सम्पादकीय

भारत का वैदिक ज्ञान-विज्ञान: जब मप्र में पुरापाषाण काल में शक्ति पूजा के साक्ष्यों से हिल गई थी दुनिया

Rani Sahu
11 Sep 2021 8:54 AM GMT
भारत का वैदिक ज्ञान-विज्ञान: जब मप्र में पुरापाषाण काल में शक्ति पूजा के साक्ष्यों से हिल गई थी दुनिया
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आधुनिक इतिहासकारों ने भारत के विषय में शोध करते हुए सिंधू घाटी सभ्यता (3300 ई. पू.) को हिंदू मान्यताओं की सबसे प्राचीन सभ्यता कहते हुए

डॉ.प्रवीण तिवारी। आधुनिक इतिहासकारों ने भारत के विषय में शोध करते हुए सिंधू घाटी सभ्यता (3300 ई. पू.) को हिंदू मान्यताओं की सबसे प्राचीन सभ्यता कहते हुए चैन की सांस ली। वेदों के समय काल को स्थापित करने ने उनकी सांसे अटका रखी थी। वे आज तक असमंजस मे हैं कि वेद पहले आए या सिंधु घाटी सभ्यता। एकेडमिक्स की अपनी मजबूरियां हैं, सो खुदाई में मिले साक्ष्यों के आधार पर पहले सिंधु घाटी सभ्यता बता दी और वेदों की समीक्षा करते हुए भाषा विदों ने उन्हें 1500 ई. पू. का चिन्हित कर दिया। आधुनिक इतिहास में यही पढ़ाया जाता है।

