- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- वास्तविक मजदूरी ठहराव...
x
पारिवारिक सर्वेक्षणों में इन्हें बेरोजगार की श्रेणी में नहीं गिना जाता.
आज कल ‘बेरोजगारी’ के अनुपयोगी आंकड़ों पर अंतहीन चर्चाएं होती हैं. ये आंकड़े गरीब लोगों के काम के नहीं होते. भारत में गरीब लोग शायद ही बेरोजगार हैं क्योंकि वे कुछ कमायेंगे नहीं, तो खायेंगे क्या? अगर उन्हें रोजगार नहीं मिलता, तो वे जीविका चलाने के लिए छोटे-मोटे काम करते हैं, जैसे अंडे बेचना या रिक्शा चलाना. पारिवारिक सर्वेक्षणों में इन्हें बेरोजगार की श्रेणी में नहीं गिना जाता.
दूसरी तरफ, वास्तविक मजदूरी बड़ी सूचनाप्रद होती है. अगर वास्तविक मजदूरी बढ़े, तो संभावना यही है कि कामगारों की आमदनी बढ़ेगी और उनका रहन-सहन बेहतर होगा. वहीं वास्तविक मजदूरी में ठहराव आ जाये, तो गरीबी में कमी लाने के लिहाज से यह चिंता का विषय है. वास्तविक मजदूरी की वृद्धि आर्थिक दशा का सबसे महत्वपूर्ण सूचकांक है, पर यही सबसे ज्यादा उपेक्षित भी है.
मिसाल के लिए, नये आर्थिक सर्वेक्षण के 200 पृष्ठों के सांख्यिकीय परिशिष्ट में कहीं भी वास्तविक मजदूरी का जिक्र नहीं है. वित्त मंत्री के बजट भाषण में भी वास्तविक मजदूरी का कहीं जिक्र नहीं. आर्थिक नीतियों पर सार्वजनिक बहसों में भी इस मुद्दे पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है.
वास्तविक मजदूरी का मापन मुश्किल नहीं है. मिसाल के लिए कृषिगत श्रम को लें. भारत के ज्यादातर गांवों में दिहाड़ी पर काम करने वाले खेतिहर मजदूरों के लिए हर समय एक तयशुदा मजदूरी होती है. इसे जानने के लिए घर-घर जाकर सर्वेक्षण करने की जरूरत नहीं, गांव में थोड़ी सी पूछताछ से पता चल जाता है.
अगर ऐसा कई इलाकों में नियमित अंतराल पर किया जाये, तो हमें इस बात का ठीक-ठाक पता चल जायेगा कि वास्तविक मजदूरी के साथ क्या घट-बढ़ चल रही है. भारत सरकार का लेबर ब्यूरो कई सालों से इस किस्म के काम करता आया है. ब्यूरो हर माह देश के सभी राज्यों से पेशेवर मजदूरी के आंकड़े एकत्र करता है और इंडियन लेबर जर्नल में इनका सार-संग्रह प्रकाशित करता है.
इन सूचनाओं की गुणवत्ता पक्की नहीं, लेकिन वास्तविक मजदूरी के क्षेत्र के व्यापक रुझानों को जानने के लिहाज से ये आंकड़े पर्याप्त हैं. इस काम को भारतीय रिजर्व बैंक ने ज्यादा आसान बना दिया है. बैंक ने अपने हैंडबुक ऑफ स्टैटिस्टिक्स ऑन इंडियन स्टेटस के नये अंक में लेबर ब्यूरो के 2014-15 से 2021-22 तक के आंकड़ों के सहारे सालाना मजदूरी के अनुमान पेश किये हैं.
विचित्र यह कि ये अनुमान मुख्य रूप से पुरुष कामगारों से संबंधित हैं. आंकड़े चार पेशेवर समूहों से संबंधित हैं- सामान्य खेतिहर मजदूर, निर्माण-कार्य में लगे मजदूर, गैर-खेतिहर मजदूर तथा वानिकी मजदूर. आगे दिये जा रहे आकलन में वानिकी मजदूरों की चर्चा नहीं की गयी है क्योंकि उनसे संबंधित कुछ ही राज्यों के आंकड़े मौजूद हैं.
