सम्पादकीय

सतर्क : फिर खालिस्तान की चर्चाएं, खुदा खैर करे

Neha Dani
21 Jan 2022 1:47 AM GMT
सतर्क : फिर खालिस्तान की चर्चाएं, खुदा खैर करे
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भारत माता के वास्ते 'खालिस्तान' शब्द को हमेशा के लिए कल्पना से भी निकाल देना चाहिए।

पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में अमर उजाला के नियमित स्तंभकार केपीएस गिल ने अपने एक लेख में आगाह किया था कि पंजाब में स्थितियों को ठीक से नहीं संभाला गया, तो आतंकवाद की वापसी हो सकती है। गिल ने इस थीम को अपनी पत्रिका फॉल्टलाइन में थोड़े विस्तार से प्रस्तुत किया था। निजी वार्ताओं में वह जो बोलते थे, उसके उल्लेख का अब कोई महत्व नहीं है। उनका सार्वजनिक मत यह था कि पंजाब के कुछ राजनेताओं ने व्यापक राष्ट्रीय हितों के संदर्भ में सोचने के बजाय संकीर्ण राजनीतिक हितों को प्राथमिकता दी, जिससे इस सीमावर्ती राज्य में आतंकवाद फैलाने की अंतरराष्ट्रीय साजिशें कामयाब हुईं।

