सम्पादकीय

वल्लभ भाई पटेल: किसानों के सरदार

Neha Dani
10 Oct 2021 1:45 AM GMT
वल्लभ भाई पटेल: किसानों के सरदार
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भारत में किसानों ने एक उदासीन और कदाचित लापरवाह प्रशासन के लिए सम्मानजनक और दृढ़ प्रतिरोध की पेशकश की है।

वर्ष 1931 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक सम्मेलन बंदरगाह शहर कराची में हुआ था। वल्लभ भाई पटेल निर्वाचित अध्यक्ष थे। अपने भाषण की शुरुआत में पटेल ने टिप्पणी की : 'आपने एक साधारण किसान को उस सर्वोच्च पद पर बिठाया, जिसकी आकांक्षा कोई भी भारतीय कर सकता है। मैं इस बात से वाकिफ हूं कि प्रथम सेवक के रूप में आपकी पसंद मेरे द्वारा किए गए थोड़े से काम की वजह से नहीं, बल्कि यह गुजरात द्वारा किए गए अद्भुत बलिदान की मान्यता है। आपने अपनी दरियादिली से उस सम्मान के लिए गुजरात का नाम लिया है। लेकिन सच यह है कि हम आधुनिक समय में जिसे महान राष्ट्रीय जागरण के रूप में जानते हैं, उसमें प्रत्येक प्रांत ने भरसक योगदान किया है।'

