सम्पादकीय

नए बने खुदाओं की वंदना

Rani Sahu
20 April 2022 7:18 PM GMT
नए बने खुदाओं की वंदना
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‘कलम को बेचो हमें रोटी चाहिए। जब होश संभाली और सबसे पहला नाटक हमने देखा तो इस नाटक में एक भूखा-प्यासा परिवार अपने मुखिया एक लेखक महोदय को यह कहता नजऱ आता है

'कलम को बेचो हमें रोटी चाहिए। जब होश संभाली और सबसे पहला नाटक हमने देखा तो इस नाटक में एक भूखा-प्यासा परिवार अपने मुखिया एक लेखक महोदय को यह कहता नजऱ आता है। तब बहुत असमंजस उस लेखक महोदय को अपनी कलम बेचने पर हुआ था। ज़माना पुराना था, वह कलम नहीं बेच पाए। नाटक का अंत हो गया। जब तक उन्होंने कलम बेचने का फैसला किया, लीजिए परिवार ही नहीं रहा। सिसक-सिसक कर दम तोड़ गया। आज किसी को इस नाटक की कथा सुना दें, तो वह लेखक के असमंजस को मूर्खता कहेगा। भई, इंस्टैंट कॉफी का ज़माना है। आप कलम बेचने की बात कहते हैं, लोग तो अपना धर्मो ईमान बेचते हुए दो मिनट नहीं लगाते। पहले मंदिर में सिर झुका कर ईश्वर की साकार प्रतिमा को नवाजते थे, उससे कुछ मांगते हुए भी कतराते थे। अपनी भक्ति, अपना धर्म बेचने की तो बात ही छोडि़ए। लेकिन आजकल कृपा निधान की परिभाषा ही बदल गई। जो बहुमंजि़ली इमारत के ऊंचे मालिकाना चैंबर में बैठा है, वही रोटी तलाशते लोगों को कृपा निधान लगता है। उसके पांव पखारते हुए कितना आत्मतोष मिलता है।

ऊंची कुर्सी पर बैठा आदमी अपने सामने लोगों का झुकना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है। उनकी घिघियाती हुई आवाज़ जब उसे किसी गिड़गिड़ाहट की तरह लगती है तो उसे लगता है, ऐसा तो होना ही चाहिए। आखिर उसने महामारी से प्रकम्पित इस माहौल में भी उनका अन्न दाना नहीं छीना। उनके परिवार के वसीले की आय आधी कर दी। घिघियाते आदमी की नौकरी छीन उसे सड़क पर तो नहीं फेंका। अब वह उसे कोर्निश बजा इतना भी न करे, तो भला महाशय का इतना लम्बा-चौड़ा औद्योगिक साम्राज्य किस काम का? पहले जिन कामों को लोग चाटुकारिता कह नीची दृष्टि से देख लेते थे, आज उसे ज़माने के अनुसार व्यवहार सिद्ध कहा जाता है। जो कर सकेगा वह कामयाबी की सीढ़ी फलांग लेगा परंतु सीढ़ी कमन्द नहीं कि उसे भी इसी मंजि़ल के किसी ऊंचे तले पर पहुंचा दे। रहेगा तो वह अपने तले पर ही पर उसके बारे में ऐसा कोई भुखमरा नाटक लिखने की नौबत नहीं आएगी कि लेखक हो तो अपनी कलम को बेचो, साधारण जन हो तो अपनी आत्मा को बेचो, हमें रोटी चाहिए। रोटी मिलेगी साहिब, ज़रूर मिलेगी, केवल मालिक के लिए नित्य नई प्रशंसा के विशेषणों का शब्दकोष बनाते रहिए। परंतु इन बातों में आज, कुछ भी अजब नहीं लगता कि जिसके बारे में एक नाटक लिखा जाए।
बात इतनी सार्वजनिक हो गई है कि अब इसे देख कोई चिहुंकता भी नहीं। देखते ही देखते प्रगति और विकास का चेहरा बदल गया। कभी समाजवाद के नाम पर इस देश को मिश्रित अर्थ-व्यवस्था बना देने का सपना देखा गया था। कहा गया था कि यहां सरकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र सहोदर भाइयों की तरह रहेंगे। सरकारी क्षेत्र का लक्ष्य होगा जनकल्याण और निजी क्षेत्र करेगा देश का द्रुत विकास। जा रे ज़माना। यह कैसी नौटंकी जीवन का सच हो गई, विकास की मंजि़ल हो गई। सरकारी क्षेत्र का जनकल्याण बन गया स्व-कल्याण। देश को प्रगति उपहार के नाम पर मिला परिवारवाद, जो लालफीताशाही के पंखों पर सवार हो नौकरशाही को प्रस्तर प्रतिमा बनने का ऐसा संदेश दे गया कि अपना काम करवाने आए लोगों को अपनी फाइलों के नीचे चांदी के पहिए लगा मधुर स्वर में गायन करना पड़ा कि 'तेरे पूजन को भगवान मन मंदिर आलीशान।' सवाल जब मंदिर को आलीशान बनाने का था, तो जीर्ण-शीर्ण लोगों के मन में कभी आलीशान मंदिर नहीं होते। वहां तो केवल टप्परवास गिरती पड़ती झोंपड़ पट्टी है, जो अपने आप को बेच कर बाबू से लेकर अफसरशाही तक की अट्टालिका बना उसे मंदिर का नाम देती है और देश को दुनिया के सबसे अधिक दस भ्रष्टाचारी देशों में स्थान दिला देती है।
सुरेश सेठ


Rani Sahu

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