इधर, ये भी कह डाला कि पूजा उपासना और मंदिर तो बाद में आए, लेकिन 1980 के दशक में अमेरिका और भारत के पुरातत्वविदों की टीम के संयुक्त प्रयास से मध्य प्रदेश के सीधी में हुई खुदाई ने सारी धारणाओं को ध्वस्त कर दिया। खुदाई के साक्ष्यों ने ये तो स्थापित कर दिया कि ये पुरापाषाण काल का शक्ति पीठ है पर समस्या ये थी कि 50 हजार ई. पू. के पुरापाषाण काल से पूजा पाठ को कैसे जोड़ें? बहुत खींचतान कर इस शक्ति पीठ को 15 हजार से 20 हजार ई. पू. का बताया गया। कैसे माता का सबसे प्राचीन शक्ति पीठ आधुनिक इतिहास के लिए चुनौती बना पर विस्तृत लेख।
बागोर या बाघोर स्टोन अभियान और भारत
इलाहबाद यूनिवर्सिटी के डॉ.जी.के.शर्मा और यूनिवर्सिटी ऑफ केलीफोर्निया के पुरातत्वविद् डेसमंड क्लार्क की टीमों ने मिलकर ये आश्चर्यजनक खोज की थी। बागोर या बाघोर स्टोन के नाम से इस अभियान को जाना जाता है।
इस खुदाई ने भारत में हिंदू धर्म की स्थापना को लेकर आधुनिक इतिहासकारों की सभी मान्यताओं को ध्वस्त कर दिया, जो हिंदू धर्म और उसमें देवी उपासना को वैदिक काल के भी बाद का कहते आए उनके लिए तो काटो तो खून न की स्थिति हो गई।
यकीनन, पुरातत्वविद् ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर काम करते हैं। निश्चित तौर पर वे तथ्यों को छुपाते नहीं। इस टीम ने भी स्पष्ट कर दिया कि ये पीठ और यहां मिली कई अन्य चीजें स्पष्टतः पुरा पाषाण काल की हैं।
इसके शक्ति पीठ होने का खुलासा भी बहुत दिलचस्प था। दरअसल, टीम ने इसे पाषाणकाल की जांच के लिए ही खोदना शुरू किया। एक स्थानीय व्यक्ति ने कहा-
आपने इस पवित्र माता स्थान को खोद क्यों दिया? इस बात से सभी के कान खड़े हो गए। सवाल किया गया कि आपको कैसे पता चला कि ये पवित्र स्थान है? जवाब आया आज भी माता की इसी रूप में कई गांवों में पूजा होती है। ईथनोग्राफी के जरिए शोध किया गया और पाया गया कि स्थानीय जनजातियां आज भी माता कि इसी रूप में पूजा करती हैं।
किस क्षेत्र में हुई खुदाई?
मध्यप्रदेश के कैमूर ढलान क्षेत्र में ये खुदाई का कार्य शुरू किया गया था। कैमूर ढलान का क्षेत्र मध्य प्रदेश के जबलपुर से बिहार के सासाराम तक फैला हुआ है। इस क्षेत्र में ऐतिहासिक महत्व की कई साइट्स हैं। इनमें से एक सीधी क्षेत्र में है, जहां खुदाई का ये काम किया गया था। इस खुदाई से ये सिध्द हो गया कि शक्ति की उपासना पूर्व मान्यताओं से उलट पुरापाषाण काल में भी हुआ करती थी।
पहले इतिहासकारों ने ये स्थापित करने का प्रयास किया था कि शक्ति उपासना वैदिक काल के बाद शुरू हुई होगी। मैं इतिहास कि जितनी भी पुस्तकें पढ़ता हूं वे ज्यादातर इस खुदाई के पहले की हैं निश्चिततौर पर उन सभी इतिहासकारों पर पुराने साक्ष्यों का ही प्रभाव था। उसी के आधार पर उन्होंने भी अपनी सभी अवधारणाएं बना डालीं।
स्थानीय जनजातियां आज भी अपने अपने गांवों में माता को इसी रूप में पूजते हैं। इसे वे शक्ति का रूप मानते हैं। - फोटो : फोटो साभार- Researchgate.net- Shatarupa Dutta Nalanda University · School of Historical Studies Master of Arts
क्या मिला इस खुदाई में?
दोनों ही देशों के पुरातत्वविदों के लिए ये बेहद चौंकाने वाले साक्ष्य थे। उन्हें यहां जो शिल्पकृतियां मिलीं उनमें कम से कम 30 हजार ई. पू. का एक चबूतरा मिला जिस पर माता की पत्थरों से बनी एक आकृति थी। इस आकृति में त्रिकोण भी बना था जो आज के समय में प्रचलित यंत्रों की तरह दिखाई पड़ता है। स्थानीय जनजातियां आज भी अपने अपने गांवों में माता को इसी रूप में पूजते हैं। इसे वे शक्ति का रूप मानते हैं।
मैंने संप्रदायों के विषय में विस्तार से एक लेख लिखा है। उसमें शक्ति संप्रदाय के विषय में भी लिखा है। निश्चित तौर पर वैदिक संप्रदायों की ये परंपरा बहुत पुरानी दिखाई पड़ती है।
