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राष्ट्रपति पद के लिए कहां है विपक्षी एकता?
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
अब उद्धव ठाकरे की शिवसेना भी राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करेगी। इसका अर्थ यह हुआ कि जिस भाजपा के चलते ठाकरे की सरकार चलती बनी, उसी भाजपा के उम्मीदवार का समर्थन उन्हें करना पड़ रहा है। वे कहते हैं कि यह समर्थन उन्होंने मजबूरी में नहीं किया है। पहले भी उन्होंने प्रतिभा पाटिल और प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था, जबकि ये दोनों कांग्रेस के उम्मीदवार थे और शिवसेना भाजपा के साथ गठबंधन में थी। उद्धव ठाकरे का यह तर्क मजबूत दिखाई पड़ता है लेकिन इस बार दो कारण से जो पहले आजादी थी, वह अब मजबूरी बन गई है।
पहला तो यह है कि इस बार भाजपा ने आपको अपदस्थ कर दिया है। फिर भी आप उसके उम्मीदवार का समर्थन कर रहे हैं। दूसरा, आपके सांसदों में से ज्यादातर ने साफ-साफ कह दिया है कि वे मुर्मू का समर्थन करेंगे। अपनी बची-खुची पार्टी को बचाए रखने के लिए यही व्यावहारिक कदम था। अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि मुर्मू जीतेंगी और यशवंत सिन्हा हारेंगे। सिर्फ ठाकरे की शिवसेना ही नहीं कई राज्यों की प्रांतीय पार्टियां भी अब खुलकर मुर्मू के समर्थन में आ गई हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आम आदमी पार्टी के नेता भी मुर्मू का समर्थन कर दें, क्योंकि कांग्रेस के साथ उनकी पंजाब और दिल्ली में तगड़ी लड़ाई है।
जहां तक ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का सवाल है, यशवंत सिन्हा उसी के पदाधिकारी थे और ममता ने ही सिन्हा को राष्ट्रपति पद के लिए आगे बढ़ाया था लेकिन उनकी टक्कर में एक आदिवासी और वह भी एक महिला को देखकर उनकी उलझन बढ़ गई है, क्योंकि एक तो वे खुद महिला हैं और दूसरा तृणमूल कांग्रेस के पांच सांसद आदिवासी हैं।
प. बंगाल की लगभग 40 सीटें ऐसी हैं, जिनमें आदिवासी मतदाताओं के थोक वोट ही उम्मीदवारों को विजयी बनाते हैं। ऐसे में ममता बनर्जी का ढीला पड़ना समझ में आता है। यशवंत सिन्हा भी जानते हैं कि वे विपक्ष के उम्मीदवार के तौर पर राष्ट्रपति का चुनाव नहीं जीत पाएंगे लेकिन इतने सुयोग्य उम्मीदवार के बहाने विपक्ष जो अपनी एकता स्थापित करना चाहता है, अब वह भी दूर की कौड़ी मालूम पड़ रही है।
Rani Sahu
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