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पाश्चात्य जगत के इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को बहुत असमंजस में रखा
वरिष्ठ पत्रकार डॉ. प्रवीण तिवारी का यह लेख।
पाश्चात्य जगत के इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को बहुत असमंजस में रखा। समस्या यह थी कि वह अपनी जगह और अपनी संस्कृति को महत्व देना चाहते थे। वह यह समझ गए थे कि भारतीय इतिहास और वैदिक संस्कृति इतनी पुरानी है, जितना वह सोच भी नहीं सकते। इस असमंजस की स्थिति में वह वेदों और महाकाव्यों की रचना और काल के बारे में कुछ नहीं कह पाए, क्योंकि यदि कुछ समय पूर्व की रचना कहकर बात करते तो कई रचनाकारों के बारे में दी गई उनकी हाइपोथेसिस गड़बड़ा जाती।
पुस्तकों की प्रिंटिंग या लिखने के विज्ञान से हजारों साल पहले से वेद की ऋचाएं श्रुति स्मृति के जरिए चली आ रही थीं। इस बात से आधुनिक इतिहासकारों ने भी इंकार नहीं किया, लेकिन श्रुति और स्मृति को किसी खुदाई से प्राप्त नहीं किया जा सकता।
आधुनिक इतिहासकार और भारत
आधुनिक इतिहासकारों का भारत के विषय में सबसे बड़ा गड़बड़झाला ये सामने आता है कि वे सिंधुघाटी सभ्यता को दुनिया की पहली विकसित नगरीय सभ्यता मानते हैं, लेकिन वैदिक सभ्यता को इसके बाद का मानते हैं। इसमें गड़बड़ ये है कि आधुनिक इतिहास के अनुसार सिंधु घाटी सभ्यता बहुत विकसित थी और बाद में वैदिक काल में सभ्यता की अवनति हो गई। आपको ये बात हास्यास्पद लग रही होगी लेकिन इतिहास की किताबों में फिलहाल यही पढ़ाया जा रहा है।
सिंधु घाटी सभ्यता के पहली नगरीय सभ्यता होने में इन्हें संदेह नहीं, क्योंकि इसके साक्ष्य उन्हें खुदाई में मिले हैं। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा जैसी तमाम साइट्स इसका जीता जागता सबूत हैं। आपको जानकर शायद आश्चर्य हो कि 1920 के पहले इसके बारे में कोई नहीं जानता था। आर. डी. बनर्जी ने सबसे पहले खुदाई के बाद सिंधु घाटी सभ्यता के साक्ष्यों को ढूंढना शुरू किया था। ये उस वक्त की बात है जब भारत लगातार हुए हमलों और लूट खसोट से उबर रहा था।
निश्चित तौर पर अंग्रेजी पुरातत्वविदों को ही भारत की ऐतिहासिकता का ज्ञान हुआ और उन्होंने आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर साक्ष्यों को ढूंढना शुरू किया। पहली बात तो ये तय होती है कि भारत के इतिहास को लेकर हुए शोध मात्र 100 वर्ष में ही हुए हैं। जबकि अकेले सिंधु घाटी सभ्यता ही 5000 साल से ज्यादा पुरानी है।
आधुनिक इतिहासकारों ने भारत के विषय में अपनी दो कमजोरियों को स्वीकार भी किया है। पहली ये कि वे सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान इस्तेमाल होने वाली चित्रात्मक लिपि को पढ़ने में आज तक सफल नहीं हो पाए हैं। दूसरी बात ये कि वे वैदिक काल को ठीक से चिन्हित नहीं कर पाए हैं। इतिहास को जानने के कुछ प्रचलित तरीके हैं, पुरातत्व महत्व की साइट्स की खुदाई, पुरातन साहित्य और लिपि का अध्ययन और प्रचलित औजारों के बारे में शोध करके अंदाजा लगाना। इसके साथ ही धातु प्रयोग के आधार पर भी साक्ष्य जुटाए जाते हैं।
