सम्पादकीय

आभासी दुनिया का नशा

Subhi
18 Oct 2022 6:10 AM GMT
आभासी दुनिया का नशा
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एक अध्यापक हैं, जिन्हें सिर्फ कहानी का एक उदाहरण माना जा सकता है, मगर जो किसी को भी अपने आसपास दिख सकते हैं। खैर, उनके परिवार में पति, पत्नी और दो बच्चे हैं।

हेमंत कुमार पारीक: एक अध्यापक हैं, जिन्हें सिर्फ कहानी का एक उदाहरण माना जा सकता है, मगर जो किसी को भी अपने आसपास दिख सकते हैं। खैर, उनके परिवार में पति, पत्नी और दो बच्चे हैं। बच्चे पढ़-लिख कर विदेश में नौकरी कर रहे हैं। अब दोनों अकेले हैं। नियमित दिनचर्या है उनकी। पत्नी पढ़ी-लिखी हैं पीएचडी तक। वे घर संभालती हैं। उनके सही मार्गदर्शन में कुशाग्र बुद्धि बच्चे आगे निकल गए। अध्यापक महोदय की दिनचर्या यथावत है, लेकिन उन्हें एकाकीपन खल रहा है।

उम्र के उस पड़ाव पर हैं, जहां उन्हें बच्चों की जरूरत महसूस होती है। वे सेवानिवृत्त होने के बाद अभी भी व्यस्त रहते हैं। उनकी पत्नी अभी भी घर-गृहस्थी में लगी रहती हैं। कुल मिला कर एक आदर्श परिवार है। कुछ समय पहले एक दिन सुबह-सुबह की बैठकी में चायपान होने के बाद वे अचानक फूट पड़े। उन्होंने पहले इस बात को लेकर आश्वस्त होना चाहा कि क्या वे अजीज मित्र होने के नाते अपने दिल की बात कह सकते हैं। फिर खुद को संभालते हुए बोले कि यह स्थिति किसी के साथ भी हो सकती है।

दरअसल, पिछले कुछ महीनों से जीवनसाथी के व्यवहार और किसी बात पर उनकी प्रतिक्रिया में उन्होंने तेज बदलाव दर्ज किया था। बिना किसी मजबूत कारण के गुस्सा हो जाना और झगड़े की मुद्रा में आ जाना उनके व्यवहार में घुल गया था। कुछ समय पहले तक उनकी अच्छी-खासी मित्रमंडली थी। वे उनसे मिलती-जुलती थीं और आपसी मेलजोल के कार्यक्रमों में सक्रिय हिस्सेदारी और संचालन भी करती थीं। मगर जब पूर्णबंदी लगी, तब से वे सबसे कट गईं। उनका सहारा अकेला उनका स्मार्टफोन हो गया। इस क्रम में धीरे-धीरे हुआ यह कि दूसरे तमाम काम अस्त-व्यस्त होने लगे, मगर मोबाइल में उनका ध्यान जरूरत से ज्यादा केंद्रित रहने लगा। हालांकि मोबाइल की यह लत अब किसी एक व्यक्ति की समस्या नहीं रह गई है और एक जटिल मनोवैज्ञानिक चुनौती हो चुकी है।

समुद्र मंथन की एक कथा है। समुद्र में से जहर और अमृत दोनों निकले थे। स्मार्टफोन भी ऐसा ही समुद्र है। इसमें हलाहल भी है और अमृत भी। यह अमृत की तरह उपयोगी है और विष की तरह घातक भी। लेकिन आसानी या सुविधा का मामला कुछ ऐसा है कि लोग बुराई पहले ग्रहण करते हैं। अध्यापक महोदय को फिक्र थी कि मोबाइल से ध्यान कैसे हटेगा… आज बच्चे-बच्चे के हाथ में है। एक नशे की तरह है। जिसे सिर्फ बटन दबाना आता है वह भी इसका मुरीद हो गया है। बेशक कतारें खत्म हो गई हैं तो आदमी इसमें सिमट गया है। आजकल तो ऐसी भी घटनाएं सुनी जाती हैं कि मोबाइल पति और पत्नी या फिर बच्चों तक के बीच झगड़े की वजह बन गया है।

कई बार तो लगता है कि अफीम और चाय की तरह यह भी एक नशा है। आज स्थिति यह है कि दुनिया की एक अच्छी-खासी आबादी को इंटरनेट की लत लग चुकी है। इस लत के शिकार लोगों का अनुपात दुनिया में मादक पदार्थ लेने वाली जनसंख्या से ज्यादा है। इंटरनेट का नशा सिर चढ़ कर बोल रहा है। यह धीरे-धीरे दुनिया के लिए भविष्य में आने वाली सार्वभौमिक समस्या के रूप में उभर रहा है।

हालांकि भौगोलिक परिदृश्य भिन्नता लिए हुए है। स्मार्टफोन, सेलफोन ने कैमरे, कैलेंडर, अलार्म घड़ी, नोटपैड, किताबों और 'म्यूजिक सिस्टम', गणितीय योग्यता, शब्दकोश, लिखने की आदत, घर से बाहर गली-मोहल्लों या मैदानों में खेले जाने वाले खेल खेलने के क्रियाकलापों को स्थानापन्न कर दिया है। यों अभी बहुत सारे परिवारों का जीवन स्थानापन्न होने से बचे हैं। वर्तमान में दुनियाभर में इंटरनेट के उपभोक्ताओं की संख्या में तेजी से लगातार बढ़ोतरी हो रही है और अब यह पांचवी पीढ़ी के तकनीक की ओर बढ़ चला है। सवाल है कि इनकी उपयोगिता मानवीय संवेदना से लैस जीवन को बेहतर करने में कितनी होगी! या कि यह सब मनुष्य की संवेदनाओं की कीमत पर संभव होगा?

कहने का मतलब 'इंटरनेट नशे की लत' की समस्या के मूल में सोशल मीडिया है। इससे होने वाली विषमता, सोशल मीडिया और वीडियो गेम की लत। इन सबके संयुक्त प्रभाव से मानसिक और शारीरिक दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। नतीजतन, अवसाद, बेचैनी जैसी मानसिक बीमारी और दूसरी शारीरिक बीमारियां, जैसे कि यादाश्त का कम होना, गर्दन और रीढ़ की कमजोरी और बीमारी, अंगुलियों में जकड़न, रचनात्मकता की योग्यता में तेजी से कमी और हड्डी से संबंधित रोग आदि संपूर्ण समाज को प्रभावित करने वाले हैं।

जिस तरह वास्तविकता को नकारने के लिए नशे का सेवन करते हुए लोग और एक आभासी दुनिया में चले जाते हैं। मगर वास्तविकता आज नहीं तो कल सामने खड़ी होगी। देखा जा रहा है कि कम उम्र के युवाओं की आंखों पर भी ज्यादा पावर वाले चश्मे लग रहे। दिन रात कंप्यूटर पर काम करने वाले युवा शरीर की बीमारियों से ग्रस्त होकर फिजियोथेरेपी के लिए अस्पताल जा रहे हैं। सवाल है कि हम किस दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं!


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