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- नए बने खुदाओं की
'कलम को बेचो हमें रोटी चाहिए। जब होश संभाली और सबसे पहला नाटक हमने देखा तो इस नाटक में एक भूखा-प्यासा परिवार अपने मुखिया एक लेखक महोदय को यह कहता नजऱ आता है। तब बहुत असमंजस उस लेखक महोदय को अपनी कलम बेचने पर हुआ था। ज़माना पुराना था, वह कलम नहीं बेच पाए। नाटक का अंत हो गया। जब तक उन्होंने कलम बेचने का फैसला किया, लीजिए परिवार ही नहीं रहा। सिसक-सिसक कर दम तोड़ गया। आज किसी को इस नाटक की कथा सुना दें, तो वह लेखक के असमंजस को मूर्खता कहेगा। भई, इंस्टैंट कॉफी का ज़माना है। आप कलम बेचने की बात कहते हैं, लोग तो अपना धर्मो ईमान बेचते हुए दो मिनट नहीं लगाते। पहले मंदिर में सिर झुका कर ईश्वर की साकार प्रतिमा को नवाजते थे, उससे कुछ मांगते हुए भी कतराते थे। अपनी भक्ति, अपना धर्म बेचने की तो बात ही छोडि़ए। लेकिन आजकल कृपा निधान की परिभाषा ही बदल गई। जो बहुमंजि़ली इमारत के ऊंचे मालिकाना चैंबर में बैठा है, वही रोटी तलाशते लोगों को कृपा निधान लगता है। उसके पांव पखारते हुए कितना आत्मतोष मिलता है।