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- बंगाल में हिंसा
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| पश्चिम बंगाल में चुनाव नतीजे आने के तुरंत बाद जो हिंसा भड़क उठी, वह निश्चय ही चिंताजनक है और उसे रोका जाना चाहिए था। इस हिंसा में 12 लोगों की जान गई है, जिनमें से ज्यादा भाजपा समर्थक हैं। हालांकि, अन्य पार्टियों के लोग भी मारे गए हैं। जाहिर है, ऐसी हिंसा के शिकार पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता और पैदल सिपाही ही होते हैं, क्योंकि वे सबसे ज्यादा असुरक्षित होते हैं। हर पार्टी के बडे़ नेता अपने लिए तो मजबूत सुरक्षा का इंतजाम कर लेते हैं, हालांकि, हिंसा भड़काने या उसका माहौल तैयार करने में उनकी बड़ी भूमिका होती है। इन चुनावों के बाद हिंसा होना बहुत तय माना जा रहा था, क्योंकि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का रक्तरंजित इतिहास है और ये चुनाव जितने आक्रामक और जहरीले माहौल में लड़े गए थे, उनसे इस हिंसा के लिए मजबूत नींव तैयार हो गई थी। चुनाव में दोनों पक्षों की ओर से जैसी तीखी और हिंसक भाषा का प्रयोग किया गया, उससे पक्का हो गया था कि यह हिंसा देर-सवेर व्यावहारिक स्तर पर भी प्रकट होगी। चुनावों के पहले भी हिंसा कम नहीं हुई है, जिसमें तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के कई कार्यकर्ता जान गंवा बैठे या जख्मी हुए। कांग्रेस या वाम दलों की उपस्थिति चूंकि कमजोर थी, इसलिए इस हिंसा में उनकी हिस्सेदारी भी कम थी। चुनावों के दौरान चूंकि प्रशासन चुनाव आयोग के पास था और केंद्रीय बलों की भी मौजूदगी थी, इसलिए हिंसा बहुत कम हुई, लेकिन जैसे ही नतीजे आए, हिंसा भड़क उठी। लेकिन ममता बनर्जी का यह तर्क सही नहीं है कि इस हिंसा को रोकने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की थी, क्योंकि जब चुनाव नतीजे आ जाते हैं और यह तय हो जाता है कि सत्ता किसे मिलने वाली है, तब प्रशासन भी यह समझ लेता है कि अब उसका स्वामी कौन है, और किसकी बात सुननी है। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास नक्सलबाड़ी आंदोलन और उसे कुचलने के दौर से जुड़ा है। बाद में वाम दलों ने सुनियोजित हिंसा को अपनी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा बनाया। वाम मोर्चे की आक्रामक रणनीति का मुकाबला जहां कांग्रेस नहीं कर पाई, वहां अपेक्षाकृत शांति बनी रही। फिर कांग्रेस की जुझारू नेता ममता बनर्जी ने पार्टी छोड़कर अपनी नई पार्टी बनाई और वाम हिंसा का मुकाबला उसी आक्रामक अंदाज में करना शुरू किया। ममता बनर्जी ने वाम मोर्चे को अपदस्थ करने के लिए उन्हीं के तरीके अपनाए। इससे वाम मोर्चे की ताकत बिखर गई, उनके कुछ लोग नए सत्ता तंत्र का हिस्सा बन गए, कुछ लोग नई उभरती हुई ताकत भाजपा के साथ हो लिए। इस तरह जब ताकत के दो केंद्र बन गए, तब उनके बीच फिर हिंसक टकराव शुरू हो गए। जाहिर है, हिंसा रोकने की मुख्य जिम्मेदारी ममता बनर्जी की है और यह अच्छा है कि सत्ता संभालते ही उन्होंने इसके लिए कदम उठाने की घोषणा की है, बल्कि उन्हें गंभीरता से बंगाल की राजनीति से हिंसा की यह अपसंस्कृति खत्म करने के लिए काम करना चाहिए, क्योंकि हिंसा से किसी का भला नहीं होता। साथ ही, यह भी साफ है कि यह विशुद्ध रूप से राजनीतिक हिंसा है, इसका कोई सांप्रदायिक कोण नहीं है। अगर सारे पक्ष जिम्मेदारी और परिपक्वता का परिचय दें, तो बंगाल के उजले दामन से ये ख़ून के धब्बे स्थाई रूप से मिटाए जा सकते हैं।