- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- वाजपेयी का बैलगाड़ी पर...
वाजपेयी का बैलगाड़ी पर बैठकर संसद के सामने धरना, कल जो तार्किक था क्या आज हो सकता है?
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | कार्तिकेय शर्मा| पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) के 1973 के ब्लैक एंड वाइट वीडियो ने सोशल मीडिया में धूम मचा दी है. ऐसा नहीं है कि ये पहले कभी देखा नहीं गया था, पर आज तेल के दाम आसमान छू रहे हैं और वाजपेयी के तेल के दाम 7 पैसे बढ़ाने पर संसद के सामने प्रदर्शन आज अजीब सा लगता है. उससे ज़्यादा अचम्भे की बात है कि वाजपेयी बैलगाड़ी में बैठ कर संसद (Parliament) जा पहुंचे और वो भी बे रोक टोक. आज ऐसा करना असंभव है.
इसके लिए किसी सरकार को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. पूरी दुनिया आतंकवाद (Terrorism) का सामना कर रही है और भारतीय संसद पर 2001 में बड़ा आतंकवादी हमला भी हो चुका है. लेकिन विडम्बना देखिये कि जब ये हमला हुआ था तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे. उसके बाद संसद की सुरक्षा का हुलिया ही बदल गया.
सत्तर के दशक में तेल के दाम बढ़ाने का सारा फैसला केंद्र सरकार का होता था
1973 में तेल के दाम बढ़ाने का सारा फैसला केंद्र सरकार के ऊपर निर्भर करता था. तब देश का उद्योग सरकारी नियम से बंधा हुआ था. लेकिन आज तेल कंपनियां खुद तय करती हैं कि पेट्रोल और डीजल की कीमत कितनी हो. यहां भी एक और विडम्बना है, तेल के दाम बढ़ाने की आज़ादी तेल कंपनियों को वाजपेयी के कार्यकाल में ही मिली थी जिस पर मुहर कांग्रेस की यूपीए सरकार ने 2004 में लगाई थी.
उस समय 7 पैसे का इजाफा बहुत था
यानी प्रदर्शन और धरना करने के तरीके का मूल्यांकन वक़्त की नज़ाकत को देख कर करना चाहिए. मतलब कल जो तार्किक था वो आज नहीं हो सकता. जेडीयू नेता और पुराने समाजवादी के सी त्यागी का कहना है कि 1970 में देश भर में लगातार आंदोलन आयोजित हो रहे थे. उनका कहना है कि तब गैर कांग्रेसवाद का ज़माना था और सात पैसे बहुत होते थे. वाजपेयी के लिए बैलगाड़ी से आना फोटोबाजी नहीं था वो ग्रामीण भारत में एक सन्देश देने और उससे जुड़ने की कोशिश थी.
के सी त्यागी कहते हैं कि तब राम मनोहर लोहिया कहते थे कि संसद और सड़क दोनों गर्म रखना होगा नहीं तो संसद बांझ हो जाएगी. वहीं कांग्रेस के पूर्व राज्य सभा सांसद जनार्दन द्विवेदी का कहना है की प्रदर्शन आवश्यक है, लेकिन ये समय के समझ और गंभीरता के अनुरूप होना चाहिए. उनका कहना है कि उस ज़माने में 7 पैसे की अहमियत बहुत होती थी और ज़्यादातर सरकारी कर्मचारी बसों में आते थे. जनार्दन द्विवेदी ये भी कहते हैं कि उस वक़्त विश्वविद्यालयों में तनख्वा 600 रुपये होती थी और जीवन में कई चीज़ों के लिए संघर्ष करना पड़ता था.
'अब इस तरह का प्रदर्शन नामुमकिन है'
वहीं सुधीन्द्र कुलकर्णी जो अटल बिहारी वाजपेयी के मीडिया सलाहकार और स्पीच राइटर थे, उनका कहना है कि आज इस तरह का प्रदर्शन नामुमकिन है. वो यह भी कहते हैं कि दिल्ली में शान्तिपूर्वक तरीके से धरना करने की जगह भी कम होती जा रही है. वहीं आरजेडी के प्रवक्ता मनोज झा का कहना है की पिछले सात सालों में पता ही नहीं चला कि धरना राष्ट्रीय हित के खिलाफ कैसे हो गया. मतलब सरकार के खिलाफ विरोध तब देश से जोड़ कर नहीं देखा जाता था.
यहां एक बात और भी है, 1973 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रुतबा अपने शबाब पर था. वो पाकिस्तान को जंग में हरा कर बांग्लादेश के निर्माण में अहम भूमिका निभा चुकी थीं. तब तक इंदिरा गांधी ने कांग्रेस से सिंडिकेट का सफाया कर दिया था और 1971 के चुनावों में जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के छक्के छुड़ा दिए थे.
विपक्ष को हमेशा आवाज़ उठानी चाहिए
उस वक़्त हिंदुस्तान में इंदिरा गांधी से बड़ा कोई नेता नहीं था. उनसे उम्र में बड़े नेता और नेहरू और गांधी के समकक्ष चेहरे मौजूद थे लेकिन लोकतंत्र के मैदान में वो सब को पटक चुकी थीं. ऐसे में वाजपेयी का निकल कर इंदिरा गांधी के खिलाफ बोलना उनकी विचारधारा में प्रतिबद्धता भी झलकाता था. मतलब सत्ता कितनी भी अटूट और विशाल दिखे, उसके खिलाफ विपक्ष को बोलने की ज़हमत उठानी चाहिए और सत्ता पक्ष को उसका मुंह राष्ट्रवाद के नाम पर बंद नहीं करना चाहिए.