इस लेख का उद्देश्य आधुनिक प्रयासों को हतोत्साहित करना नहीं है अपितु भारत के इतिहास पर कार्य करने वाले शोधार्थियों को एक वृहद संभावना को दिखाना है। आधुनिक इतिहासकार अभी अपने साक्ष्यों को संजो रहे हैं। इन्हीं के आधार पर विश्लेषण किए जाते हैं। जबकि भारत में ये काम नालंदा विश्वविद्यालय के समय तक होता रहा। वहां रखे साक्ष्यों को आक्रांताओं ने पूरी तरह नष्ट कर दिया। ये अचानक किया हमला नहीं था, ये सोची समझी साजिश थी और मकसद था उन साक्ष्यों को मिटा देना जो भारत को तमाम लूटों के बावजूद समृध्द बनाए हुआ था।
अज्ञानी कबीलाई सभ्यताओं ने भारत पर हमला लालच की वजह से किया, लेकिन वे संपन्नता के इस अथाह स्त्रोत से भी कुंठित थे, जिसे ज्ञान कहते हैं। मैं आक्रांताओं पर अलग से एक लेख लिखूंगा, लेकिन यहां बख्तियार खिलजी का जिक्र कर दूं, जिसने तीन बार नालंदा विश्वविद्यालय को खत्म किया।
विंसेट स्मिथ जैसे इतिहासकारों ने ये माना है कि-
भारत का प्राचीन ज्ञान विज्ञान यहां खत्म किया गया, क्योंकि यहां सिर्फ धर्म ही नहीं बल्कि चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन शास्त्र के भी विभाग थे। चीनी विद्यार्थियों ने यहां से जो सीखा और लिखा उसी के आधार पर अब यहां के दर्शन विभाग के कुछ साक्ष्य मिल पाते हैं।
आपकी जानकारी के लिए ये भी बता दूं कि ये खिलजी वहीं से था, जहां आज तालिबान है। आज के तालिबान की सोच से आप इस बात की पुष्टि कर सकते हैं कि समृध्दि और सामाजिक व्यवस्था से उस वक्त भी कबीलाई सभ्यताओं को कितनी चिढ़ रही होगी।
भारत और उसकी इतिहास दृष्टि
आर्यभट्ट भी नालंदा के प्रमुख रह चुके थे। ह्वेनसांग के समय शीलभद्र यहां प्रमुख थे। यहां विभिन्न विभाग और उनके प्रमुख हुआ करते थे। नालंदा पर एक विस्तृत लेख लिखा जा सकता है, लेकिन इस लेख में हम सिर्फ आधुनिक इतिहासकारों द्वारा जिन पक्षों की उपेक्षा की गई है उसका विश्लेषण कर रहे हैं। नालंदा को समझना इसीलिए जरूरी है, क्योंकि आधुनिक शोध का क्षेत्र बहुत नया है और भारत में ये कार्य 500 ई. (आधुनिक इतिहास के साक्ष्यों के आधार पर) से ही हो रहा था।
महत्वपूर्ण विषय ये है कि नालंदा की स्थापना भी बौद्ध काल की है। इससे पहले जैन काल भी रहा और उससे बहुत पहले वैदिक काल। वैदिक काल को समझने में बड़ी गड़बड़ी ये भी है कि सिंधु घाटी सभ्यता और वैदिक काल को लेकर आधुनिक इतिहास कारों ने घालमेल कर दिया है। सिंधु घाटी सभ्यता को 3300 ई. पू. बताया गया है और वेदों की रचना का काल दो हिस्सों में बांट दिया गया है।
ऋग वैदिक काल को 1500 ई. पू. बताया गया है और उत्तर वैदिक काल, जिनमें बाकी तीन वेदों की रचना हुई, को 1200 ई. पू. का बताया जा रहा है। ये वो तथ्य है जो फिलहाल इतिहास के छात्रों को पढ़ाए जा रहे हैं।