1931 में कांग्रेस को अस्तित्व में आए चार दशक से अधिक हो चुके थे। फिर भी, उस समय तक उसने पहले कभी किसी किसान परिवार में जन्मे व्यक्ति को अपने संगठन का नेतृत्व करने के लिए नहीं चुना था, बावजूद इसके कि महात्मा गांधी खुद दावा करते थे और उपदेश देते थे कि 'भारत गांवों में बसता है'। कांग्रेस के सारे पूर्व अध्यक्ष शहरी नस्ल के थे और शहरों में बड़े हुए थे।
वल्लभ भाई पटेल स्वतंत्रता संग्राम के पहले बड़े नेता थे, जो कि ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए थे। उल्लेखनीय है कि किसानों को एकजुट करने वाले संगठनकर्ता के रूप में उन्होंने राष्ट्रीय मंच पर अपनी पहली छाप छोड़ी थी। पटेल की ऐतिहासिक विरासत से संबंधित हाल के विमर्शों में रियासतों के विलीनीकरण और स्वतंत्रता प्राप्ति तथा विभाजन की त्रासदी के बाद राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने में उनकी अहम भूमिका पर ही जोर दिया जाता है।
ये योगदान वास्तव में पर्याप्त थे, लेकिन यह अफसोस की बात होगी कि इनकी वजह से किसान संगठनकर्ता के रूप में उनके आरंभिक कार्य ढक जाएं। वास्तव में किसानों के सरदार के रूप में पटेल हमें आज कहीं अधिक प्रासंगिक लगते हैं, जब एक साल से अधिक का वक्त बीत जाने के बावजूद उत्तर भारत के किसान मोदी सरकार के खिलाफ सत्याग्रह जारी रखे हुए हैं।
वल्लभ भाई पटेल ने 1928 में जिस बारदोली सत्याग्रह का आयोजन और नेतृत्व किया था, उसने भी किसान स्वाभिमान के लिए अहिंसा की शक्ति और क्षमता का जोरदार प्रदर्शन किया। उस संघर्ष में गुजरात के किसान औपनिवेशिक राज्य की उत्पीड़क कृषि नीतियों के खिलाफ एकजुट हुए थे। उनके आंदोलन के समृद्ध ब्योरे बॉम्बे प्रेसिडेंसी के रिकॉर्ड में संरक्षित हैं और अभी मुंबई स्थित महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार का हिस्सा हैं।
सत्याग्रह के महीनों के दौरान बारदोली में दिए गए पटेल के भाषण अनुवाद के बावजूद पढ़ने में रुचि जगाते हैं। एक भाषण में वह किसानों को साहस और त्याग का प्रदर्शन करने के लिए कहते हैं : 'आप किस बात से डरते हैं?', बात जारी रखते हुए गुजराती में वह कहते हैं, 'कुर्की? आप शादी के समारोहों में हजारों रुपये खर्च डालते हैं, तो फिर आप इससे क्यों डरते हो कि सरकारी अधिकारी दो सौ या पांच सौ रुपये का सामान ले जाएंगे?' बारदोली के किसानों से सरकार ने कहा, 'इस संघर्ष में, पांच हजार भेड़ों के बजाय पांच ऐसे व्यक्तियों की जरूरत है, जो कि मरने के लिए तैयार हों।'
एक अन्य भाषण में पटेल व्यंग्य करते हैं, सरकार ने गुजरात के किसानों को दबाने के लिए एक स्टीमरोलर (सड़क बनाने वाला रोलर) रखा है। एक अन्य भाषण में पटेल टिप्पणी करते हैं, 'एक सरकार समर्थक अखबार कहता है कि गुजरात गांधी बुखार से पीड़ित है। उम्मीद की जाए कि सारे लोग इस बुखार से पीड़ित हो जाएं।' पुलिस की एक रिपोर्ट में कुछ चेतावनी के साथ टिप्पणी की गई कि वल्लभ भाई तालुका (बारदोली) के तकरीबन प्रत्येक गांव के नेताओं से चर्चा कर रहे हैं।
औपनिवेशिक राज्य के अभिलेखीय रिकॉर्ड की पुष्टि शानदार अखबार (दुखद है कि अब बंद हो गया) बॉम्बे क्रॉनिकल की पुरानी माइक्रो फिल्में भी करती हैं। अप्रैल, 1928 के आखिरी हफ्ते में क्रॉनिकल ने एक किसान सभा को इस तरह दर्ज किया : कल रात वराड में किसानों की एक सभा में श्री वल्लभ भाई पटेल के प्रति सम्मान और समर्पण को लेकर भारी उत्साह देखा गया।
खादी पहने महिलाएं, हाथ से काते हुए सूत की माला और फूल, नारियल, लाल पाउडर और चावल का प्रसाद चढ़ाकर सम्मान अर्पित कर रही थीं। कुछ जगहों पर अवसर के अनुरूप महिलाओं ने लोक गायन तैयार किया था, करीब पांच सौ महिलाएं ईश्वर का आह्वान कर रही थीं कि वह सत्य के लिए किए जा रहे उनके पवित्र संघर्ष को आशीर्वाद दे, इसने वहां मौजूद ढाई हजार लोगों की मौजूदगी को एक धार्मिक रूप दे दिया।
अगस्त में क्रॉनिकल ने सत्याग्रियों और राज्य के बीच हुए समझौते की खबर प्रकाशित की, जिसके मुताबिक सरकार एक राजस्व अधिकारी से संबद्ध एक न्यायिक अधिकारी से जांच के लिए राजी हुई। राज्य ने सारे सत्याग्रहियों को रिहा कर दिया और इस्तीफा देने वाले ग्राम प्रधानों को बहाल कर दिया। बारदोली सत्याग्रह पर केंद्रित 1929 में प्रकाशित अपनी किताब में महादेव देसाई लिखते हैं कि सरदार पटेल की किसानों की प्रशस्ति का दोहरा आधार है, एक है सच्ची सामाजिक- अर्थव्यवस्था में किसान के उच्च स्थान के बार में उनकी समझ, और उसके अत्यंत निम्न स्तर से उपजी उनकी पीड़ा।
भारतीय किसानों के बारे में पटेल ने कहा, 'वह उत्पादक है और अन्य लोग परजीवी हैं।' देसाई लिखते हैं कि बारदोली सत्याग्रह सफल हुआ, क्योंकि सरदार ने अपने साथी किसानों को दो बुनियादी पाठ पढ़ाए- निर्भयता का पाठ और एकता का पाठ। पटेल के नेतृत्व में बारदोली में हुए किसान संघर्ष और आज के किसान आंदोलन के बीच तकरीबन सौ बरस का फासला है। एक तरफ आंदोलन को कायम रखने में महिलाओं की भूमिका, और सत्याग्रहियों का शांत पराक्रम, जिन्होंने सर्दी, गर्मी, मानसून और महामारी का डटकर मुकाबला किया और अपना संघर्ष जारी रखा। दूसरी ओर, राज्य द्वारा आंदोलन को रोकने और देरी करने, आंदोलन को विभाजित करने और उनके नेताओं के बारे में झूठ फैलाने का प्रयास।
मैं इस लेख का समापन वहीं पर खत्म करूंगा, जहां से मैंने इसे 1931 में सरदार पटेल के कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में दिए गए भाषण से शुरू किया था। यहां उन्होंने गांधी के नेतृत्व में महान राष्ट्रीय उत्सर्ग के बारे में बात करते हुए टिप्पणी की, 'यह चुनौती से परे एक तथ्य है कि भारत ने दुनिया को अकेला ऐसा सबूत दिया है कि सामूहिक अहिंसा अब एक दूरदर्शी या सिर्फ मानवीय लालसा भर नहीं है।
यह एक ऐसा ठोस तथ्य है, जो उस मानवता के लिए अनंत संभावनाएं पैदा करने में सक्षम है, जो कराह रही है, विश्वास की कमी के कारण, हिंसा के भार के नीचे, जो लगभग एक बुत बन गई है। हमारे आंदोलन के अहिंसक होने का सबसे बड़ा सबूत इस तथ्य में निहित है कि किसानों ने हमारे सबसे बुरे संशयवादियों के डर को झूठा साबित किया। कहा गया कि उन्हें अहिंसक कार्रवाई के लिए संगठित करना बहुत कठिन है, और यह वे ही हैं, जिन्होंने बहादुरी और सहनशक्ति के साथ चुनौतियों का सामना किया जो कि सभी अपेक्षाओं से परे था।
महिलाओं और बच्चों ने भी लड़ाई में अपना बड़ा योगदान दिया। और मुझे लगता है कि उन्हें अहिंसा के संरक्षण और आंदोलन की सफलता का बड़ा श्रेय देना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा।' 1931 के ये शब्द 2021 में पढ़ने को प्रेरित करते हैं, जब एक बार फिर, भारत में किसानों ने एक उदासीन और कदाचित लापरवाह प्रशासन के लिए सम्मानजनक और दृढ़ प्रतिरोध की पेशकश की है।

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