सम्पादकीय

उप-राष्ट्रपति चुनाव का गणित

Subhi
6 Aug 2022 3:54 AM GMT
उप-राष्ट्रपति चुनाव का गणित
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आज देश के उप-राष्ट्रपति का चुनाव है जिसमें मुकाबला भाजपा व इसके सहयोगी दलों की तरफ से खड़े किये गये प्रत्याशी श्री जगदीप धनखड़ व कांग्रेस व अन्य सहयोगी विपक्षी दलों की प्रत्याशी श्रीमती मार्गरेट अल्वा के बीच है।

आदित्य चोपड़ा: आज देश के उप-राष्ट्रपति का चुनाव है जिसमें मुकाबला भाजपा व इसके सहयोगी दलों की तरफ से खड़े किये गये प्रत्याशी श्री जगदीप धनखड़ व कांग्रेस व अन्य सहयोगी विपक्षी दलों की प्रत्याशी श्रीमती मार्गरेट अल्वा के बीच है। इस चुनाव में केवल लोकसभा व राज्यसभा के संसद सदस्य वोट डालते हैं अतः संसद के भीतर राजनैतिक दलों के सांसदों के संख्याबल के आधार पर नतीजा प्रायः निकलता है जिसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि श्री जगदीप धनखड़ की विजय में ज्यादा अवरोध नहीं है। श्री धनखड़ व मार्गरेट अल्वा दोनों ही राज्यपाल रहे हैं मगर श्रीमती अल्वा का संसदीय अनुभव ज्यादा है। वह साठ के दशक की प्रख्यात राज्यसभा की उपसभापति श्रीमती वायलट अल्वा की पुत्रवधू हैं और ईसाई अल्पसंख्यक समुदाय से आती हैं। जगदीप धनखड़ ने हाल तक प. बंगाल का राज्यपाल रहते हुए जिस तरह इस राज्य की मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी के साथ पग-पग पर उलटबासियां गाई थीं उसे देखते हुए उनसे विवादों का गहरा रिश्ता रहा है मगर वह राज्स्थान के उस झुंझुनु लोकसभाई क्षेत्र से सांसद भी रहे हैं जिसे एक जमाने में अभिशप्त माना जाता था। 'भारत के सेठ' बिड़ला जी का यह पैतृक स्थान है मगर 1971 के लोकसभा चुनाव में स्व. के.के. बिड़ला इसी सीट से चुनाव हार गये थे। इसके बाद वह फिर कभी लोकसभा चुनाव नहीं लड़े और उन्होंने काफी समय बाद राज्यसभा के चुनाव में अपना हाथ आजमाया और इस उच्च सदन में पहुंचे। श्रीमती मार्गरेट अल्वा का पैतृक शहर मंगलुरू है जो केरल की सीमा के बहुत निकट है। हालांकि इस चुनाव में प्रत्याशी की शैक्षिक योग्यता का कोई महत्व नहीं होता है बल्कि संसदीय लोकतन्त्र प्रणाली का उसका अनुभव व अध्यन मायने रखता है। 2002 में तो जब स्व. भैरोसिंह शेखावत और श्री सुशील कुमार शिन्दे के बीच इस पद के लिए लड़ाई हुई थी तो भाजपा के प्रत्याशी श्री शेखावत राजस्थान पुलिस में कभी कांस्टेबल रहे थे और कांग्रेस के प्रत्याशी श्री शिन्दे शुरूआती दिनों मे अदालत के अर्दली रहने के बाद पुलिस विभाग में ही इंस्पेटर रहे थे। मगर यह मुकाबला बहुत कांटे का और जोरदार हुआ था जिसमें श्री शेखावत जीत गये थे क्योंकि तब भी केन्द्र में भाजपा नीत एनडीए की वाजपेयी सरकार थी। दरअसल उप-राष्ट्रपति का मुख्य व महत्वपूर्ण कार्य राज्यसभा का सभापतित्व होता है और इस उच्च सदन को चलाने के लिए उन्हें बहुत धैर्यवान, शान्त व विकेशील होना पड़ता है। संविधान सभा में इस मुद्दे पर भी खासी बहस हुई थी कि उप-राष्ट्रपति ही राज्यसभा के सभापति क्यों बने? इस सदन में भी लोकसभा की तरह