आपको एक और आश्चर्यजनक बात बता दूं, वो आधुनिक विज्ञान जो बिना साक्ष्यों के बात नहीं करता, सिंधु घाटी सभ्यता और वैदिक सभ्यता के संक्रमण काल पर मौन हो जाता है। वो वहां अपुष्ट परिकल्पनाओं जैसे कि शायद जल प्लावन हुआ होगा, शायद युद्ध हुआ होगा, शायद ये हुआ होगा या वो हुआ होगा में उलझ जाता है। आप इस बात कि पुष्टि के लिए आधुनिक इतिहास की पुस्तकों का अध्ययन भी कर सकते हैं।
हाइडलबर्ग जर्मनी की सबसे पुरानी यूनिवर्सिटी है। यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर इंडोलॉजी सर्च करेंगे तो भारतीय परंपरा के मुताबिक विद्या की देवी सरस्वती की तस्वीर दिखाई पड़ती है। वैदिक काल में सरस्वती का महत्व तो है ही, सिंधु घाटी सभ्यता को भी सरस्वती नदी से जोड़ा गया है। निश्चित तौर पर सरस्वती की उपासना सिंधु घाटी काल में भी रही होगी। खुदाई में मिली नटराज की मूर्ति पर भी कोई बात करता नहीं दिखाई देगा। प्रकृति देवी की प्रतिमा को भी सिर्फ साक्ष्य के तौर पर रखा जाता है, उससे किसी विवेचना पर पहुंचने का कोई प्रयास नहीं किया जाता, क्योंकि वो वैदिक काल के बाद में आने की परिकल्पना को झूठला देगी।
निश्चित तौर पर प्रकृति उपासना सिंधू घाटी सभ्यता के दौरान भी होती थी, लेकिन आधुनिक इतिहासकार पूजा पद्धतियों और प्रकृति और देवताओं के प्रादुर्भाव को वैदिक काल या सिंधुघाटी के बाद के काल के तौर पर देखते हैं। कोई भी भारतीय इसे हास्यास्पद मानेगा, लेकिन विडंबना देखिए हमारे आज के इतिहास के छात्र भी यही इतिहास पढ़कर यूपीएससी की परीक्षाएं दे रहे हैं। इनसे आप क्या अपेक्षा करेंगे? ये जो पढ़ेंगे उसी पर आगे की अवधारणाएं बनाएंगे।
भारत में वैदिक परंपरा कभी भी किताबों या लिपि पर निर्भर नहीं थी, इसीलिए तमाम विध्वंसों के बावजूद उसके जस का तस बरकरार रहने पर कोई संदेह नहीं। - फोटो : सोशल मीडिया
हाइडलबर्ग यूनिवर्सिटी में जिन पाठ्यक्रमों का जिक्र है, उनमें संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए सरस्वती संस्कृत पुरस्कार भी दिया जाता है। इसी तरह हाले विटनबेर्ग की मार्टिन लूथर यूनिवर्सिटी में इंडोलॉजी यानी भारत विद्या पढ़ाई जाती है। माइंत्स में इंस्टीट्यूट फॉर इंडोलॉजी है। ट्यूबिंगन और बॉन यूनिवर्सिटी में भी हर साल कुछ छात्र इंडोलॉजी में दाखिला लेते हैं।
दुनिया की नजर में भारत
जर्मनी में संस्कृत और भारत के इस प्रेम को लिखना इसीलिए आवश्यक है, क्योंकि मैक्समूलर जिन्हें आधुनिक इतिहासकार अपने भारतीय इतिहास के ज्ञान का आधार मानते हैं इसी जर्मनी के थे। उन्हें ये बखूबी पता था कि वेद क्या हैं और भारतीय ज्ञान विज्ञान की परंपरा कितनी प्राचीन है। उनकी अपनी मजबूरियां थीं, उन्हें नौकरी ही इस शर्त पर मिली थी कि वे वेदों को समझकर उनका ईसाईकरण करेंगे, क्योंकि भारतीय जनमानस पर कब्जा करना है तो उनके तौर तरीकों से करना होगा।
इस कुत्सित प्रयास ने भारतीय इतिहास का कचरा कर दिया और संभवतः इसी विडंबना ने वैदिक काल को लेकर असमंजस की स्थिति पैदा की, जिसे आज का इतिहास कथित तौर पर स्वीकार करता है, जबकि जर्मनी संस्कृत और वेदों के महत्व को समझ गया था और शायद यही वजह है कि आज भी वहां इंडोलॉजी एक महत्वपूर्ण विषय है।
