सम्पादकीय

टीकाकरण: युवा राष्ट्र का भविष्य, लेकिन बूढ़ों पर रहम कीजिए

Gulabi
8 Jun 2021 11:51 AM GMT
टीकाकरण: युवा राष्ट्र का भविष्य, लेकिन बूढ़ों पर रहम कीजिए
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हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट के दो जजों की पीठ ने फैसला दिया कि युवा पीढ़ी को पहले टीका लगाया जाना चाहिए

हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट के दो जजों की पीठ ने फैसला दिया कि युवा पीढ़ी को पहले टीका लगाया जाना चाहिए, क्योंकि वे राष्ट्र का भविष्य हैं। लेकिन टीकाकरण में बुजुर्गों को प्राथमिकता दी गई। हालांकि इसका यह मतलब नहीं कि बुजुर्गों का जीवन महत्वपूर्ण नहीं है। कायदे से हमें सबको बचाना चाहिए, लेकिन चुनने की बात हो, तो युवाओं को चुनना चाहिए। सही कहा। माता-पिता, दादा-दादी भी अपनी जान के मुकाबले अपने बच्चों को पहले बचाते हैं। लेकिन यह भावनात्मक मसला होता है। अदालतें ये कैसे तय कर सकती हैं कि परिवार में किसका जीवन कीमती है और किसका नहीं। वैसे भी मी लार्ड, इस देश में बूढ़ों की क्या हालत है, आप जानते तो होंगे ही। यदि अधिक जानना हो, तो हैल्पेज की रिपोर्ट ही पढ़ लीजिए।

अब तक तो हमेशा अदालतों के प्रगतिशील और समाज सुधारों वाले निर्णयों पर खुश होते रहे हैं। वाह-वाह करके लगातार लिखते रहे हैं। देश भर में फैली आपकी ही अदालतों ने समय-समय पर फैसले दिए हैं कि बच्चे माता-पिता की संपत्ति के तब तक मालिक नहीं होते, जब तक माता-पिता ही उन्हें न दे दें। न ही वे उनकी अर्जित संपत्ति पर मनमाना दावा कर सकते हैं। इसके अलावा वे निर्णय भी आपकी ही अदालतों ने दिए हैं कि अगर बच्चे माता-पिता की ठीक से देखभाल नहीं करेंगे, तो वे उनके साथ नहीं रह सकते। सरकारें असहाय बूढ़ों को वृद्धावस्था पेंशन देती हैं। तब तो यह पैसा भी सरकारों को बेरोजगार युवाओं को दे देना चाहिए।
सच तो यह है, सरकारों ने जब यह निर्णय किया था कि पहले टीका उम्रदराजों को लगाया जाए, क्योंकि उनकी इम्युनिटी कम होती है, तो वह ठीक ही था। बहुत से पश्चिमी देशों ने भी ऐसा किया है। लेकिन वह निर्णय तरह-तरह की राजनीति की भेंट चढ़ गया। हमने कोरोना की पहली लहर में इटली में बूढ़ों की दुर्दशा देखी थी। न्यूयॉर्क से भी ऐसी खबरें आई थीं। अब हमारे देश में ऐसे निर्णयों पर अदालतें मोहर लगा रही हैं कि पहले युवाओं को टीका दें। बूढ़े तो अपनी जिंदगी जी चुके। यह भी कहा गया कि अगर घर में एक व्यक्ति अस्सी साल का है और एक युवा है, तो पहले किसे बचाएंगे। यानी कि जिन घरों में बूढ़े हैं, परिवार का यह नैतिक कर्तव्य है और सरकारों का भी कि उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाए।
आखिर इन्हीं बूढ़ों के तमाम संसाधनों का उपयोग करते हुए युवा पल सके, पढ़ सके, नौकरियां पा सके। मान लीजिए अपनी युवावस्था में ये भी इतने स्वार्थी हो जाते और बच्चों की देखभाल न करते, तो आज के युवा कहां होते? और आज के युवा क्या कल बूढ़े नहीं होंगे? उम्र को क्या किसी ने बांध रखा है? जीवन के व्यवहार में ये फैसला कैसी नजीर पेश करेगा? बहुत से बच्चे अपने परिवार के लोगों को असहाय छोड़ देते हैं, उनकी देखभाल नहीं करते। इलाज तो छोड़िए, बहुत से बूढ़े भरपेट खाने से भी वंचित रहते हैं या धकिया कर वृद्धाश्रम में भेज दिए जाते हैं। मैं कई ऐसे वृद्धों को जानती हूं, जो गर्मी की भरी दोपहर में किसी मंदिर में शरण लेते हैं या किसी गली के मोड़ या पार्क की, क्योंकि परिवार की महिलाएं कहती हैं कि वे दोपहर में घर में न रहें।
जापान की वे कथाएं पढ़ी ही होंगी, जहां बूढ़ों को मरने के लिए ऊंचे पहाड़ों पर छोड़ दिया जाता था। वैसे भी सरकारें ये महान विचार अक्सर प्रकट करती ही रहती हैं कि बूढ़े अर्थव्यवस्था पर बोझ होते हैं। जापान और चीन तो खुलेआम कहते हैं कि वे बूढ़ों की बढ़ती आबादी और उनकी लंबी उम्र से परेशान हैं। शायद हम भी उसी रास्ते पर बढ़ रहे हैं। हमारे देश में बताया जाता है कि 23 प्रतिशत बुजुर्ग हैं। जब इनका वोट चाहिए, संसाधन चाहिए, तब ये आदरणीय होते हैं और बाद में घर, परिवार, समाज सबसे दुरदुराने लायक। आखिर क्यों? अदालतें तो अपने मानवीय निर्णयों के लिए जानी जाती हैं, मगर ऐसा लगता है कि बहुत से लोगों के मन में बूढ़ों के लिए निर्धारित वानप्रस्थ व्यवस्था अभी तक बैठी हुई है।
क्रेडिट बाय अमर उजाला
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