सम्पादकीय

उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2022: बेरोजगारी के मुद्दे पर राजनीतिक दलों के पास नहीं है कोई प्लान

Gulabi
4 Feb 2022 7:03 AM GMT
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2022: बेरोजगारी के मुद्दे पर राजनीतिक दलों के पास नहीं है कोई प्लान
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उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2022
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के बेरोजगारी के आंकड़ों का विश्लेषण करने से पता चला है की यूपी, पंजाब, गोवा और उत्तराखंड में दिसंबर 2021 के दौरान नौकरी पेशा लोगों की कुल संख्या पांच साल पहले से भी कम थी।
दरअसल, इन आंकड़ों के सामने आने के बाद और बिहार में रेलवे अभ्यर्थियों के आंदोलन के बाद से उत्तराखंड में भी विधानसभा चुनावों से पहले बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा बन कर सामने आया है। कांग्रेस ने बेरोजगारी को लेकर भाजपा के विरोध में अभियान छेड़ दिया है। पार्टी को उम्मीद है कि इस पर उसे विधानसभा चुनाव में मतदाताओं का समर्थन मिलेगा।
कोरोना की वजह से और अधिक बढ़ी बेरोजगारी
कोरोना के बाद वापस आए प्रवासियों की वजह से प्रदेश में बेरोजगारी और भी अधिक बढ़ गई है। ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग, उत्तराखंड पौड़ी द्वारा जून 2021 में दिए गए आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में पहली लहर के दौरान सितंबर 2020 तक 3,57,536 प्रवासी वापस लौटे थे, जिसमें से सितंबर अंत तक 1,04,849 प्रवासी पुनः वापस चले गए। जो प्रवासी प्रदेश में रहे, अगर उनके रोजगार पर नजर दौड़ाएं तो उनमें से 38 प्रतिशत की आजीविका का मुख्य स्रोत मनरेगा था। जिसका बजट इस बार के बजट में केंद्रीय वित मंत्री निर्मला सीतारमण ने कम कर दिया है।
कृषि, बागबानी और पशुपालन को आजीविका के तौर पर 33 प्रतिशत लोगों ने अपनाया और स्वरोजगार अपनाने वाले प्रवासियों का प्रतिशत 12 था। आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि प्रवासियों द्वारा प्रच्छन्न बेरोजगारी या छुपी हुई बेरोजगारी की गई थी।
जो रोजगार में थे उनके क्या हाल?
संगीत की शिक्षा प्राप्त कर चुके देहरादून निवासी राहुल थापा कोरोना काल से पहले एक नामी स्कूल में संगीत सिखाते थे। कोरोना की वजह से स्कूल बंद होने पर वह जोमेटो में डिलीवरी का काम करने लगे। कहने को रोजगार के नाम पर और बेरोजगारी के अवसाद से दूर रहने के लिए राहुल के पास नौकरी तो है पर महंगाई के इस दौर में उनके पास महीने के दस हजार रुपये ही बचते हैं जो एक बेहतर भविष्य के लिए नाकाफी हैं। यही हाल मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के विधानसभा क्षेत्र खटीमा में रहने वाले विजय राणा के भी हैं, जो अमेजन में डिलीवरी का काम करते हैं।
खटीमा के ही रहने वाले भास्कर चौसाली लॉकडाउन से पहले दिल्ली के चाणक्यपुरी में एक होटल में कार्य करते थे। अब उन्होंने अपने गांव में ही एक फास्ट फूड रेस्टोरेंट खोला है।
भास्कर कहते हैं-
गांव में इतना काम है कि मुझे अपने साथ दो-तीन सहयोगियों की आवश्यकता है लेकिन गांव में मनमाफिक काम भी नही किया जा सकता क्योंकि लोग खुद के काम से ज्यादा दूसरों के कामों पर ज्यादा ध्यान देते हैं। शहर की तेज जिंदगी में तो पड़ोसियों के नाम तक नही पता होते।