भारत में वैदिक परंपरा कभी भी किताबों या लिपि पर निर्भर नहीं थी, इसीलिए तमाम विध्वंसों के बावजूद उसके जस का तस बरकरार रहने पर कोई संदेह नहीं। यही वजह है कि मैक्समूलर भी अपने समकालीन दयानंद सरस्वती पर ही निर्भर थे।
मैक्समूलर के कार्य पर मैं अलग से एक विस्तृत लेख लिखूंगा, क्योंकि यहां विषयांतर हो जाएगा। मोटे तौर पर ये बात समझ लीजिए कि मैक्समूलर ने वेदों की कांति को धुंधला करके दिखाना चाहा, क्योंकि यदि वैदिक परंपरा के पूर्ण गौरव को सामने रखा जाता तो एक अध्यात्मिक क्रांति पूरे विश्व में देखने को मिलती। भारत में ये प्रयास दयानंद सरस्वती और विवेकानंद जैसे लोगों ने किया, जिसे आदि शंकराचार्य ने शुरू किया था। यही वजह है कि आज भी चाहे आधुनिक इतिहासकार जो कहें, भारतीय वैदिक वांग्मय को लेकर भारतीय विद्वानों के मन में कोई संदेह नहीं है।
आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि आधुनिक इतिहासकारों की भारत को लेकर समझ के साथ ही भारतीय वैदिक वांग्मय की पुनर्स्थापना की एक समानांतर धारा चल रही है। यहां पाश्चात्य शिक्षा पद्धति का ठप्पा लगवाने की हमें कोई जल्दबाजी भी नहीं है। वेदों का मूल तत्व है वसुधैव कुटुंबकम और वैदिक परंपरा का मूल मकसद है सर्वे भवन्तु सुखिनः। अच्छी बात ये है कि जिन्होंने भी इसमें जोड़ तोड़ के प्रयास किए उन्होंने वैदिक परंपरा के साक्ष्य ही प्रस्तुत किए, कोई नुकसान नहीं किया। उदाहरण के लिए मैक्समूलर के कार्य से आधुनिक इतिहासकारों को भी कुछ मिल ही गया नहीं तो वे शायद वैदिक सभ्यता का जिक्र ही न करते।
एक और उदाहरण इस लेख के अंत में रखना चाहता हूं जो बहुत महत्वपूर्ण है। दुनिया के हर इतिहास में महाकाव्यों, कहानियों, कविताओं को विशेष स्थान दिया गया, लेकिन जब भारत के इतिहास की बात होती है तो रामायण और महाभारत जैसे ऐतिहासिक ग्रंथों को सिर्फ काल्पनिक गाथा कहकर इतिहासकार शांत हो जाते हैं।
मेरा दावा है कोई आधुनिक इतिहासकार सिर्फ वाल्मीकि रामायण भर को पढ़ लें तो समझ जाएगा कि नगरीय व्यवस्था को लेकर ही अयोध्या कांड में कितना कुछ लिख दिया गया। इससे न सिर्फ नगरीय जीवन का पता लगता है बल्कि उस समय के लोकाचार और ज्ञान विज्ञान का भी महत्वपूर्ण परिचय मिल जाता है।
भारत भक्ति की भूमि रही है और यहां भक्त और भगवान के संबंध ने ही समाज को बांधे रखा है। ये आज भी अकाट्य सत्य है। मुगलकाल में तुलसीदास जी के भक्तिमार्ग ने इसका जीवंत उदाहरण रखा। यही डर तत्कालीन इतिहासकारों को भी रहा और उन्होंने इतिहास में भारत को कमजोर दिखाने का भरसक प्रयास किया। इन्हीं की शिक्षा प्रणाली पर चले इनके भारतीय चेलों ने यही काम किया और आज भी कर रहे हैं। अब आवश्यकता है कि वैदिक वांग्मय को व्यवस्थित तरीके से पुनर्स्थापित किया जाए, ठीक वैसे ही जैसे आदि शंकराचार्य ने किया था।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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