पाकिस्तान, ब्रिटेन, अमेरिका और कनाडा में बैठे आतंकी-आकाओं का घोषित उद्देश्य 'खालिस्तान' था। साथ ही संविधान की शपथ लेने वाले दल संविधान जला रहे थे; उन्होंने यह नहीं सोचा कि संविधान में अनास्था का दुष्परिणाम सांविधानिक व्यवस्था का अंत होगा और तब यह देश भी नहीं बच पाएगा। या, वे ये सब साजिशन कर रहे थे? एक साल पहले किसान आंदोलन के दौरान आतंकियों-खालिस्तानियों के घुस आने के आरोप लगाए गए थे।
इस बार पंजाब विधानसभा चुनाव के मौके पर ये अशुभ शब्द फिर गूंजने लगे हैं। साजिशों के चर्चे भी चल रहे हैं। नए साल की शुरुआत में फिरोजपुर में प्रधानमंत्री का काफिला किन परिस्थितियों में लौटा, उसके पीछे साजिश थी, खुफिया और सुरक्षा व्यवस्था की विफलता थी या कुछ और था- इसकी जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही है। इसलिए अन्य पहलुओं को देखते हैं। भारतीय जनता पार्टी के दो मुख्यमंत्रियों, असम के हिमंत विस्व शर्मा और त्रिपुरा के विप्लव देव ने खालिस्तानी षड्यंत्र का जिक्र किया है।
पार्टी के कुछ नेताओं ने सिर्फ साजिश बताई है। जाहिर है, बिना साजिश इतनी बड़ी अनहोनी नहीं हो सकती। उम्मीद की जाए कि जांच रिपोर्ट सूत्रधारों तक जरूर पहुंचेगी। अंतरराष्ट्रीय साजिशों का पर्दाफाश ज्यादातर मामलों में नहीं होता। फिलहाल एक अहम जानकारी सामने आई है-राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने जर्मनी स्थित संगठन 'सिख्स फॉर जस्टिस'(एसएफजे) से जुड़े जसविंदर सिंह मुल्तानी और उसके साथियों के खिलाफ पंजाब में आतंकवाद फिर पनपाने की कोशिशों का मुकदमा दर्ज किया है।
एनआईए के मुताबिक, मुल्तानी और उसके साथी पंजाब में तस्करों के नेटवर्क के जरिये हथियार और विस्फोटक खरीदने के लिए धन जुटाने में लिप्त होने के साथ ही पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से भी संपर्क में हैं। एनआईए यह भी जांच करेगी कि 'खालिस्तान जिंदाबाद फोर्स' और 'खालिस्तान टाइगर फोर्स' जैसे संगठनों से मुल्तानी और उसके साथियों के कैसे संबंध हैं।
सबसे बड़ा आरोप यह है कि पंजाब को भारत से अलग करने लिए पंजाब के युवकों को बरगला कर गोलबंद किया जा रहा है। रिपोर्टों के अनुसार, जर्मन पुलिस भारतीय एजेंसियों से मिली जानकारी के आधार पर मुल्तानी को हिरासत में ले चुकी है। एनआईए केंद्र सरकार के अधीन है, लेकिन कांग्रेस द्वारा शासित पंजाब की पुलिस ने भी मुल्तानी और अन्य पर हथियारों, विस्फोटकों की तस्करी और किसान आंदोलन के दौरान एक किसान नेता की हत्या कर अशांति फैलाने की साजिश का केस दर्ज किया है।
अलगाववाद और आतंकवाद भड़काने की अंतरराष्ट्रीय साजिशों के अलावा पंजाब की त्रासदी यह भी है कि नेताओं और शिखर के अफसरों को बचाने की पेशबंदी फौरन शुरू हो जाती है। सरकार बदल जाने के बाद भी सच पर लोहे का पर्दा पड़ा रहता है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शहादत का उदाहरण लें। विदेशी मामलों संबंधी खुफिया एजेंसी 'रॉ' के पूर्व अधिकारी जीबीएस सिद्धू अपनी किताब द खालिस्तान कंस्पिरेसी में सवाल उठाते हैं कि आखिर प्रधानमंत्री के हत्यारों को उनके निकट आने का मौका मिला ही कैसे?
रॉ के पूर्व प्रमुख आरएन काव ने 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' के बाद स्पष्ट निर्देश दिया था कि दो हथियारबंद सिख गार्डों को एक साथ प्रधानमंत्री के निकट न आने दिया जाए। सिद्धू के मुताबिक, काव के हाथ का लिखा एक नोट नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय में सीलबंद रखा है। 2027 में इसे सार्वजनिक किया जाना है। इंदिरा गांधी की हत्या पर इससे नई रोशनी पड़ सकती है।
एक और बड़ा सच लॉकरों में है। प्रधानमंत्री राजीव गांधी और अकाली दल के अध्यक्ष हरचंद सिंह लोंगोवाल ने 26 जुलाई,1985 को ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। जिन-जिन मुद्दों को लेकर इंदिरा गांधी के शासन में अकालियों और अन्य सिख संगठनों ने आंदोलन किया था, उन सबका उल्लेख इसमें था। कई अहम मुद्दे सुलझा लिए गए थे। उसी दिन से समझौते का विरोध होने लगा। एक महीना भी नहीं बीता था कि लोंगोवाल की हत्या कर दी गई। हत्यारे का पता है, उसके पीछे खड़ी ताकतों का नहीं। यह समझौता राजीव गांधी की दूरदर्शिता व राष्ट्र प्रेम तथा लोंगोवाल के विवेकपूर्ण, वीरोचित साहस का प्रतीक था।
अकाली दल की अंदरूनी राजनीति और उग्रवादियों के खतरे से बाखबर लोंगोवाल ने भारत की एकता के लिए शहादत का जोखिम लिया था। समझौते की विफलता भारत विरोधी शक्तियों की विजय और भारतीय राष्ट्र-राज्य की दूरगामी परिणाम वाली दुखद पराजय थी। तब से पंजाब के जख्म भर चुके हैं। एक सिख दस साल प्रधानमंत्री रह चुका है।
जिस सेना के कुछ सौ सिख सैनिकों ने 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' के बाद विद्रोह कर दिया था, उसका नेतृत्व दो सिख जनरल कर चुके हैं- जेजे सिंह और विक्रम सिंह। राज्य में कांग्रेस दो बार सत्ता में आ चुकी है। स्वार्थपूर्ण राजनीति का खामियाजा पंजाब ने कई साल तक भुगता है। भारत माता के वास्ते 'खालिस्तान' शब्द को हमेशा के लिए कल्पना से भी निकाल देना चाहिए।


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