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कांग्रेस के दो विधायकों पवन काजल और लखविंदर राणा के भाजपा में शामिल होते ही राजनीतिक उत्थान व पतन की कई कहानियां, अतीत से भविष्य तक जुड़ जाती हैं
By: divyahimachal
कांग्रेस के दो विधायकों पवन काजल और लखविंदर राणा के भाजपा में शामिल होते ही राजनीतिक उत्थान व पतन की कई कहानियां, अतीत से भविष्य तक जुड़ जाती हैं। जाहिर तौर पर इससे मिशन रिपीट में मिजाज बदलने की सौगंध का विस्तार होता है, लेकिन निजी रूप से भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री के पद पर जयराम ठाकुर के पक्ष में पैदा किए जा रहे समीकरणों का यह उत्थान भी है। यह माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री की परिपाटी में सजे-सजाए विधायकों की एक निजी कतार जोड़ी जा रही है। देहरा व जोगिंद्रनगर के निर्दलीय विधायकों को भाजपा में शामिल करने के बाद कांग्रेस के दो विधायक अगर पार्टी में शरीक हो रहे हैं, तो यह एक नए व्यक्तिवाद का विस्तार है, जो आगे चलकर मुख्यमंत्री की निजी संपत्ति के मानिंद हो सकता है।
उत्थान-पतन की कहानियों में भाजपा जिस खोए को पाना चाहती है, उसमें कांगड़ा के राजनीतिक यथार्थ को पढ़ा जाएगा और यह भीकि वर्तमान सरकार के दौर में इस क्षेत्र को 'मिशन रिटर्न' के अभिप्राय से किस हद तक देखा गया। यह प्रश्र भाजपा की धूमल से जयराम की सत्ता तक इतना तो साबित करता है कि कहीं न कहीं एक भावना यह जरूर घर कर रही है कि कांगड़ा के वजूद को सीमित करके एक ऐसा राजनीतिक समीकरण पैदा किया जाए, जो मुख्यमंत्रियों में व्यक्तिवाद को नए मुकाम तक पहुंचाए। बतौर मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल इतने स्थापित हुए कि उनके सामने कांगड़ा घुटनों के बल हो गया और एक बार तो जिला का तीया पांचा करते हुए इसके टुकड़े तक सुनिश्चित कर दिए गए थे। इस बार ऐसा प्रत्यक्ष रूप में नहीं हुआ, लेकिन मंत्रिमंडल में विभागों के बंटवारे ने कांगड़ा के नेताओं को औकात बता दी। सरवीण चौधरी, बिक्रम ठाकुर व राकेश पठानिया के विभागीय बजट जोड़ कर देखे जाएं, तो मालूम हो जाएगा कि इसी खाते से मंडी को क्या मिला। यह पहली बार हुआ जब कांगड़ा के तीन दिग्गज नेता किशन कपूर, रमेश धवाला व विपिन सिंह परमार सरकार के एहसास से दूर मंत्री पदों से बेदखल हो गए। इसमें सत्ता का दोष कम और कांगड़ा के नेताओं का कहीं अधिक रहा है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जिला विभाजन की स्वार्थी मांग केे पीछे जो नेता अलंकृत होना चाहते हैं, वे सीमित दायरे में भी कांगड़ा को नेतृत्व देने में विफल रहे हैं। आज की तारीख में कांगड़ा के राजनीतिक अनुपात में न तो नेतृत्व तैयार हो रहा है और न ही होने दिया जा रहा है। यह सवाल जितना कड़वा भाजपा से है, उतना ही कांग्रेस से भी है। कांग्रेस ने जिस तरजीह से पवन काजल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था, उसका हश्र देख लिया। अब अगर चौधरी चंद्र कुमार नजर आए, तो कांग्रेस को अपनी आंखों से कुछ पट्टियां हटानी पड़ेंगी। कांग्रेस चुनाव समिति की घोषणा में कांग्रेस ने कांगड़ा की चाबी अगर विप्लव ठाकुर को सौंपी है, तो यह सुधीर शर्मा जैसे नेताओं को रोकने का प्रयास है। क्या पार्टी यह समझ रही है कि विप्लव की बागडोर में कांगड़ा से सत्ता का विजय पथ निकलता है और अगर ऐसे फैसले हाशिए बनाएंगे, तो कांग्रेस खुद के साथ दुश्मनी ही पैदा कर रही है। दूसरी ओर अगर नूरपुर, देहरा व पालमपुर को जिला बनाकर कोई भाजपा या कांग्रेसी नेता प्रदेश की सत्ता में कुछ पाना चाहता है, तो इससे बड़ा भ्रम और कोई नहीं। कभी सोलह विधानसभा क्षेत्रों (अब पंद्रह) की वजह से शांता कुमार सशक्त हुए थे, तो चार विधानसभाओं के जिला बनाकर कौन ऐसा नेता है जो जननायक बन जाएगा। आज की स्थिति में कांगड़ा के मंत्री अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। – (जारी)
Rani Sahu
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