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बिगड़ते पर्यावरण का दंश अब गांव ही झेलेंगे। एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट बताती है
डाॅ. अनिल प्रकाश जोशी बिगड़ते पर्यावरण का दंश अब गांव ही झेलेंगे। एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट बताती है कि आने वाले समय में पारिस्थितिकी व जलवायु परिवर्तन का देश-दुनिया के गांवों पर सीधा असर पड़ेगा। विडंबना है कि पहले गांव आर्थिक रूप से असमानता झेलते थे, अब वे पारिस्थितिकीय असमानताओं के दुष्परिणाम ज्यादा झेलेंगे।
दुनिया में गांवों व शहर के बीच आर्थिक असमानताएं बड़ा मुद्दा रही हैं। मसलन आज भी भारत में शहरी प्रति व्यक्ति आय करीब एक लाख मानी जाती है, जबकि उससे आधी से भी कम 40 हजार रुपए प्रति व्यक्ति आय गांवों में है। ये अंतर पाटने के बहुत रास्ते तलाशे गए, लेकिन आने वाले समय में इसके और बढ़ने की आशंका है। इसका बड़ा कारण बढ़ता शहरीकरण व गांवों से पलायन है। एक तरफ शहरी आबादी में विस्फोट हो रहा है, दूसरी तरफ खाली होते गांव विकास के सारे समीकरण धराशायी कर रहे हैं।
बात साफ है, जहां गांव खाली होंगे वहां शहरों की भीड़ दो बड़े काम तो करेगी ही। एक तरफ जहां बढ़ती शहरी जीडीपी का दम भर जाएगा, दूसरी तरफ पारिस्थितिकीय तंत्र को उतना ही बदतर भी बनाएगी। इसे अन्य दृष्टि से भी देखें। गांव, देश-दुनिया के जंगल हवा, मिट्टी, पानी में एक बहुत बड़ा योगदान देते हैं, घटती ग्रामीण आबादी उन पर विपरीत प्रभाव डालेगी।
दूसरी तरफ बढ़ती शहरी आबादी के कारण ऊर्जा खपत बढ़ेगी, जो प्रदूषण और पारिस्थितिकीय दुष्परिणामों के बड़े कारण बनेंगे। वैश्विक आंकड़े के अनुसार शहरी आबादी करीब 52% मानी जाती है जो शहरों में रहती है और साथ में 33% वो भी है जो अरबन क्लस्टर कहलाती है और गांव में मात्र 15% बचे हैं।
अपने देश में ही 68% लोग गांव में रहते है और 32% शहरों में, लेकिन आने वाले समय में ये समीकरण बदलने वाले हैं। अब कैसे मान लिया जाए कि हम अपने देश और दुनिया के पारिस्थितिकी तंत्र को इन हालातों में बेहतर कर पाएंगे। क्योंकि दुनिया में ऊर्जा की बड़ी खपत करीब 78% शहरों के ही कारण है और यही शहर दुनिया में 70% कार्बन उत्सर्जन का भी बड़ा कारण हैं।
सवाल है कि हम एक ऐसी पहल में क्यों पीछे छूटना चाहते हैं, जिसमें पारिस्थितिकी और आर्थिकी दोनों साथ-साथ चले। यह तभी संभव है जब गांव को केंद्रित रखते हुए हम ग्रीन इकोनॉमी की तरफ बढ़ें, इससे पारिस्थितिकी व अर्थिकी दोनों को बल मिलेगा। उदाहरण के लिए दिल्ली करीब 97% शहरी है, वहीं दूसरी तरफ हिमाचल प्रदेश आज भी करीब 90% गांव में बसता है और यही वह हिमाचल है, जहां करीब 20 हजार करोड़ रुपए की आय खेती बाड़ी और अन्य कार्यों से होती है।
दिल्ली प्रदूषण का अड्डा है तो हिमाचल आर्थिकी व पारिस्थितिकी का मॉडल है। केरल भी ग्रीन इकोनॉमी का अच्छा उदाहरण है। मतलब साफ है कि अगर जल्दी इस तरह के निर्णय नहीं लिए गए, जहां गांव की आर्थिकी को बेहतर किया जाए तो पारिस्थितिकी दंड झेलने पड़ेंगे, जिससे आने वाले समय में मुसीबतें कई गुना बढ़ जाएंगी।
ऊर्जा खपत की बात करें तो भारत और चीन दो देश हैं, जहां कोयला ज्यादा खपता है। अब यह बात सामने आने लगी है कि हमें अपनी उर्जा के दूसरे रास्ते तलाशने पड़ेंगे। वैसे भी कोयला घट रहा है और इससे पारिस्थितिकीय नुकसान भी जुड़े हैं। आज दुनिया के इस बढ़ते संकट को देखते हुए हमें अपनी आर्थिक गतिविधियां शहरों से घटाते हुए गांवों की तरफ बढ़ानी चाहिए।
यह एक तरह से आर्थिकी पारिस्थितिकी का विकास मॉडल भी बनेगा। माना जा रहा है कि 2030 तक 70% जीडीपी शहरों से होगी, जो कि आज 60% है। ऐसे में गांव का हिस्सा घटता चला जाएगा और इनकी घटती आर्थिकी का मतलब सीधा पारिस्थितिकीय नुकसान। संकेत साफ है कि अगर बचना-बचाना है तो अब ग्रामोन्मुखी होना ही होगा।
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