सम्पादकीय

पूजा-स्थल कानून की वैधता

Rani Sahu
18 May 2022 7:05 PM GMT
पूजा-स्थल कानून की वैधता
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पूजा-स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 की विरोधाभासी व्याख्या की जा रही है

पूजा-स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 की विरोधाभासी व्याख्या की जा रही है। ज्ञानवापी परिसर के संदर्भ में यह कानून बेहद महत्त्वपूर्ण है। मुस्लिम पक्ष के नेता, प्रवक्ता और मौलाना-मौलवी एक ही सुर में दलीलें दे रहे हैं कि ज्ञानवापी परिसर का सर्वे करा और कथित शिवलिंग की विशेष सुरक्षा करा निचली अदालत ने 1991 के कानून का उल्लंघन किया है। दूसरी तरफ भाजपा और हिंदू पक्ष का स्पष्टीकरण है कि उक्त कानून की संवैधानिक वैधता सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है, लिहाजा इस कानून की दलीलें देना गलत है। चूंकि 1991 का कानून संसद और भारत सरकार के जरिए पारित किया गया है, लिहाजा वह आज भी 'लागू' कानून है। बेशक कानून तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव के कार्यकाल के दौरान बनाया गया और आज भाजपा की मोदी सरकार है, लेकिन फिर भी कानून भारत सरकार का है। जब तक संसद इस कानून में संशोधन पारित नहीं करती अथवा सरकार इसे खारिज करने का प्रस्ताव संसद में पारित नहीं कराती, तब तक यह संवैधानिक कानून है और देश भर के पूजा-स्थलों के बुनियादी धार्मिक चरित्र पर लागू होता है। मुस्लिम पक्ष यह दुहाई भी दे रहा है कि 1991 के कानून को नजरअंदाज़ करने से संविधान के अनुच्छेद 14,15, 20, 21, 25 आदि के तहत उन्हें नागरिक के तौर पर जो अधिकार प्राप्त हैं, उनका भी हनन किया जा रहा है। ज्ञानवापी मंदिर था अथवा मस्जिद है, इसकी तह तक जाने से पहले अदालत के लिए कानून की संवैधानिक वैधता तय करना अनिवार्य है।

वैधता को वाराणसी की जिला अदालत परिभाषित नहीं कर सकती। यह सर्वोच्च अदालत का ही विशेषाधिकार है कि कमोबेश उसकी 5-न्यायाधीशों की पीठ प्राथमिकता के स्तर पर 1991 के कानून की दलीलें सुने और फिर अपना निर्णायक निष्कर्ष दे। एक दलील यह भी दी जा रही है कि जो धार्मिक स्मारक, उपासना-स्थल, 100 साल या उससे भी ज्यादा पुराने हैं, चूंकि वे सांस्कृतिक और राष्ट्रीय धरोहर की श्रेणी में आ जाते हैं, लिहाजा ऐसे कानून उन पर लागू नहीं होते। श्रीराम मंदिर और कथित बाबरी मस्जिद के अयोध्या विवाद को इस कानून की परिधि से बाहर रखा गया था, लेकिन उस विवाद पर सुनवाई करने वाली न्यायिक पीठ ने 1991 के कानून की प्रशंसा की थी। वह संदर्भ अलग था, लेकिन आज ज्ञानवापी के साथ-साथ ताजमहल, कुतुबमीनार, दिल्ली और कर्नाटक की जामा मस्जिदों आदि को लेकर मांगें उग्रतर होती जा रही हैं कि उन स्मारकों की खुदाई और सर्वे भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण से कराए जाएं, क्योंकि ये स्मारक भी मंदिरों को तोड़ कर बनाए गए हैं।
वैसे ज्ञानवापी पर सर्वोच्च अदालत ने भी सुनवाई शुरू की है, लेकिन उसका अंतरिम आदेश है कि निचली अदालत ही इस मामले को बुनियादी तौर पर निपटाए। शीर्ष अदालत ने कथित शिवलिंग की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए प्रदेश सरकार को आदेश दिया है, लेकिन ज्ञानवापी में नमाज को भी बाधित नहीं करने का फैसला दिया है। सर्वे हो चुका है, लिहाजा उस पर कोई पाबंदी नहीं है। सर्वोच्च अदालत की एक अलग पीठ बनाकर कानून की वैधता पर सुनवाई शुरू होनी चाहिए। 1991 के कानून का आधार यह है कि 15 अगस्त, 1947 को मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च आदि पूजा-स्थलों का जो भी धार्मिक चरित्र था, भविष्य में वैसा ही रहेगा। उसमें कोई भी बदलाव नहीं किया जा सकता। यह तारीख अचानक यूं ही तय नहीं की गई। दरअसल उससे पहले भारत का भौगोलिक स्वरूप तो था, लेकिन वह ब्रिटिश सिंहासन का एक गुलाम देश था। 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र देश बना। भारत विविधता वाले लोकतंत्र के तौर पर उभरा। अब वहां कई शक्ति-केंद्र नहीं थे, उपनिवेश नहीं थे, कानून की समय-सीमा स्वतंत्रता के दिवस से शुरू की गई थी। हालांकि हमारा गणतंत्र और संविधान 1950 में लागू हुए, लेकिन 1991 तक भारत एक स्थापित राष्ट्र बन चुका था। भारत कई सांप्रदायिक टकराव झेल चुका था। उसके बावजूद एक मस्जिद पहले मंदिर थी, इस विवाद के खतरनाक अंजाम हो सकते थे, लिहाजा 1991 का कानून मील पत्थर संवैधानिक व्यवस्था है। उसको लेकर भी विरोधाभास हैं, सबसे पहले सर्वोच्च अदालत का हस्तक्षेप जरूरी है, ताकि कानून की संवैधानिक वैधता तय की जा सके।


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