सम्पादकीय

वियतनाम, अफगानिस्तान और यूक्रेन : तीनों देशों से भारत के रिश्ते और पूर्व राजनयिक की भविष्यवाणी

Neha Dani
20 Sep 2022 1:41 AM GMT
वियतनाम, अफगानिस्तान और यूक्रेन : तीनों देशों से भारत के रिश्ते और पूर्व राजनयिक की भविष्यवाणी
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शिक्षाविदों, मीडिया और प्रभावी प्रवासी भारतीयों के नेताओं के साथ सेतु बनाने से जुड़ी होती है।

राजनयिक महाराज कृष्ण रसगोत्रा ने किसी भी अन्य भारतीय राजनयिक की तुलना में कहीं अधिक भारतीय तथा ब्रिटिश प्रधानमंत्रियों और अमेरिकी राष्ट्रपतियों को देखा है। पिछले हफ्ते ही उन्होंने अपने जीवन के 98 वर्ष पूरे किए हैं, लेकिन अब भी उनकी स्मृति तीक्ष्ण है, उनमें जटिल अंतरराष्ट्रीय मुद्दों की गहरी समझ है और वह उनका सूक्ष्मता से विश्लेषण करते हैं। अपनी बेबाक राय रखने से वह नहीं हिचकते।




15 सितंबर को इंडो-अमेरिकन फ्रैंडशिप एसोसिएशन (आईएएफए) के दिल्ली में हुए सम्मेलन में उन्होंने जोर देकर कहा कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से दुनिया पर एक निष्पक्ष नजर यह संकेत देगी कि जब भी कोई बड़ी शक्ति किसी छोटे से देश पर आक्रमण करती है, जिसके लोग पूरी तरह से स्वतंत्र हैं; जो इसे प्यार करते हैं, इस पर गर्व करते हैं और इसके लिए मरने को तैयार रहते हैं, तो अंततः उसे हार का सामना कर पीछे हटने को मजबूर होना पड़ता है।


उन्होंने 1965 में वियतनाम पर अमेरिकी हमले का उदाहरण दिया, जो कि छोटा-सा देश था और आर्थिक या सैन्य मामलों में अमेरिका से उसकी कोई बराबरी नहीं थी। लेकिन उसने अमेरिकी सैनिकों को ताबूत में वापस भेज दिया, जिनकी स्मृति में 57,939 सैनिकों के नाम के साथ वाशिंगटन में वियतनाम वेटरन वॉर मेमोरियल है। अत्यंत पीड़ादायक वियतनाम युद्ध ने अमेरिकी समाज को इस कदर विभाजित कर दिया, जैसा पहले कभी नहीं हुआ।

मानव क्षति का अंबार लग गया। अंततः अमेरिका को बेहद अपमानजनक ढंग से 1975 में वापसी करनी पड़ी। सैगान स्थित अमेरिकी दूतावास की छत से हेलीकॉप्टरों के जरिये अमेरिकी अधिकारियों के आखिरी दस्ते की वापसी की तस्वीरें आज भी अमेरिकियों को परेशान कर देती हैं। इस पराजय से कोई सबक न लेते हुए अमेरिका ने 11 सितंबर, 2001 को न्यूयॉर्क स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टावर पर हुए आतंकी हमले के बाद अक्तूबर 2001 में अफगानिस्तान पर हमला कर दिया और तालिबान सरकार को उखाड़ फेंका तथा उसके अनेक नेताओं को गुआंतानामो बे में कैद कर लिया।

बीस साल के दौरान करीब बीस खरब डॉलर खर्च करने और करीब चार हजार सैनिकों की जान गंवाने के बाद उसे बेहद अपमानजनक परिस्थितियों में वहां से वापसी करनी पड़ी, जबकि अनेक यूरोपीय देशों का उसे समर्थन हासिल था। 30 अगस्त, 2021 को काबुल स्थित उसके दूतावास की छत से उसके अधिकारियों ने हेलीकॉप्टरों में सवार होकर वापसी की उड़ान भरी थी। दो बड़ी शक्तियों के साथ भी यही हुआ।

