सम्पादकीय

शांत राज्य में हिंसा की आग

Gulabi
18 Aug 2021 6:00 AM GMT
शांत राज्य में हिंसा की आग
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पूर्वोत्तर के स्कॉटलैंड के नाम से मशहूर मेघालय की राजधानी शिलांग एक बार फिर सुर्खियों में है

पूर्वोत्तर के स्कॉटलैंड के नाम से मशहूर मेघालय की राजधानी शिलांग एक बार फिर सुर्खियों में है। देश की आजादी के बाद से ही उग्रवाद के लिए सुर्खियां बटोरने वाले पूर्वोत्तर में मेघालय की गिनती सबसे शांत राज्यों में होती रही है। यह बात नहीं है कि राज्य में कभी उग्रवाद था ही नहीं, पर पड़ोसी असम के अलावा नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम और त्रिपुरा जैसे राज्यों के साथ तुलना करें, तो फर्क साफ हो जाता है। यही मेघालय और खासकर इसकी राजधानी शिलांग बीते रविवार से एक बार फिर गलत वजहों से सुर्खियों में है। यह सुनकर हैरत हो सकती है, लेकिन अबकी हिंसा की वजह है उग्रवादी संगठन हनीट्रेप नेशनल लिबरेशन कौंसिल (एचएनएलसी) के शीर्ष नेता रहे चेरिस्टरफील्ड थांगखियु की कथित पुलिस मुठभेड़ में मौत। इसके खिलाफ पनपी नाराजगी के बाद शहर में हिंसा और आगजनी भड़क उठी। इस समय हालात यह है कि पड़ोसी असम ने फिलहाल राज्य के लोगों को मेघालय नहीं जाने की सलाह दी है।

