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आजकल सर्वोच्च न्यायालय में एक दिलचस्प याचिका पर बहस चल रही है
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
नई दिल्ली: आजकल सर्वोच्च न्यायालय में एक दिलचस्प याचिका पर बहस चल रही है। उसमें मांग की गई है कि जिस भी विधायक या सांसद को आपराधिक मामलों में सजा दी गई हो, उसे जीवन भर के लिए राजनीति से बाहर किया जाए। अभी 1951 के जनप्रतिनिधित्व कानून के मुताबिक यदि किसी नेता को सजा मिलती है तो छह वर्ष तक वह न तो कोई चुनाव लड़ सकता है, न ही किसी राजनीतिक दल का पदाधिकारी बन सकता है। अब यदि ऐसे नेताओं पर जीवनभर का प्रतिबंध लग जाए तो क्या हमारी राजनीति का शुद्धिकरण नहीं होगा?
इस याचिका को पेश करने वाले अश्विन उपाध्याय का तर्क है कि यदि एक पुलिसवाला या कोई सरकारी कर्मचारी किसी अपराध में जेल भेज दिया जाता है तो उसकी नौकरी हमेशा के लिए खत्म हो जाती है या नहीं? जहां तक नेता का सवाल है, उसके लिए राजनीति सरकारी नौकरी की तरह उसके जीवन-यापन का एकमात्र साधन नहीं होती है। वह तो जनसेवा है। उसका शौक है। उसकी प्रतिष्ठा पूर्ति है।
राजनीति से बाहर किए जाने पर वह भूखा तो नहीं मर सकता है। इस तर्क का समर्थन भारत के चुनाव आयोग ने भी किया है लेकिन चुनाव आयोग स्वयं तो किसी कानून को बदल नहीं सकता। उसके पास नया कानून बनाने का अधिकार भी नहीं है। ऐसे में सरकार चाहे तो वह कुछ ठोस पहल कर सकती है। वह ऐसा कानून बना दे तो कई नेता राजनीति से बाहर हो जाएंगे। यह भी ठीक है कि कई नेताओं को उनकी विरोधी सरकारों ने बनावटी आरोपों के आधार पर सींखचों के पीछे धकेल दिया था। इसके अलावा यदि सत्तारूढ़ पार्टी अपने किसी प्रबल विरोधी नेता को राजनीति से बाहर करने के लिए इस कानून का सहारा ले लेगी तो कोई आश्चर्य क्यों होगा? इसीलिए इस याचिका पर फैसला देते हुए अदालत को कई मुद्दों पर विचार करना होगा। यह भी हो सकता है कि राजनीति से अपराधियों के निर्वासन की अवधि 6 साल से बढ़ाकर 10 साल कर दी जाए। राजनीति को अपराधियों से मुक्त करना जरूरी है लेकिन वास्तविक पश्चाताप करने वालों को दुबारा मौका भी देना चाहिए।
Rani Sahu
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