज्जत कम हो जाती. एक पखवाड़े तक संसद की कार्यवाही बाधित होने से सौ करोड़ रुपए के नुकसान से कहीं अधिक महत्वपूर्ण वह नुकसान है जो जनतांत्रिक मूल्यों-परंपराओं के हनन से हुआ है. पक्ष और विपक्ष, दोनों को अपने व्यवहार के आईने में अपने चेहरे को देखना होगा. कब होगा ऐसा?
Rani Sahu
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