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पिछले सप्ताह मैंने इसी कॉलम में अपनी व्यथा का इजहार किया था
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
पिछले सप्ताह मैंने इसी कॉलम में अपनी व्यथा का इजहार किया था. मेरी व्यथा किसी राजनीतिक दल के लिए बिल्कुल नहीं थी बल्कि मेरा नजरिया हमेशा ही यह रहता है कि विकास की राह के माध्यम से सर्व सामान्य जनता को राहत मिले... जब कोई व्यवधान पैदा होता है तो दुखी होना स्वाभाविक है.
आम आदमी की यही राय रही है कि पिछले ढाई साल में कोरोना मैनेजमेंट को छोड़कर विकास के ज्यादातर काम ठप रहे हैं. आम आदमी को राजनीति से कोई मतलब नहीं. उसे तो विकास चाहिए. अब राजनीतिक भूचाल थोड़ा मंद पड़ गया है इसलिए सत्ता और विपक्ष दोनों से ही मेरी अपेक्षा है कि राजनीति के भूचाल में विकास का काम नहीं रुकना चाहिए.
प्रदेश की राजनीति में अचानक जो भूचाल आया उसकी आशंका तो थी लेकिन पासा ऐसा पलट जाएगा, भूकंप का ऐसा झटका लगेगा, इसकी किसी को आशंका नहीं थी. यह तो किसी ने सोचा ही नहीं था कि भाजपा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के पद पर एकनाथ शिंदे की ताजपोशी कर देगी और देवेंद्र फडणवीस उपमुख्यमंत्री के रूप में सत्ता में वापस आएंगे!
दरअसल यह सब भाजपा की दूरगामी रणनीति का हिस्सा है. भाजपा ने हमेशा ही राजनीति में परिवारवाद के खिलाफ नारा लगाया है और पूरे देश में ऐसी पार्टियों पर हमले किए हैं जहां सूत्र एक परिवार के पास है. शिवसेना पर प्रहार इसी रणनीति का हिस्सा कह सकते हैं. वैसे भी उद्धव ठाकरे की शिवसेना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और देवेंद्र फडणवीस के खिलाफ तीखे तेवर दिखा रही थी.
अचानक शिवसेना के नीचे की जमीन खिसक गई. जमीन खिसकाने का जाल जब बिछाया जा रहा था तब किसी को कानोंकान खबर नहीं लगी. एकनाथ शिंदे के साथ जो विधायक पहले सूरत और फिर गुवाहाटी पहुंचे उन्हें भी यह अंदाजा नहीं था कि भाजपा शिंदे को मुख्यमंत्री बना देगी. देवेंद्र फडणवीस ने शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने के साथ ही खुद को सरकार से अलग रखने लेकिन भाजपा के शामिल होने की घोषणा की तो सभी अचंभित रह गए क्योंकि लोग यही मानकर चल रहे थे कि फडणवीस मुख्यमंत्री और शिंदे उपमुख्यमंत्री होंगे.
इसके बाद पीएम मोदी और अमित शाह की मंत्रणा हुई और फडणवीस को सरकार में शामिल होने को कहा गया क्योंकि ऐसा करने से वे शिंदे की ज्यादा मदद कर सकते थे. सरकार में रहने से पूरी मशीनरी और फाइलों तक पहुंच रहती है. इस तरह से भाजपा ने कमान की डोरी पीछे खींचकर प्रत्यंचा चढ़ाई. तीर कमान से निकला और लक्ष्य को बड़ी सटीकता से भेद दिया. भाजपा ने इतना सोच-समझकर चाल चली कि वह सत्ता की भूखी न कहलाए और ठाकरे को सहानुभूति न मिल सके.
एक मराठा को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने शरद पवार की राजनीति की भी जमीन तोड़ने की कोशिश की है. शिंदे मूल रूप से सतारा के रहने वाले हैं और ठाणे उनकी राजनीति का ठिकाना रहा है. वे जिस वेस्टर्न महाराष्ट्र के इलाके से आते हैं वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का मजबूत गढ़ है. निश्चय ही एकनाथ शिंदे वहां भी जोर लगाएंगे और राकांपा को कमजोर करेंगे.
यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि वर्तमान समय में शिवसेना को तितर-बितर कर दिया है. सामने मुंबई महानगर पालिका, ठाणे और नवी मुंबई के चुनाव हैं. उसके बाद 2024 का लोकसभा चुनाव, फिर विधानसभा का चुनाव होना है. ऐसे में ठाकरे की शिवसेना के लिए रास्ता आसान नहीं रहने वाला है. उनके पास जो विधायक बचे हैं, वे ज्यादतर मुंबई के हैं. अभी तो घमासान चलना है कि शिवसेना किसके पास रहेगी? तीर-कमान किसे सुशोभित करेगा? बालासाहब ठाकरे के नाम का असली उत्तराधिकारी कौन होगा? ...और सबसे बड़ा सवाल कि राजनीति के दांवपेंच में कौन माहिर साबित होगा? उद्धव ठाकरे ने एक चाल चल दी है. उन्होंने एकनाथ शिंदे को पार्टी से बाहर कर दिया है लेकिन इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि शिंदे इस वक्त प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं. जमीन से जुड़े हुए हैं, व्यक्तित्व से दिलदार हैं. उन्हें कमजोर आंकने की कोई कोशिश उद्धव ठाकरे नहीं कर सकते.
सत्ता से जाते-जाते उद्धव ठाकरे ने अंतिम दिनों में थोक के भाव जीआर जारी किए, जिसे लेकर राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने जवाब तलब भी कर लिया था. जाते-जाते ठाकरे सरकार ने औरंगाबाद का नाम बदलकर संभाजी नगर, उस्मानाबाद का नाम बदलकर धाराशिव और नवी मुंबई एयरपोर्ट को डीबी पाटिल के नाम कर दिया. राकांपा और कांग्रेस ने विरोध भी नहीं किया! जब राज्यपाल बहुमत साबित करने का आदेश दे चुके हों तो उस सरकार को निर्णय लेने का अधिकार नहीं रह जाता इसलिए ये निर्णय कानूनी तौर पर अमान्य हैं.
जाहिर सी बात है कि ठाकरे सरकार ने भाजपा के समक्ष संकट पैदा करने के लिए ऐसा किया क्योंकि भाजपा भी औरंगाबाद और उस्मानाबाद का नाम बदलने की पक्षधर रही है. वैसे पांच साल की सरकार के दौरान भाजपा ने इस संबंध में कोई निर्णय नहीं लिया था और ठाकरे सरकार ने भी अपने ढाई साल के कार्यकाल में निर्णय नहीं लिया. उसने अंतिम समय में ये चाल चली.
बहरहाल, यह राजनीति चलती रहेगी. मुद्दे की बात है कि राजनीति का रुख चाहे जैसा भी रहे, भूचाल चाहे जितना भी आए, भूकंप के चाहे जितने भी झटके लगें लेकिन आम आदमी के विकास का काम नहीं रुकना चाहिए. इस वक्त पूरे प्रदेश में किसान परेशान हैं. ठीक से बारिश नहीं होने के कारण बोये हुए बीज बेकार हो गए हैं. खाद उपयोगी नहीं रहा. केला, अनार, अंगूर और संतरे के बागों को भारी नुकसान पहुंचा है.
ऐसी स्थिति में सरकार का ध्यान किसानों की तरफ होना चाहिए. उन्हें हर तरह की मदद मिलनी चाहिए. विकास के जो काम रुके पड़े हैं, उन्हें रफ्तार मिलनी चाहिए. कोविड के बाद बिगड़े हुए आर्थिक हालात को बेहतर करने के लिए परिणाममूलक प्रयासों की जरूरत है. राजनीति से अलग हटकर जरा इन मुद्दों पर गंभीरता से ध्यान दीजिए सरकार!
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Rani Sahu
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