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (कृषि-श्रम - सीपीआईएएल) के उपयोग के सहारे मजदूरों की नकद मजदूरी को वास्तविक मजदूरी में बदला जा सकता है और पता किया जा सकता है कि इस अवधि में वास्तविक मजदूरी में कितनी बढ़ोतरी हुई.
ऐसी गणना करने पर चौंकाने वाले निष्कर्ष सामने आते है- साल 2014-15 से 2021-22 के बीच वास्तविक मजदूरी की वृद्धि-दर समग्र रूप से सालाना एक प्रतिशत से भी कम रही है- ठीक-ठीक कहें, तो खेतिहर मजदूरों के लिए 0.9 प्रतिशत, निर्माण-मजदूरों के लिए 0.2 प्रतिशत तथा गैर खेतिहर मजदूरों के लिए महज 0.3 प्रतिशत.
रिजर्व बैंक के आंकड़े 2021-22 तक के ही हैं, लेकिन लेबर ब्यूरो से जारी इस अवधि के बाद के आंकड़े नये आर्थिक सर्वेक्षण में दिये गये हैं. इन आंकड़ों से साफ पता चलता है कि 2022 के अंत तक वास्तविक मजदूरी की वृद्धि में ठहराव बना चला आया है. निष्कर्ष स्पष्ट है- बीते आठ सालों में अखिल भारतीय स्तर पर वास्तविक मजदूरी में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है.
ऊपर दर्ज अवधि के लिए राज्यवार देखें, तो भी वास्तविक मजदूरी की वृद्धि की यही तस्वीर सामने आती है. मिसाल के लिए खेतिहर मजदूरों की वास्तविक मजदूरी को लें, जिसके आंकड़ों में सर्वाधिक तेज बढ़त हुई है.
इस पेशेवर समूह के लिए वास्तविक मजदूरी की सालाना वृद्धि दर सिर्फ दो बड़े राज्यों में दो प्रतिशत से कुछ अधिक रही- कर्नाटक (2.4 प्रतिशत) तथा आंध्र प्रदेश (2.7 प्रतिशत). पांच बड़े राज्यों (हरियाणा, केरल, पंजाब, राजस्थान तथा तमिलनाडु) में वास्तविक मजदूरी साल 2014-15 से 2021-22 के बीच घटी है. इस सीधी-सादी गणना से कुछ जरूरी सबक निकलते हैं.
पहला यह कि हमें वास्तविक मजदूरी पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए. दूसरे, मजदूरी से संबंधित आंकड़ों का संग्रह विस्तार से हो और इन आंकड़ों में सुधार किया जाये. तीसरा सबक यह कि भारतीय अर्थव्यवस्था की तेज बढ़त और वास्तविक मजदूरी की सुस्त बढ़ोतरी के बीच एक गंभीर और परेशान करने वाला अंतर दिखता है.
इस विरोधाभास की मांग है कि आर्थिक नीतियों का झुकाव नये सिरे से तय हो, उनमें ज्यादा ध्यान मजदूरी की वृद्धि पर हो. उदाहरण के लिए, बिहार और झारखंड जैसे राज्यों को तकनीकी शिक्षा को अधिक महत्व देना चाहिए. तमिलनाडु ने कई साल पहले ऐसा किया था और यही एक कारण है कि आज बिहार या झारखंड की तुलना में वहां वास्तविक मजदूरी अधिक है.
सोर्स: prabhatkhabar
Tagsवास्तविक मजदूरीठहराव की शिकारReal wages suffer stagnationदिन की बड़ी ख़बरजनता से रिश्ता खबरदेशभर की बड़ी खबरताज़ा समाचारआज की बड़ी खबरआज की महत्वपूर्ण खबरहिंदी खबरजनता से रिश्ताबड़ी खबरदेश-दुनिया की खबरराज्यवार खबरहिंदी समाचारआज का समाचारबड़ा समाचारनया समाचारदैनिक समाचारब्रेकिंग न्यूजBig news of the dayrelationship with the publicbig news across the countrylatest newstoday
Triveni
Next Story