सम्पादकीय

जगह-जगह कठघरे में खड़ी विविधता

Rani Sahu
4 July 2022 12:27 PM GMT
जगह-जगह कठघरे में खड़ी विविधता
x
अफगान सिखों का पहला जत्था काबुल से भारत पहुंच चुका है

हरजिंदर

अफगान सिखों का पहला जत्था काबुल से भारत पहुंच चुका है। मौका मिलते ही अफगानिस्तान में रह रहे बाकी सिख भी उस देश को हमेशा के लिए छोड़ देंगे, जिसे वे सदियों से अपना मानते रहे हैं। काबुल में इस समय लगभग 150 ऐसे लोग हैं, जो भारत रवाना होने का इंतजार कर रहे हैं। इनमें कुछ हिंदू हैं, अधिकतर सिख। ज्यादातर लोगों के लिए भारत सरकार ने ई-वीजा जारी कर दिया है।
तमाम रिपोर्टें बताती हैं कि 1970 में अफगानिस्तान में सिखों की आबादी एक लाख से ज्यादा थी। वहां रहने वाले हिंदुओं की संख्या भी तकरीबन इतनी ही थी। इसके बाद के पांच दशक में वहां जो उथल-पुथल मची, स्थानीय कट्टरता को साथ लेकर महाशक्तियों ने जो खेल खेले, उसमें ज्यादातर हिंदुओं और सिखों को मध्य एशिया का वह मुल्क छोड़ना पड़ा, जिसके रसीले फलों और सूखे मेवों का आज भी कहीं कोई सानी नहीं। अब सिर्फ मुट्ठी भर हिंदू सिख ही वहां बचे थे। तमाम विपरीत हालात के बावजूद अपनी सरजमीं से जुड़े रहने की भी एक जिद होती है। मगर पिछले पखवाड़े काबुल के गुरुद्वारा कर्ते परवान पर आईएस के हमले के बाद उनकी यह जिद भी टूट चुकी है। वे अब अपनी जान की खातिर उस जहान को छोड़ देना चाहते हैं, जो उनके पुरखों ने बड़ी हसरतों के साथ वहां सजाया था। वे अपने घर, कारोबार, गुरुद्वारे, मंदिर ही नहीं, एक पूरा इतिहास वहां छोड़ आएंगे।
अफगानिस्तान के सिखों का इतिहास भी उतना ही पुराना है, जितना कि सिख धर्म का इतिहास है। कहते हैं कि गुरु नानक देव जब अपने चौथे विश्व भ्रमण पर निकले, तो बगदाद और मक्का-मदीना से वापसी में वह अफगानिस्तान होते हुए भारत आए। अफगानिस्तान के तमाम शहरों में ऐसे कई स्थानों का जिक्र किताबों में आता है, जो उस यात्रा के दौरान गुरु नानक देव से जुड़े थे। इसी यात्रा के दौरान वहां बड़ी संख्या में उनके शिष्य बने, जो नानकपंथी कहलाए। बाद के इतिहास में तकरीबन हर सिख गुरु के दौर में प्रचारकों को अफगानिस्तान भेजे जाने का जिक्र आता है। यह सब उस दौर में हुआ, जब इस्लाम पूरे मध्य एशिया में काफी तेजी से पैर पसार चुका था।
इतिहास की इसी धारा को पकड़कर जब हम आगे बढ़ते हैं, तो 18वीं सदी में अहमद शाह अब्दाली के दौर में पहंुचते हैं, जिनको आधुनिक अफगानिस्तान का निर्माता भी कहा जाता है। अब्दाली ने एक के बाद एक भारत पर नौ हमले किए थे। यही दौर था, जब पंजाब में सिख एक राजनीतिक ताकत के तौर पर उभर रहे थे। अब्दाली ने कई बार सिखों का कत्लेआम किया। सिख धर्म की गाथाओं में इसका जिक्र विस्तार से किया जाता है, लेकिन अब्दाली के उस दौर में भी अफगानिस्तान में सिख थे। वे कारोबार भी करते थे और धर्म का पालन भी। यही नादिर शाह और उसके बाद के दौर में भी हुआ। जब महाराज रणजीत सिंह ने अफगानी शहर पेशावर पर कब्जा जमा लिया, तब भी अफगानिस्तान में रहने वाले सिख असुरक्षित नहीं थे।
