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- हताशा में हिंसा
Written by जनसत्ता; सुरक्षाबलों के सिपाहियों में बढ़ते तनाव, खीज और हताशा को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जा रही है। पिछले कुछ सालों में अब तक कई ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें सुरक्षाबल के किसी सिपाही ने गोली मार कर अपने ही साथियों या अधिकारी की हत्या कर दी। इसी का ताजा उदाहरण सिक्किम पुलिस के एक जवान का अपने ही तीन साथियों को मार डालना है।
इस सिपाही की तैनाती रिजर्व बटालियन में थी और उसे प्रहरी के रूप में दिल्ली के हैदरपुर जलशोधन संयंत्र के प्रवेश द्वार पर तैनात किया गया था। बताया जा रहा है कि वह पत्नी को लेकर कुछ दिनों से तनाव में चल रहा था। उसकी पत्नी उसका फोन नहीं उठाती थी, जिसे लेकर उसके साथी सिपाही उसका मजाक उड़ाते थे। सोमवार को भी ऐसा ही हुआ और खीझ कर उसने अपने तीन साथियों को गोलियों से भून डाला। हालांकि हत्या का मानस किसी एक वजह से नहीं बनता है, कई बातें उससे जुड़ी होंगी, जो हत्या करने वाले सिपाही से पूछताछ के बाद ही पता चल सकेगा। उसके साथियों का कहना है कि दिल्ली में अपनी तैनाती को लेकर वह शुरू से संतुष्ट नहीं था। मगर किस वजह से उसे यहां तैनात किया गया, यह भी साफ नहीं है।
हालांकि कोई सिपाही इतना भावुक और कमजोर नहीं माना जा सकता कि अपनी पत्नी से उपेक्षा पाकर इस कदर विवेक खो बैठे और हिंसक व्यवहार करे। बताया जा रहा है कि संबंधित सिपाही मानसिक रूप से दुर्बल भी नहीं है। इसलिए पीछे घटी ऐसी घटनाओं की वजहों पर स्वाभाविक ही लोगों का ध्यान जा रहा है। पिछले कुछ सालों से सेना, अर्ध सैनिक बलों और पुलिस बल में तैनात सिपाहियों में कई वजहों से असंतोष लगातार लक्षित किया जाने लगा है।
सिपाहियों में असंतोष की बड़ी वजह लंबी तैनाती, अफसरों का अनुचित व्यवहार, किसी जरूरत के वक्त छुट्टी न मिल पाना आदि बताया जाता है। इसलिए सिपाहियों के मनोवैज्ञानिक परीक्षण, उनका मानसिक बल बढ़ाने के लिए कार्यशालाओं आदि के आयोजन की जरूरत भी रेखांकित की जाती रही है। मगर इस दिशा में अभी तक कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाया जा सका है।
सैनिकों और सिपाहियों में बढ़ते असंतोष की कुछ वजहें छिपी नहीं हैं। उन पर नागरिक सुरक्षा और सीमा सुरक्षा के अलावा आतंकवाद से निपटने, सरकारी लोगों, संस्थानों आदि की सुरक्षा की जिम्मेदारियां लाद दी जाती हैं। जहां भी समाज में कहीं अस्थिरता का माहौल पनपता है, उन्हें वहां लगा दिया जाता है। पिछले कुछ सालों से बहुत सारे सिपाही अपने मूल काम से इतर दूसरे कामों में लगाए गए हैं। हर सुरक्षाबल का प्रशिक्षण उसके मूल काम के अनुरूप दिया जाता है। मसलन, सेना के सिपाही का प्रशिक्षण सरहद की सुरक्षा और युद्ध को ध्यान में रख कर दिया जाता है। पुलिस के सिपाही को नागरिक सुरक्षा और अपराध रोकने के मकसद से प्रशिक्षित किया जाता है।
मगर पिछले कुछ दशक से सेना को आतंकवाद से निपटने, दंगाग्रस्त इलाकों में शांति स्थापित करने पुलिस के अपनी जिम्मेदारियां ठीक से न निभा पाने की स्थिति में उसकी जगह काम करने को लगा दिया जाता है। फिर काम का बोझ बढ़ने से उनके अफसरों का रवैया भी तीखा हो जाता है। अवकाश वगैरह बाधित होते हैं, घर-परिवार में कोई जरूरी काम हो तो छुट्टी नहीं मिल पाती। ऐसे में उनमें असंतोष गहरा हुआ है। ऐसे में इस बढ़ते असंतोष को रोकने के व्यावहारिक कदम उठाए जाने जरूरी हैं।