चीन ने फरवरी, 1979 में वियतनाम पर हमला किया था, लेकिन नौ दिनों के भीतर ही उसे कड़ी चुनौती मिली और लहूलुहान होकर मार्च, 1979 में उसे वापसी करनी पड़ी। इसी तरह से सोवियत संघ ने दिसंबर, 1979 में अफगानिस्तान पर हमला किया। 15,000 से अधिक फौजियों की मौत के बाद उसे अंततः 1988 में पराजय के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने पड़े और 1989 में अफगानिस्तान से वापसी करनी पड़ी।

उन्होंने महसूस किया कि हाल के हफ्तों में रूस को यूक्रेन से गंभीर नुकसान हुआ है, जो अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों द्वारा उन्नत हथियारों से लैस है और उसके बहादुर सैनिक निडर होकर लड़ रहे हैं और हमलावर दुश्मन को हराने के लिए दृढ़ हैं। रसगोत्रा के अनुसार, यूक्रेन संकट अगले छह महीनों में खत्म हो जाना चाहिए। उन्होंने महसूस किया कि भारत, जिसके रूस और यूक्रेन दोनों के साथ घनिष्ठ संबंध हैं और जिसने अब तक किसी का पक्ष नहीं लिया है, मध्यस्थता करने और रूस की सम्मानजनक वापसी की सुविधा प्रदान करने के लिए अच्छी तरह से तैयार है।

रसगोत्रा ने भविष्यवाणी की है कि असीमित दोस्ती की हालिया घोषणाओं के बावजूद, अगले 25 वर्षों में चीन और रूस के बीच विशेष रूप से दोनों देशों की नौसेनाओं के बीच एक टकराव की आशंका है। राजनयिक रसगोत्रा के मुताबिक हालांकि भारत अपनी रक्षा खरीद और तेल तथा गैस की आपूर्ति के लिए रूस पर बहुत अधिक निर्भर करता है, लेकिन पचास खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारत के अमेरिका के साथ निकटतम संभावित संबंध होने चाहिए।

उन्हें लगता है कि चीन की अर्थव्यवस्था गंभीर रूप से गिरावट की ओर है; दुनिया के अधिकांश देशों ने जहां कोविड महामारी का सामना किया, वहीं चीन में इसकी वजह से बहुत सख्त लॉकडाउन लगाने पड़े। रसगोत्रा के विचार में, चीन के बीआरआई ने पाकिस्तान और श्रीलंका की अर्थव्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया है और भारत की सहायता के कारण बांग्लादेश इस तबाही से बच गया है।

उन्होंने महसूस किया कि पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल की वर्तमान स्थिति को देखते हुए 'नेबर्स फर्स्ट' (पड़ोसी पहले) एक अच्छी अवधारणा है, लेकिन इसमें किसी तरह की प्रगति नहीं हुई है। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति की सराहना की, जिन्होंने इस तथ्य के बावजूद भारत को अमेरिका के सबसे करीब ला दिया है कि इसने उन्हें 10 साल के लिए वीजा से वंचित कर दिया था।

अमेरिकी राष्ट्रपतियों और अन्य विश्व नेताओं के साथ व्यक्तिगत केमिस्ट्री विकसित करने की उनकी क्षमता को भी उन्होंने सराहा। उन्होंने वर्तमान विदेश मंत्री की प्रशंसा की। विदेश मंत्री एस जयशंकर कभी रसगोत्रा के शिष्य रहे हैं। वास्तव में रसगोत्रा अपने-आप में जीवित संस्था हैं, जिन्होंने भारतीय राजनयिकों की अनेक पीढ़ियों को प्रेरित किया है। इन पंक्तियों के लेखक ने 1980 के दशक में लंदन में भारतीय उच्चायोग में उनके साथ काम करते हुए बहुत कुछ सीखा।

रसगोत्रा से यह सीखने को मिला कि कूटनीति केवल ग्राफ्स, आंकड़ों और कुछ बिंदुओं के साथ मसौदा तैयार करना भर नहीं होती, बल्कि यह शीर्ष नेतृत्व तक पहुंच का प्रयास करने, सत्ता के उत्तोलकों को इस्तेमाल करने वाले क्षेत्रों की पहचान करने और उनसे संपर्क बनाने, निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करने वालों, सांसदों, कारोबारी हितों, शिक्षाविदों, मीडिया और प्रभावी प्रवासी भारतीयों के नेताओं के साथ सेतु बनाने से जुड़ी होती है।

सोर्स: अमर उजाला



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