सम्पादकीय

नजरिया: राहुल गांधी का दौरा और कश्मीरी पंडितों की घर वापसी का सवाल

Rani Sahu
15 Sep 2021 7:52 AM GMT
नजरिया: राहुल गांधी का दौरा और कश्मीरी पंडितों की घर वापसी का सवाल
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कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी हाल ही में जब जम्मू आए, तो उन्होंने अपनी जड़ें कश्मीर में होने का खासतौर पर उल्लेख किया

राकेश गोस्वामी। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी हाल ही में जब जम्मू आए, तो उन्होंने अपनी जड़ें कश्मीर में होने का खासतौर पर उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि मेरा परिवार भी कश्मीरी पंडित है, मैं विश्वास दिलाता हूं कि कश्मीरी पंडितों की मदद करूंगा। राहुल गांधी ने यह संदेश देने का प्रयास किया कि कश्मीरी पंडितों से उनका पुराना जुड़ाव है। हालांकि उनकी पार्टी की सरकारों ने कभी अपने ही देश में विस्थापित होने का दंश झेल रहे कश्मीरी पंडितों की 'घर वापसी' के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया। फिर ऐसा क्या हुआ कि राहुल के मन में कश्मीरी पंडितों के लिए करुणा जाग गई?

दरअसल, अनुच्छेद-370 हटने और राज्य का दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजन के बाद जम्मू-कश्मीर में बदलाव की बयार बह रही है। इसे देखकर उम्मीद बंधी है कि कश्मीरी पंडित जल्द अपने घर लौट सकते हैं। ऐसे में, कोई भी दल यह नहीं चाहेगा कि वह इस ऐतिहासिक घटना के विरोध में खड़ा दिखे। 'घर वापसी' की उम्मीद जागने की कई वजहें हैं। सबसे बड़ी वजह है, बदला हुआ माहौल।
इस बार करीब 30 साल बाद जन्माष्टमी पर कश्मीर के कई इलाकों में झांकी निकाली गई। कुछ इलाकों में इन झांकियों में मुसलमानों ने भी हिस्सा लिया। एक बड़ा बदलाव कश्मीर के गुमनाम हो चुके नायकों को फिर से सम्मान देने का भी हुआ है। हाल ही में श्रीनगर में जीरो ब्रिज से बक्शी स्टेडियम तक जाने वाली सड़क का नाम कश्मीर के प्रथम साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता और सुविख्यात कवि जिंदा कौल के नाम पर किया गया है।
नायकों को सम्मान देने की इस कड़ी में दूसरा फैसला हैदरपोरा के डिग्री कालेज का नाम मशहूर थिएटर कलाकार पद्मश्री मोतीलाल केमू के नाम पर रखने का है। इन फैसलों को घाटी में पंडितों की वापसी और यहां के सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन में उनके योगदान से युवा पीढ़ी को अवगत कराने की कवायद के रूप में देखा जाना चाहिए। ये फैसले प्रतीकात्मक हो सकते हैं, लेकिन इनके निहितार्थ गहरे हैं।
नब्बे के दशक में अपने घरों से बेघर हुए कश्मीरी पंडितों के जख्म 30 वर्षों बाद भी हरे हैं। काबिले गौर है कि कश्मीर में पंडितों का इतिहास लगभग पांच हजार साल पुराना है। तेरहवीं सदी में जब इस्लाम कश्मीर का बहुसंख्यक धर्म बन गया, तब भी पंडित और मुस्लिम एक साथ सौहार्दपूर्ण वातावरण में रहते थे। मुस्लिम ज्यादातर व्यापार करते, जबकि पंडित पढ़ने-लिखने वाली कौम थी।
1989 में पंडितों की हत्याएं और उनके घरों पर हमले शुरू हो गए। 1989-90 में लगभग ढाई लाख कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन किया। ये विभाजन के बाद देश का सबसे बड़ा पलायन था। 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने घोषणा की थी कि पंडितों की घाटी में वापसी के लिए छह हजार युवाओं को सरकार नौकरी देगी और तीन हजार युवाओं को स्वावलंबी बनाने के लिए मदद करेगी।
लेकिन यूपीए सरकार में महज 1,400 नौकरियां मिल पाईं, जबकि मौजूदा सरकार में आज लगभग चार हजार नौकरियां मिल चुकी हैं और दो हजार प्रक्रियाधीन हैं। कश्मीरी विस्थापितों की पुश्तैनी संपत्तियों के संरक्षण के लिए जम्मू कश्मीर सरकार ने 1997 में जम्मू और कश्मीर प्रवासी अचल संपत्ति (संरक्षण और संकट बिक्री पर संयम) अधिनियम बनाया। लेकिन इसका ठीक से क्रियान्वयन नहीं हो पाया।
इस कानून के मुताबिक, संबंधित जिलाधीश को प्रवासी संपत्तियों का संरक्षक बनाया गया, लेकिन लोगों ने इसे बड़ी चालाकी से दरकिनार करते हुए संपत्तियां या तो हथिया लीं या औने-पौने दामों पर खरीद लीं। क्रियान्वयन में खामियों को दूर करने के लिए हाल में जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने विस्थापितों की ऑनलाइन शिकायत दर्ज करने के लिए एक पोर्टल का लोकार्पण किया है।
यह सवाल सबके मन में है कि जो प्रयास हो रहे हैं, इनके बूते ही कश्मीरी पंडितों की वापसी हो जाएगी या और मशक्कत करनी होगी। इस का जवाब सरकार की मंशा पर निर्भर करता है, जिसमें अभी तक कोई खोट नहीं नजर नहीं आ रही। (लेखक क्षेत्रीय निदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान, जम्मू हैं।)
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