सम्पादकीय

संघर्ष की जीत

Subhi
6 Dec 2022 5:44 AM GMT
संघर्ष की जीत
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अगर यह फैसला जमीन पर उतरता है, तो निश्चित तौर पर उन तमाम महिलाओं के जीवट और हिम्मत की जीत है, जिन्होंने दमन की एक घटना की अनदेखी करने के बजाय उसे समूचे ईरान में एक बड़ा मुद्दा बना दिया और बहुत सारे लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया।

Written by जनसत्ता: अगर यह फैसला जमीन पर उतरता है, तो निश्चित तौर पर उन तमाम महिलाओं के जीवट और हिम्मत की जीत है, जिन्होंने दमन की एक घटना की अनदेखी करने के बजाय उसे समूचे ईरान में एक बड़ा मुद्दा बना दिया और बहुत सारे लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया।

गौरतलब है कि कुछ महीने पहले ईरान में महसा अमीनी नाम की एक युवती को वहां सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया कि उसने हिजाब नहीं पहना था। उसके बाद हिरासत में ही उसकी मौत हो गई। जाहिर है, यह गिरफ्तारी और उससे आगे यातना का मामला था। मगर इस बार ईरान में एक खास प्रतिक्रिया देखने में आई कि उस घटना को चुप रह कर गुजर जाने देने के बजाय भारी तादाद में महिलाओं ने इसके खिलाफ आवाज उठाई।

तब से इस मसले पर लगातार प्रदर्शन चलते रहे। कई ऐसी खबरें सामने आईं, जिसमें कुछ महिलाओं ने अपने हिजाब जलाए और बाल काट लिए। हालत यह हो गई कि ईरान में चले इस प्रदर्शन ने अन्य जनपक्षीय मुद्दों को भी अपने में समाहित कर लिया और उसमें शामिल महिलाओं को वैश्विक स्तर पर समर्थन मिला।

सख्ती और दमन के जरिए इस अभियान से निपटने की कोशिश में लगी ईरान की सरकार के सामने एक मुश्किल यह खड़ी हुई कि वैश्विक स्तर पर उसके खिलाफ उठते सवालों के कैसे शांत किया जाए। हालांकि वहां की सरकार ने विवेक से काम लिया होता तो शुरू में ही महसा अमीनी की मौत के बाद आरोपियों के खिलाफ सख्ती का रुख दिखा सकती थी।

मगर यह खास बात दुनिया ने देखा कि ईरान में महिलाओं ने हिजाब की वजह से एक महिला की मौत के बाद इस समूची जड़ परंपरा के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। ईरान के शासन में धार्मिक नियम-कायदों के प्रभाव की अब तक जैसी छवि रही है, उसमें यह उम्मीद कम थी कि सरकार इस मसले पर झुकेगी। लेकिन अब 'नैतिक पुलिस' की इकाइयों को भंग किए जाने का फैसला उन महिलाओं और आम लोगों की जीत है, जिन्होंने अपनी इच्छा से हिजाब नहीं पहनने के अधिकार के समर्थन में लड़ना चुना और लंबे समय से चली आ रही इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई।

दरअसल, कोई भी जड़ परंपरा तब तक कायम रहती है, जब तक उस पर कोई न सवाल उठे। बल्कि सत्ता के दमन के जोखिम के बावजूद जब आम लोग किसी दमघोंटू चलन के विरुद्ध मोर्चा लेने का फैसला कर लेते हैं, तब जाकर उससे राहत या आजादी का रास्ता तैयार होता है। ईरान की महिलाओं और उनके साथ खड़े भारी तादाद में लोगों ने इसी का उदाहरण सामने रखा।

ईरान में 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद 'नैतिक पुलिस' के कई रूप देखने को मिले। लेकिन 2006 में गठित 'गश्त-ए-इरशाद' सबसे ज्यादा चर्चा में रहा, जो महिलाओं के हिजाब पहनने के अलावा अन्य इस्लामी कानूनों को सख्ती से लागू कराना सुनिश्चित कर रहा था। यह न्यायपालिका और इस्लामी रिवाल्यूशनरी गार्ड्स कार्प्स से जुड़े बल 'बासिज' के साथ मिलकर काम करता था।

यों इस तंत्र को भंग करने की खबर के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि महिलाओं को संकीर्ण घेरों में कैद करने और उदार मूल्यों के खिलाफ माहौल अचानक ही पूरी तरह खत्म हो जाएगा, इसके बावजूद हिजाब के मसले पर महिलाओं के आंदोलन को जैसी जीत मिली है, उसने दुनिया के किसी भी हिस्से में दमघोंटू रीति-रिवाजों को हिम्मत के साथ खारिज करने का रास्ता तैयार किया है।


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