हड़प्पा या सिंधु घाटी काल में शिव उपासना के साक्ष्यों से भी ये स्पष्ट है कि कथित तौर पर बाद में आई वैदिक संस्कृति से हजारों साल पहले हिंदू देवी देवताओं की पूजा के साक्ष्य आधुनिक इतिहासकारों को भी मिले हैं।
कैसा है शक्ति का प्राचीनतम स्वरूप?
शक्ति का जो रूप यहां से प्राप्त हुआ वो बलुआ पत्थर की बनी 85 सेमी की प्रतिमा है। इस 30 हजार पू. के बताए जा रहे चबूतरे के बीचों बीच ये प्रतिमा रखी हुई है। वैज्ञानिकों के अनुसार ये एक प्राकृतिक लौहयुक्त पत्थर का टुकड़ा है जो आसपास रखे पत्थरों से बिल्कुल भिन्न है। इसमें अलग-अलग रंग के पत्थरों का भी इस्तेमाल हुआ है। त्रिकोण की आकृति के साथ ही इस पर कुछ और धारीदार आकृतियां बनी हुई हैं। निश्चित तौर पर भारतीय पुरातत्वविद् फौरन ही इसके देवी प्रतिमा होने की बात को समझ गए थे और स्थानीय लोगों द्वारा पुष्टि, साथ ही इसी रूप में आज भी शक्ति की पूजा होने के तथ्यों ने साक्ष्यों को और स्पष्ट कर दिया।
शुरूआती जांच पड़ताल ने ही पुरातत्वविदों की जिज्ञासा को बढ़ा दिया था। जब मलबे को साफ किया गया तो ऐसे ही नौ टुकड़े और मिले। सभी टुकड़े मिलकर एक त्रिभुजाकार पत्थर बनाते हैं, जो 15 सेमी ऊंचा, 6.5 सेमी चौड़ा और 6.5 सेमी मोटा आकार बनता है। उत्खननकर्ताओं की दिलचस्पी तब और बढ़ गई जब उन्हें कैमूर ढलान के ऊपर इसी तरह के और पत्थर मिले।
क्यों महत्वपूर्ण है ये खोज?
इस खोज से स्पष्ट हो गया कि हिंदू धर्म की प्राचीनता को लेकर वर्तमान इतिहासकारों की मान्यताएं गलत हैं। यूं तो इन अवशेषों को 11 हजार ई. पू. कहा गया लेकिन ये स्पष्ट है कि पुरापाषाणकाल के इन पत्थरों के 30 हजार ई. पू. के होने के तर्क भी इन्हीं इतिहासकारों की तरफ से आए। यानी असमंजस की एक स्थिति है। यदि 11 हजार ई. पू. भी माना जाए तो ये उन तथ्यों को पूरी तरह खारिज करती है जिनके अनुसार वैदिक काल 1500 ई. पू. का है और देवी उपासना इस काल में बाद में शुरू हुई।
खुद पाश्चात्य इतिहासकार शर्लक होम्स वॉट्ससन लिखते हैं-
ये बहुत आश्चर्य का विषय है क्योंकि अभी तक कि मान्यताओं के अनुसार हिंदू धर्म ने ऋग्वेद के संकलन के साथ आकार लेना शुरू किया। इसके बाद तंत्रवाद आया जहां माता की इस तरह से पूजा की जाती थी। इस खुदाई के तथ्य बताते हैं कि माता को आसन पर बैठाकर पूजा का ये तरीका कई हजार साल पुराना है।
निष्कर्ष
भारत और वैदिक विज्ञान को लेकर मैं सतत लेखन कर रहा हूं। अपने शोध के दौरान मैंने हिंदू दर्शन, संप्रदायों की कहानी आदि को महत्वपूर्ण पाया है। यदि हिंदू धर्म को समझना है तो उसके इस साहित्य को गहराई से समझना होगा। इतिहास पुरानी पांडूलिपियों, खुदाई में मिले साक्ष्यों के आधार पर आगे बढ़ता है। इसके अलावा साहित्य और भाषा का भी इतिहास को जानने में महत्वपूर्ण स्थान है। इसी क्षेत्र में आधुनिक इतिहास वेदों के काल निर्धारण पर हमेशा गड़बड़ा जाता है।
पहले उन्होंने वेदों के काल निर्धारण के लिए पूजा पध्दतियों और मंदिर के अवशेषों को आधार बनाया था। सिंधु घाटी सभ्यता की साइट्स पर मिले साक्ष्यों से भगवान शिव और प्रकृति माता की उपासना के साक्ष्यों पर भी आधुनिक इतिहासकार स्पष्टीकरण नहीं दे पाए। वे ये कहकर शांत हो गए कि सिंधु घाटी सभ्यता में नंदी की सवारी करने वाले देवता की पूजा के साक्ष्य मिलते हैं, प्रकृति को माता के रूप में पूजने के साक्ष्य मिलते हैं लेकिन मंदिरों के साक्ष्य नहीं मिलते।
ये सभ्यता दुनिया की सबसे प्राचीन विकसित सभ्यता थी और इससे भी हजारों साल पहले के शक्ति पूजा के इन साक्ष्यों ने पहले से कमजोर आधारों को और ध्वस्त कर दिया है। इस नए शोध का निष्कर्ष यही है कि भारतीय इतिहास और हिंदू धर्म की स्थापना को लेकर चल रही आधुनिक इतिहास की मान्यताएं बहुत कमजोर हैं और उन्हें पुनः परिभाषित किए जाने की आवश्यकता है।

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