सम्पादकीय

हिंसक राजनीति: प्रतिरोध का अलोकतांत्रिक तंत्र

Gulabi
12 Dec 2020 5:25 AM GMT
हिंसक राजनीति: प्रतिरोध का अलोकतांत्रिक तंत्र
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यूं तो पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का रक्तरंजित इतिहास रहा है, लेकिन

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। यूं तो पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का रक्तरंजित इतिहास रहा है, लेकिन 21वीं सदी में आदमयुगीन तौर-तरीकों का पोषण हमारे राजनीतिक दलों की विफलता को भी दर्शाता है, जो कार्यकर्ताओं को सभ्य लोकतांत्रिक व्यवहार का प्रशिक्षण नहीं दे पाये। इसी कड़ी में बृहस्पतिवार को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे. पी. नड्डा के काफिले पर हिंसक भीड़ का हमला हुआ। निस्संदेह, यह कृत्य दुनिया में सबसे बड़ा कहे जाने वाले लोकतंत्र को शर्मसार करने वाला है।

हालांकि पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनावों का कार्यक्रम अभी घोषित नहीं हुआ है, लेकिन सत्तापक्ष और आक्रामक भाजपा ने चुनावी शतरंज की बाजी चलनी शुरू कर दी हैं। दरअसल, तृणमूल कांग्रेस की तरफ से अपना किला दरकने की आशंका में तल्ख प्रतिक्रिया सामने आ रही है। वहीं दो दिवसीय पश्चिम बंगाल दौरे के दौरान भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने ममता बनर्जी और उनके भाई दिलीप बनर्जी के चुनाव क्षेत्रों को चुनावी अभियान के लिये इस संदेश के साथ चुना कि पार्टी तृणमूल कांग्रेस के गढ़ में हमलावर है। दरअसल, दक्षिण 24-परगना के जिस डायमंड हार्बर इलाके में भाजपा नेताओं के काफिले पर हमला हुआ, वह ममता बनर्जी के भाई दिलीप बनर्जी का चुनाव क्षेत्र भी है। बहरहाल, इस हमले को लेकर भाजपा की तरफ से तल्ख प्रतिक्रिया सामने आई है और देश के विभिन्न भागों में इस हिंसा के खिलाफ प्रदर्शन हुए हैं।

राज्यपाल जगदीप धनकड़ की तरफ से भी तीखी प्रतिक्रिया आई है। उन्होंने इस बाबत केंद्र को रिपोर्ट भी भेजी है। इस हिंसा ने 2018 के पंचायत चुनाव में हुई व्यापक हिंसा की याद ताजा कर दी है और यह घटनाक्रम इस बात का संकेत भी है कि इस बार के विधानसभा चुनाव खासे हिंसक हो सकते हैं। निस्संदेह, पश्चिम बंगाल में लगातार जारी हिंसा और बड़ी संख्या में भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्याओं का सिलसिला लोकतंत्र की शुचिता के लिये बड़ी चुनौती है, जिसको लेकर देश के सभी राजनीतिक दलों को गंभीर मंथन करना चाहिए कि लोकतंत्र में जिसकी लाठी, उसकी भैंस की प्रवृत्ति फिर विकसित न होने पाये निस्संदेह, पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का अतीत पुराना रहा है। कई इलाके नक्सली हिंसा की जद में रहे हैं।

कालांतर वामदल के कैडर में ऐसे घटक शामिल रहे जो बाहुबल के आधार पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करते रहे। जब तृणमूल कांग्रेस ने 'लाल दुर्ग' पर पार्टी का परचम लहराना शुरू किया तो पार्टी को भी हिंसक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। कहा जाता है कि कालांतर वे ही तत्व तृणमूल कांग्रेस के कैडर में शिफ्ट हो गये, जिसके चलते स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की परंपरा बाधित हुई। अब बदलाव की आहट में भाजपा को उसी तरह के हिंसक प्रतिरोध का सामना सत्तारूढ़ दल के कैडर से करना पड़ रहा है, जैसे वाम सत्ता के पराभव के दौरान तृणमूल कांग्रेस को करना पड़ा था। यानी राज्य में राजनीति का चेहरा ही बदलता है, मोहरे अदला-बदली करते रहते हैं। निश्चय ही यह प्रवृत्ति स्वस्थ लोकतंत्र के मार्ग में बड़ी बाधा है।

जो तत्व लोगों को लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति व निष्पक्ष राजनीतिक व्यवहार करने से रोकते हैं, उनके खिलाफ माहौल बनाया जाना वक्त की जरूरत है। ऐसे भय व आतंक के माहौल में आम आदमी की क्या स्थिति होती होगी, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। यह सवाल पुलिस-प्रशासन की विफलता का भी है।

आखिर क्यों किसी आपराधिक प्रवृत्ति के राजनीतिक कार्यकर्ता के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती। क्यों कानून व्यवस्था बनाने वाला तंत्र इन दबंगों के सामने इतना निरीह हो जाता है कि अपने दायित्वों का निर्वहन ईमानदारी से नहीं कर पाता। जाहिरा तौर पुलिस-प्रशासन के शीर्ष अधिकारी राजनीतिक प्रभाव व दबाव में इतने दब चुके हैं कि कानून सम्मत व्यवस्था स्थापित करने में अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं कर सकते।

इसके अलावा सभी राजनीतिक दलों से भी संयमित व मर्यादित व्यवहार की उम्मीद की जाती है ताकि राजनीति में हिंसक प्रवृत्तियों को प्रश्रय न मिल सके। यह सोच लोकतंत्र की अपरिहार्य सोच भी होनी चाहिए। सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़े लोगों को इसके प्रति जवाबदेह बनाने की भी जरूरत है।


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