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By लोकमत समाचार सम्पादकीय
By वेद प्रताप वैदिक
इधर भारत सरकार ने मुसलमानों, ईसाइयों आदि को भी जातीय आधार पर आरक्षण देने के सवाल पर एक आयोग बना दिया है और उधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक पुस्तक का विमोचन करते हुए भारत में 'जाति तोड़ो' का नारा दे दिया है। उन्होंने दो-टूक शब्दों में कहा है कि हिंदू शास्त्रों में कहीं भी जातिवाद का समर्थन नहीं किया गया है। भारत में जातिवाद तो पिछली कुछ सदियों की ही देन है। भारत जन्मना जाति को नहीं मानता था, वह कर्मणा वर्ण-व्यवस्था में विश्वास करता था।
मोहनजी स्वयं ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए हैं। उनकी हिम्मत की मैं दाद देता हूं कि उन्होंने जन्म के आधार को रद्द करके कर्म को आधार बताया है। भगवद्गीता में भी कहा गया है-'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।' यानी चारों वर्णों का निर्माण मैंने गुण और कर्म के आधार पर किया है। यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने भी अपने महान ग्रंथ 'रिपब्लिक' में जो तीन वर्ण बताए हैं, वे जन्म नहीं, कर्म के आधार पर बनाए हैं। भारत की यह वैज्ञानिक वर्ण-व्यवस्था इतनी
स्वाभाविक है कि दुनिया का कोई देश इससे वंचित नहीं रह सकता। यह सर्वत्र अपने आप खड़ी हो जाती है लेकिन हमारे पूर्वज कुछ सदियों पहले इसे आंख मींचकर लागू करने लगे। यह भ्रष्ट हो गई इसीलिए निकृष्टतम जातीय व्यवस्था भारत में चल पड़ी है। मोहन भागवत को चाहिए कि वे इसके खिलाफ सिर्फ बोलें ही नहीं, भारत की जनता को कुछ ठोस सुझाव भी दें। सबसे पहले तो जातीय उपनामों को खत्म किया जाए। सुझाव तो कई हैं। मैंने 2010 में जब 'मेरी जाति हिंदुस्तानी' आंदोलन चलाया था, तब कई ठोस सुझाव देश की जनता को दिए थे। उस आंदोलन के कारण ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जातीय जनगणना को रुकवा दिया था। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी भागवत की राह पर चलना चाहिए।
Rani Sahu
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