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किसी भी सरकार द्वारा प्रमुख नीतिगत फैसले तकनीकी रूप से सुदृढ़ होने चाहिए
विवेक काटजू।
सोर्स- jagran
किसी भी सरकार द्वारा प्रमुख नीतिगत फैसले तकनीकी रूप से सुदृढ़ होने चाहिए। हालांकि ऐसा आधार हमेशा पर्याप्त नहीं होता। ऐसा इसलिए, क्योंकि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ऐसे सभी फैसलों का राजनीतिक सरोकार होता है। सरकार को इन फैसलों की राजनीतिक जिम्मेदारी लेनी होती है, जैसा कि मोदी सरकार ने सुरक्षा बलों की भर्तियों में क्रांतिकारी परिवर्तन की नई नीति के रूप में किया है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने तीनों सेवाओं के प्रमुखों के साथ जिस प्रकार अग्निपथ योजना के बारे में सूचित किया, वह दर्शाता है कि सरकार के बड़े निर्णय राजनीतिक होते हैं। राजनीतिक पहलुओं के अतिरिक्त सरकार को सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का भी संज्ञान लेना होता है। भारत जैसे विशाल एवं विविधता भरे देश में इन पैमानों पर व्यापक अंतर दिखाई पड़ सकते हैं। अंतत: कोई भी बड़ा प्रशासनिक परिवर्तन, जो एक बड़े वर्ग के जीवन को प्रभावित करता हो, के लिए जनता का समर्थन आवश्यक हो जाता है।
लोक सेवकों के साथ-साथ सैन्य अधिकारी भी इससे भलीभांति परिचित हैं कि चुनावों के माध्यम से जनादेश प्राप्त प्रतिनिधियों का दृष्टिकोण हमेशा उनसे ऊंचा रहेगा। विदेश सेवा के अधिकारी के रूप में ऐसा ही एक वाकया मुङो स्मरण आता है। अगस्त 1995 से अगस्त 2001 के बीच छह वर्षो के दौरान मैंने विदेश मंत्रलय में ईरान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान (आइपीए) प्रभाग में संयुक्त सचिव के रूप में अपनी सेवाएं दीं। इसी दौरान पाकिस्तान ने भारत पर कारगिल युद्ध थोपा। भारतीय सैन्य बलों ने अपने शौर्य एवं पराक्रम से पाकिस्तान को खदेड़कर नियंत्रण रेखा पर अपने पाले में लौटने को विवश किया। पाकिस्तान का मानमर्दन हो चुका था।
तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ के बीच जुबानी जंग छिड़ गई थी। उस युद्ध में निर्णायक जीत के कुछ हफ्तों बाद अगस्त 1999 में विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने मुङो बैठक के लिए बुलाया। उन्होंने मुझसे पूछा कि पाकिस्तान के प्रति भारत की नीति क्या रहनी चाहिए। मैंने उन्हें अपने विचारों से अवगत कराया और कहा, 'सर, विदेश नीति और कूटनीति के नजरिये से मेरे ये विचार हैं, किंतु आपको उन्हें राजनीतिक कसौटी पर कसना ही होगा।' उन्होंने मुझसे पूछा कि आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? मैंने उत्तर दिया, 'क्योंकि, तकनीकी एवं पेशेवर सलाह के साथ-साथ राजनीतिक पहलुओं पर भी हमेशा विचार किया जाना चाहिए।' स्वाभाविक कारणों से मैं उनके साथ हुए संवाद का विस्तृत ब्योरा नहीं दे सकता, लेकिन मैं यही रेखांकित करना चाहता हूं कि सभी महत्वपूर्ण फैसलों को अंतत: राजनीतिक संतुलन की कसौटी पर कसना पड़ता है और सामान्य रूप से वे राजनीतिक वर्ग द्वारा स्वीकार्य हों और राजनीतिक दलों के लिए राष्ट्रहित सवरेपरि होना चाहिए।
एक पहलू और भी है। स्वतंत्रता के बाद से भारतीय राजनीतिक वर्ग कई दशकों तक एक परंपरा का पालन करता आया है। वह परंपरा है राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर मंत्रणा करने की। राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति के मामले में ऐसा विशेष रूप से किया जाता है। संवेदनशील मुद्दों पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के शीर्ष नेता संवाद की कड़ियां जोड़े रखते हैं। परामर्श की प्रक्रिया बड़े शांत और भरोसे के माहौल में होती है। मैं स्वयं इसका साक्षी रहा हूं। 1997 की शुरुआत में पाकिस्तान के साथ प्रस्तावित वार्ता शुरू करने से पहले तत्कालीन विदेश मंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने गठबंधन दलों के साथ-साथ विपक्षी नेताओं को भी इस विषय में सूचित किया। तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के रवैये से वार्ता चार वर्षो से अटकी हुई थी। ऐसे में वार्ता के दौरान भारतीय राजनयिकों द्वारा क्या कूटनीतिक रुख अपनाया जाए, उस पर व्यापक राजनीतिक समर्थन आवश्यक था। यही वजह है कि पाकिस्तान के प्रति जो नजरिया तब अपनाया गया, वह सरकारों में बदलाव के बावजूद जारी रहा।
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Rani Sahu
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