अध्यक्ष का चुनाव स्वयं सदस्य क्यों नहीं कर सकते। इसकी वजह यह रही कि उप-राष्ट्रपति जहां सरकारी शिष्टाचार व नियमाचार में राजकीय समारोहों में राष्ट्रपति के बाद नम्बर दो पर आते हैं वहीं उनकी संलिप्तता संसद के कार्यों में भी होनी चाहिए क्योंकि समूची संसद के संरक्षक भी राष्ट्रपति होते हैं। उन्ही के आदेश पर संसद का कोई भी नया सत्र प्रारम्भ होता है और सत्रावसान की घोषणा भी उन्ही के आदेश से होती है। अतः राष्ट्रपति भी संसद का ही हिस्सा होते हैं, अतः उनके कनिष्ठ की सीधी भागीदारी संसद के काम में होनी चाहिए अतः उपराष्ट्रपति को राज्यसभा की सदारत करने का अधिकार मिला और राज्यसभा सांसदों की सदन की कार्यवाही में बराबर की जिम्मेदारी निभाने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने यह अधिकार दिया कि सदन का उपसभापति वह अपने वोट के द्वारा चुनेंगे जो सभापति की मदद करेगा। दूसरे राज्यसभा सतत चलने वाला सदन होता है। इसके सदस्य का कार्यकाल छह वर्ष होता है और एक-तिहाई के लगभग सदस्य हर दो साल बाद अवकाश प्राप्त कर लेते हैं। अंग्रेजों के शासनकाल में ही 'कौंसिल आफ स्टेट्स' अस्तित्व में थी जो दिसम्बर 1919 में गठित हुई थी। उससे पहले 'इंपीरियल लेजिसलेटिव कौंसिल' कहलाई जाया करती थी। आजादी के बाद इसे पुनः गठित किया गया और सदस्य संख्या 216 नियत की गई जिनमें 12 राष्ट्रपति द्वारा नामांकित किये जाने थे और 204 प्रत्येक राज्य से चुने जाने थे। इनका कार्यकाल छह वर्ष का नियत हुआ परन्तु यह प्रावधान किया कि हर दो साल बाद प्रत्येक वर्ग के एक तिहाई सांसद रिटायर होंगे और उनके स्थान पर उन्ही वर्गों या राज्यों से नये सदस्य चुने जायेंगे। इस प्रकार यह सदन कभी भंग नहीं होगा और स्थायी बना रहेगा और इसके सभापति उप राष्ट्रपति होंगे। बेशक उप-राष्ट्रपति का कार्यकाल पांच वर्ष का होगा मगर सभापति का पद कभी खाली नहीं रहेगा। अतः राज्यसभा की संरचना को देखते हुए ही उप राष्ट्रपति पद की महत्ता का अन्दाजा जीवन्त लोकतन्त्र के सन्दर्भ में आसानी से लगाया जा सकता है। उपराष्ट्रपति का चुनाव भी अराजनैतिक आधार पर ही होता है और किसी भी राजनैतिक दल को यह अधिकार नहीं होता कि वह अपने सांसदों को वोट देने के लिए किसी प्रकार का निर्देश (व्हिप) जारी करे। किसी भी दल का सांसद अपने मनपसन्द के किसी भी प्रत्याशी को गुप्त वोट देने के लिए स्वतन्त्र होता है। यही वजह है मार्गरेट अल्वा ने सांसदों से अपील की है कि वह अपनी अन्तर्आत्मा की आवाज पर मतदान यह देख कर करें कि कौन राज्यसभा को बेहतर तरीके से चला सकता है। मगर सब जानते हैं कि श्रीमती अल्वा की उम्मीदों पर घनों पानी किसी और ने नहीं बल्कि विपक्षी पार्टी तृणमूल कांग्रेस की नेता ममतादी ने ही यह कह कर डाल दिया था कि उनकी पार्टी के सांसद इस चुनाव में भाग ही नहीं लेंगे। ममतादी के इस रुख से ही साफ हो गया जगदीप धनखड़ की जीत में ही उनकी जीत है ''दे वो जिस कदर जिल्लत हम हंसी में टालेंगे बारे आशनां निकला कि उनका पासबां अपना।

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