इसकी अगली सदी में कई अंग्रेज यात्री, अफसर और जासूस अफगानिस्तान गए और सभी के संस्मरणों में अफगानिस्तान में रहने वाले हिंदुओं, सिखों और यहूदियों का जिक्र मिलता है। वे काफी कम संख्या में थे, लेकिन वहां के समाज और अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे।
20वीं सदी की शुरुआत में जब पूरी दुनिया बदल रही थी, तब अफगानिस्तान भी इससे अछूता नहीं था। 1904 में भारत में सिख धर्म के प्रचार के लिए 'चीफ खालसा दीवान' नाम का संगठन बना। 1921 में काबुल में इसकी एक इकाई बनी खालसा दीवान अफगानिस्तान। इस संस्था ने वहां अमृत प्रचार के कार्यक्रम भी किए। यह वह दौर था, जब तुर्की की खिलाफत की चर्चा पूरी दुनिया में थी। भारत में तो खिलाफत आंदोलन ही शुरू हो गया था। इसी दौर में एक सिख संस्था अफगानिस्तान में धर्म प्रचार कर रही थी। एक दिलचस्प घटना है 1933 की। काबुल में सिख शिक्षा समागम का आयोजन किया गया। पंजाब से महान कोश के लेखक काहन सिंह इसमें भाग लेने के लिए गए, तो उन्हें वहां सरकार ने राजकीय अतिथि का दर्जा दिया। भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ, तब एक समस्या आई अफगान सीमा पर बसे कस्बे बन्नू के बहुत से सिखों के सामने। चारों तरफ हिंसा हो रही थी और भारत तक जाने में बहुत खतरे थे। वे सब सीमा पार करके अफगानिस्तान के खोस्त प्रांत में चले गए। उनके लिए अफगानिस्तान पाकिस्तान के मुकाबले कहीं ज्यादा सुरक्षित था। इसके बाद अगले 45 साल वे वहीं रहे। बाद में जब हालात बिगड़े, तब इन लोगों ने 1992 में खोस्त को छोड़ा।
20वीं सदी में ही सिख इतिहासकार गंडा सिंह ने अफगानिस्तान की यात्रा की थी। उन्होंने वहां रहने वाले हिंदुओं, सिखों और यहूदियों के जीवन के बारे में काफी विस्तार से लिखा है। उन लोगों का जीवन तकरीबन उतनी ही परेशानियों से भरा था, जितना किसी भी मुल्क में अल्पसंख्यकों का होता है। ऐसे कई दौर आए, जब उन्हें लगातार जजिया देना पड़ा। ऐसे भी कुछ निजाम आए, जब उन्हें अलग तरह के कपड़े या प्रतीक चिह्न पहनकर सड़कों पर निकलना होता था, ताकि उनकी पहचान की जा सके। कभी-कभी उनके कुछ रीति-रिवाजों पर भी रोक लगी। स्थानीय समाज उन्हें अलग मानता था, लेकिन अलग मानते हुए स्वीकार भी कर लेता था। मध्य युग से लेकर पिछली सदी के मध्य तक वे इन हालात के बीच भी सुरक्षित थे।
मध्य युग को अक्सर हम धार्मिक कट्टरता और उसकी बर्बरता के लिए याद करते हैं। लेकिन मध्य युग की कट्टरता समाज की विभिन्नता या उसमें रह रहे अलग तरह के लोगों को जिस तरह स्वीकार कर लेती थी, 21वीं सदी की कट्टरता उसे भी स्वीकार करने को तैयार नहीं। जो सिख अहमद शाह अब्दाली के युग में भी अफगानिस्तान में बने रहे, वे तालिबान के युग में वहां नहीं रह सकते। आईएस ने यजीदी लोगों के साथ क्या किया, यह भी हम देख ही चुके हैं।
बात सिर्फ मध्य एशिया की नहीं है। एक अलग तरह से यही यूरोप में भी हो रहा है और एशिया के जिस हिस्से में हम हैं, वहां भी। विविधता, जिसे कुछ समय पहले तक समाज की ताकत माना जाता था, अब हर जगह कठघरे में खड़ी की जाने लगी है।
सोर्स- Hindustan Opinion Column


Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story