सम्पादकीय

आफत में उत्तराखंड

Subhi
21 Oct 2021 2:14 AM GMT
आफत में उत्तराखंड
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उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला जैसे थमने का नाम नहीं ले रहा। इस बार बारिश कहर बनकर टूटी है यहां के लोगों पर।

उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला जैसे थमने का नाम नहीं ले रहा। इस बार बारिश कहर बनकर टूटी है यहां के लोगों पर। पिछले चार दिनों से लगातार बारिश अपने आप में बड़ी आफत थी, लेकिन खासकर आखिरी 24 घंटों ने तो सारी कसर पूरी कर दी। इसका केंद्र रहा राज्य का अल्मोड़ा क्षेत्र। मौसम विभाग के मुक्तेश्वर और पंतनगर केंद्रों ने तो बाकायदा बताया कि उनके रेकॉर्ड में ऐसी बारिश अब तक दर्ज नहीं हुई थी।

नतीजा, बारिश का यह पानी कई इलाकों में भीषण बाढ़ और बड़े पैमाने पर भूस्खलन की वजह बना। 46 लोगों की मौत का जो आंकड़ा आधिकारिक तौर पर बताया जा रहा है, वह तो सिर्फ उन लोगों की बात है, जिनके बारे में पता चल सका है। नैनीताल जैसा बड़ा पर्यटन केंद्र ही नहीं, राज्य के बहुत से इलाके बाकी दुनिया से कट चुके हैं। सड़कें, पुल और बड़ी संख्या में मकान भी धंस गए, टूट-फूट गए या बह गए। जाहिर है, ऐसी स्थिति में जान-माल के नुकसान का सटीक अंदाजा भी तुरंत नहीं लगाया जा सकता। सही सूचनाएं आने और सरकारी तंत्र को दूरदराज के इलाकों तक पहुंचने में वक्त लगेगा।

हालांकि जहां तक भी पहुंचना संभव है, वहां राहत और बचाव कार्य शुरू करने में देर नहीं की गई। तीन सौ से ज्यादा लोगों को बचा लिया गया है। लेकिन जितने लोग जहां-तहां फंसे हुए हैं, उनके मुकाबले यह संख्या बहुत कम है। फिलहाल संतोष की बात इस संदर्भ में कुछ है तो यही कि बारिश थम चुकी है और मौसम विभाग के मुताबिक बादलों ने दूसरी तरफ का रुख ले लिया है। यह बारिश वैसे भी उत्तराखंड तक सीमित नहीं थी, लेकिन फिर भी यह जितनी बड़ी विपदा यहां के लिए साबित हुई, उतनी अन्य राज्यों के लिए नहीं हुई। यह इस बात का एक और सबूत है कि पर्यावरण और प्राकृतिक संतुलन के लिहाज से उत्तराखंड अतिरिक्त रूप से संवेदनशील है और इसका खास तौर पर ध्यान रखे जाने की जरूरत है।
हर बड़े हादसे के बाद दोहराए जाने के बावजूद विकास योजनाओं के स्वरूप में बदलाव के कोई संकेत नहीं दिखाई देते। बार-बार कहा जा चुका है कि चाहे चार धाम प्रॉजेक्ट हो या हाइड्रो इलेक्ट्रिक परियोजनाएं या इस तरह की अन्य विकास योजनाएं- इस पूरे इलाके की पारिस्थितिकी के लिहाज से ये बेहद खतरनाक हैं और इनके बजाय विकास का ऐसा ढांचा खड़ा करने की जरूरत है, जो जंगल काटने और पहाड़ के हिस्सों को डाइनामाइट से उड़ाने की ओर न ले जाए, बल्कि इनके साथ फल-फूल सके। दिक्कत यह है कि ये सुझाव भी हर बड़े हादसे के बाद निभाई जाने वाली औपचारिकता जैसे हो गए हैं। न तो निर्णयकर्ता इन्हें लेकर गंभीर हैं और न ठोस जनमत की ऐसी ताकत ही इनके इर्द-गिर्द खड़ी हो सकी है, जो निर्णयकर्ताओं को इसके लिए मजबूर करे।

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