सम्पादकीय

शहर में गांव

Subhi
11 May 2022 5:34 AM GMT
शहर में गांव
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दो वर्ष पहले की तरह अब स्कूल सामान्य रूप से खुल गए हैं। ये दो साल शहर में रह रहे बच्चों के लिए बहुत उलझन भरे थे। उनका किसी दूसरे शहर, गांव आना-जाना प्रतिबंधित ही था।

संजीव राय: दो वर्ष पहले की तरह अब स्कूल सामान्य रूप से खुल गए हैं। ये दो साल शहर में रह रहे बच्चों के लिए बहुत उलझन भरे थे। उनका किसी दूसरे शहर, गांव आना-जाना प्रतिबंधित ही था। उनकी गतिविधियां घर के आसपास ही सीमित रही थीं। पिछले कुछ महीनों से जब बाजार खुलने लगे, तब बहुत से घरों में बच्चों की मांग के कारण अभिभावकों ने देशी-विदेशी नस्ल के कुत्ते, बिल्ली, खरगोश, तोते, रंगीन मछलियां, चिड़ियां रखना शुरू किया। बच्चों में इन दिनों जानवरों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ी है।

हमारे बच्चों की भी लगातार मांग रही कि एक छोटा पिल्ला या बिल्ली रखें, लेकिन कई व्यावहारिक चुनौतियों के चलते अभी तक ऐसा नहीं हो सका। हमारी झिझक की एक वजह ग्रामीण पृष्ठभूमि भी हो सकती है, जहां उन दिनों हमारी प्राथमिकता में गाय, बैल, भैंस हुआ करते थे। हमारे बचपन में कुत्ते-बिल्ली घरों के बाहर ही रहते थे और उनको खटिया, चौकी, कुर्सी पर बिठाने का रिवाज नहीं था।

कहते हैं न, जीवन में कभी सभी रास्ते बंद नहीं होते हैं। कोशिश करने से कोई न कोई रास्ता निकल आता है। तो, ऐसे ही हमारी बेटी ने एक घुमंतू बिल्ली के बच्चे से दोस्ती कर ली। वह उसके लिए कभी बिस्किट, तो कभी दूध ले जाने लगी। वह रोज शाम को उससे मिलने जाने लगी। उसका नाम उसने बेला रखा दिया। बेला दो अपार्टमेंट्स के बीच घूमती रहती थी, लेकिन शाम को वह भी एक नियत जगह पर कुहू का इंतजार करने लगी। हमारी बेटी को देखते ही दीवार से पूंछ हिलाते हुए, कूद कर उसके पैरों से चिपक जाती।

बेला को जब वह दुलार लेती, उसकी पीठ सहला लेती, तब जाकर वह बिल्ली उसका लाया खाना खाती। कभी-कभी ऐसे में कुछ कुत्ते बेला की तरफ आने लगते। उनको देखते ही बेला झट से उछल कर दीवार के दूसरी तरफ कूद जाती। एक बार बेला मेरे पास आकर पैरों में लिपटने की कोशिश करने लगी, तो मैं झटके से पीछे हट गया। हमारी बिटिया को यह व्यवहार पसंद नहीं आया!

बिल्लियों के साथ मेरा अपना अनुभव 'रक्षात्मक' रहा है। गांव में बिल्ली से भोजन, दूध-दही की सुरक्षा के लिए लोग 'सिकहुता' छींका रखते थे, जिसमें सामान ऐसे टांग दिया जाता था कि बिल्ली वहां तक पहुंच न सके। हमारे पुश्तैनी घर की रसोई में एक छोटी जाली वाली अलमारी होती थी, जिसमें दूध, दही आदि रख दिया जाता था। बिल्ली अलमारी न खोल पाती और उदास होकर चली जाती थी। गांव में, कभी-कभी बच्चे बिल्लियों के ऊपर पानी फेंक कर अपना मनोरंजन करते थे। हालांकि उन दिनों बिल्ली के बारे में कहा जाता था कि अगर सताने या मारने से वह मर गई तो दोषी व्यक्ति को उसके वजन बराबर सोने की बिल्ली दान करना पड़ेगा!

ग्रामीण इलाके में बचपन बिताए अनेक लोगों की स्मृतियों में गाय, बैल, भैंस जैसे जानवर अधिक प्रभावी रहे हैं। गांव में बड़े-बड़े बैल रखे जाते थे, क्योंकि खेती में ट्रैक्टर का चलन बहुत सीमित था। बैलों के भी नाम होते थे, जैसे- भुअरा, डिलहवा, सफेदू आदि। परिवार के सदस्यों की तरह उनकी देखभाल होती थी। बैल अपने खेत-खलिहान और परिवार के सदस्यों को पहचानते थे। बच्चे उनकी ताकत के जोर से 'हेंगा' और बैलगाड़ी पर बैठने का आनंद लेते थे। बैल हल चलाने वाले की भाषा समझते थे।

हफ्ते-दस दिन में बैलों को नहला कर उनकी सींगों पर तेल लगाया और उनको माला पहनाया जाता। गांव में गाय-बैलों को नियमित रूप से रात को रोटी दी जाती थी, जिसे 'कौरा' कहा जाता था। शायद यह एक तरह का आभार ज्ञापन भी रहा हो कि हम जो भोजन कर रहे हैं, उसमें उनकी मेहनत का महत्त्वपूर्ण योगदान है! अंतिम रोटी, कुत्ते को देने का रिवाज था। शहर में आकर अब गाय-बैल तो मिलते नहीं, लेकिन पूर्णबंदी के दौरान से हम चिड़ियों के लिए पानी-रोटी रखने लगे।

बिटिया बेला को पाकर खुश थी। पर एक दिन शाम को बेला नहीं दिखी। उसको आवाज दिया, आसपास ढूंढ़ा, लेकिन वह नहीं मिली। मैं भी सुबह-शाम उधर जाता कि शायद वह दिख जाए। एक बिल्ली मिली, मैंने उसका फोटो ले लिया, लेकिन बेटी ने कहा, नहीं यह बेला नहीं है। वह थोड़ी उदास रहने लगी। बेला को लेकर अनिष्ट की आशंका घर करने लगी। मुझे भी थोड़ी उदासी हुई। दस-बारह दिन बेटी नीचे खेलने गई थी और दौड़ कर बताने आई कि बेला मिल गई! यह सुन कर संतोष हुआ। साथ ही, अपना बचपन और गाय-बैल न रहने से वीरान हो चुके खूंटे याद आए। घरों में बंद ताले आंखों के सामने प्रगट हो गए। यह सवाल जेहन में घूमता रहा कि हम लोग गांव से शहर तो आ गए, लेकिन क्या अब शहर में गांव ढूंढ़ रहे हैं?

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