हालात इतने बेकाबू हो गए कि राजधानी में कफ्र्यू लगाना पड़ा है। इसके साथ ही, अफवाहों और गलत सूचनाओं का प्रसार रोकने के लिए राज्य के चार जिलों में इंटरनेट पर पाबंदी लगा दी गई है। हिंसा के दौरान लोगों ने पुलिस के कई वाहन जला दिए। उधर, इस कथित हत्या के विरोध में घटना की न्यायिक जांच की मांग करते हुए राज्य के गृह मंत्री लहकमर्न ंरबुई ने इस्तीफा दे दिया है। मेघालय की राजनीति पर नजदीकी निगाह रखने वाले लोगों की राय में थांगखियु की कथित हत्या के बाद लोगों में जो नाराजगी उभरी है, उसका मतलब सिर्फ यही नहीं है कि उनमें एचएनएलसी के प्रति भारी सहानुभूति है। दरअसल, लोग कोविड प्रबंधन, लॉकडाउन के दौरान सरकार के उदासीन रवैये और लगातार बढ़ते भ्रष्टाचार से नाराज थे। थांगखियु की पुलिस मुठभेड़ में मौत ने उनकी इस नाराजगी को चिनगारी दिखा दी।
हालात पर काबू पाने के लिए शिलांग में केंद्रीय बलों की पांच कंपनियां तैनात कर दी गई हैं। मुख्यमंत्री कोनराड संगमा ने केंद्रीय गृह मंत्री से पांच अतिरिक्त कंपनियां भेजने का अनुरोध किया है। आशंका है कि हिंसा भड़क सकती है। शायद सरकार भी ऐसा ही मानती है। यही वजह है कि सोमवार को आनन-फानन में बुलाई गई कैबिनेट बैठक में जहां थांगखियु की मौत के मामले की न्यायिक जांच के आदेश दे दिए गए, वहीं राज्य में शांति समिति और कानून-व्यवस्था उप-समिति का भी गठन करने का फैसला किया गया। पूर्व उग्रवादी नेता की कथित हत्या के विरोध में गृह मंत्री रिंबुई के इस्तीफे ने राज्य सरकार के लिए मुसीबत पैदा कर दी है। रिंबुई की यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी (यूडीपी) सरकार में मुख्यमंत्री संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) की सहयोगी है। रिंबुई ने कहा है कि उन्होंने पार्टी नेतृत्व से विचार-विमर्श के बाद ही इस मुठभेड़ के विरोध में इस्तीफा देने का फैसला किया है। हालांकि, मुख्यमंत्री ने अब तक उनके इस्तीफे पर कोई फैसला नहीं किया है।
आखिर थांगखियु जिस संगठन एचएनएलसी से जुड़े थे, उसकी इतनी अहमियत क्यों है? एचएनएलसी खासी और जयंतिया आदिवासी समुदाय के हितों की रक्षा के लिए देश के दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों के खिलाफ लड़ने का दावा करती है। मेघालय में सामाजिक अलगाव के बीज वर्ष 1972 में अलग राज्य की स्थापना के कुछ साल बाद ही पड़ गए थे। स्थानीय बनाम बाहरी विवाद की चिनगारी पर रोटी सेंकने वाले जिन आदिवासी संगठनों ने अस्सी के दशक में राज्य में सिर उठाया था, उनमें 'हनीट्रेप अचिक नेशनल लिबरेशन कौंसिल' पहला संगठन था। थांगखियु उसके सह-संस्थापक थे। हनीट्रेप शब्द का इस्तेमाल राज्य की खासी और जयंतिया जनजातियों के संदर्भ में किया जाता है और अचिक का गारो जनजाति के। राज्य में यही तीन प्रमुख जनजातियां हैं। एचएनएलसी ने शुरुआती दौर में भारत से अलग होने की मांग उठाई थी। उसकी दलील थी कि ब्रिटिश शासनकाल में भी खासी इलाका कभी भारत का हिस्सा नहीं रहा था। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में राज्य में एचएनएलसी की ओर से बंद, स्वाधीनता दिवस के बहिष्कार की अपील और जबरन उगाही आम बात हो गई थी। बाद में उग्रवाद-विरोधी अभियानों ने कुछ साल में इस संगठन की कमर तोड़ दी। एएनवीसी तो साल 2004 से ही सरकार के साथ युद्ध-विराम की राह पर चल रहा है, लेकिन एचएनएलसी का शीर्ष नेतृत्व किसी भी शांति समझौते के सख्त खिलाफ था। अब एचएनएलसी के नेता सरकार के साथ अपनी शर्तों पर शांति प्रक्रिया के पक्ष में थे, पर सरकार का रवैया साफ था। उसका कहना था कि पहले संगठन के तमाम काडर आत्मसमर्पण करें, उसके बाद ही कोई बातचीत शुरू हो सकती है, लेकिन एचएनएलसी को यह मंजूर नहीं था। हाल में हुए बम विस्फोटों को सरकार पर दबाव बनाने की संगठन की रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है।
दरअसल, मेघालय में स्थानीय बनाम बाहरी विवाद कोई नया नहीं है। पहले भी इस मुद्दे पर रह-रहकर हिंसा भड़कती रही है। सबसे ताजा मामला जून, 2018 का है, जब एक खासी युवती के साथ कथित छेड़छाड़ के मुद्दे पर सिख समुदाय के खिलाफ बडे़ पैमाने पर हिंसा भड़क उठी थी। उस समय राजधानी शिलांग में 12 दिनों तक कफ्र्यू लगाए रखना पड़ा था। यह कहना ज्यादा सही होगा कि यहां सांप्रदायिक भेदभाव के बीज सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने में छिपे हैं। क्षेत्रीय राजनीतिक दल भी सामाजिक भेदभाव की इस आग पर अपनी राजनीति की रोटियां ही सेंकते रहे हैं। पर्वतीय राज्य होने और रोजगार के ज्यादा अवसर न होने की वजह से मेघालय की अर्थव्यवस्था खदानों और पर्यटन पर ही आधारित है। ऐसे में, राज्य के लोगों में यह भावना घर कर गई है कि दूसरे राज्यों से यहां आने वाले लोग स्थानीय लोगों की कीमत पर रोजगार के बचे-खुचे मौके भी हथिया रहे हैं। राज्य के लोग नौकरी के लिए दूसरे राज्यों में जाना पसंद नहीं करते। उनको लगता है कि अगर बाहरी लोगों ने यहां आकर नौकरियों और उद्योग-धंधों पर कब्जा न किया होता, तो यह सब उनके जिम्मे ही आता, लेकिन हकीकत इसके अलग है। अस्सी के दशक में राज्य में नेपालियों, बंगालियों और बिहारियों के खिलाफ भी आंदोलन और हिंसक संघर्ष हो चुके हैं। भेदभाव की लकीरों के दिन-ब-दिन गहराते जाने की वजह से ही बाहरी राज्यों से आए लोग स्थानीय आदिवासी समाज के साथ घुल-मिल नहीं सके हैं। ऐसी हालत में स्थानीय बनाम बाहरी का मुद्दा भविष्य में भी जारी रहने के आसार हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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