सिडकुल से उत्तराखंड के युवाओं को रोजगार तो मिला नहीं ,ऊपर से पंतनगर यूनिवर्सिटी की हजारों एकड़ की खेती वाली भूमि भी बेकार हो गई।
सिडकुल से उत्तराखंड के युवाओं को रोजगार तो मिला नहीं ,ऊपर से पंतनगर यूनिवर्सिटी की हजारों एकड़ की खेती वाली भूमि भी बेकार हो गई। - फोटो : PTI
प्रदेशवासियों के रोजगार की उम्मीद पंतनगर सिडकुल के हालात
प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की वजह से पंतनगर में सिडकुल की स्थापना हुई थी। शुरू में दी गई सब्सिडी की वजह से बहुत सी कंपनियों ने सिडकुल में अपना डेरा डाल था, पर अब कोरोना की वजह और सब्सिडी समाप्त होने के बाद से बहुत सी कंपनियां या तो वापस चली गई हैं या उन्होंने कर्मचारियों की छंटनी शुरू कर दी है। जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनी एचपी इंडिया द्वारा अपना प्लांट अचानक बंद कर दिया गया था।
रुद्रपुर निवासी वरिष्ठ पत्रकार रूपेश कुमार बताते हैं-
सिडकुल के शुरुआती दौर में लगभग 450 कम्पनी रजिस्टर थीं पर उसमें से लगभग 30 प्रतिशत के प्लॉट अब भी खाली हैं। अभी मात्र 150 प्लांटों में काम चल रहा है, उनमें भी अधिकतर कंपनियां बड़ी कम्पनियों की वेंडर हैं। सिडकुल से उत्तराखंड के युवाओं को रोजगार तो मिला नहीं ,ऊपर से पंतनगर यूनिवर्सिटी की हजारों एकड़ की खेती वाली भूमि भी बेकार हो गई।
अल्मोड़ा निवासी ललित नैनवाल कहते हैं-
मेरा वोट उस पार्टी के लिए है, जो उत्तराखंड से पलायन को रोक सके और कम कर सके। जो युवा पीढ़ी के दर्द को पहचान सके। उत्तराखंड में रोजगार के लिए सिडकुल और कम्पनियां बहुत हैं पर फिर भी पलायन क्यों कम नही हो पा रहा है? अपने राज्य में रोजगार होने के बावजूद भी उत्तराखंड का युवा वर्ग यहां काम नहीं करना चाहता है क्योंकि यहां कम्पनियों का मानदेय 8 से 10 हजार रुपये है, इतनी कम सैलरी में क्या हो पाता है।
आज भी उत्तराखंड के युवा वर्ग को 18-20 हजार कमाने के लिए दूसरे राज्यों को पलायन करना पड़ता है, ऐसा क्यों? क्या यहां की सरकारें यहां की कंपनियों द्वारा दिया जाने वाला मानदेय तय नहीं कर सकती हैं? अगर उत्तराखंड के सिडकुलों में 18 से 20 हजार रुपये मानदेय सरकार तय कर देती है तो उत्तराखंड से पलायन खुद कम होना शुरू हो जाएगा, आने वाली सरकार इस बारे में सोचे।
क्या है समाधान?
उत्तराखंड में बेरोजगारी के सवाल पर फिल्म और पत्रकारिता जगत से जुड़े पौड़ी निवासी गौरव नौडियाल कहते हैं-
सरकार ने रोजगार की जगह पुल बनाने और सड़कें चमकाने को प्राथमिकता में रखा। प्रदेश के सारे बजट को कंस्ट्रक्शन में डाल दिया गया। इको-टूरिज्म से प्रदेश में नौकरियां लाई जा सकती थी पर उसके लिए योजनाएं बनानी होंगी, मूलभूत ढांचे तैयार करने होंगे, वर्कशॉप के जरिए स्किल्ड लोग तैयार करने होंगे।
उत्तराखंड के केबर्स गांव में कोरोना के बाद बिगड़ी भारतीय अर्थव्यवस्था के चलते गांव के 18 से 25 साल तक के करीब 55 लड़के घर पर हैं। इनमें से कई लॉकडाउन से पहले शहरों में काम करते थे, लेकिन अब वो खाली हैं।
ग्राम प्रधान कैलाश सिंह रावत पास गांव में रोजगार पैदा करने के कुछ उपाय हैं जो रोजगार को लेकर शोर मचाने वालों को ध्यान से सुनने चाहिए।
वह कहते हैं कि,
-गांव के खाली पड़े हुए घरों को रहने लायक बनाकर 'विलेज टूरिज्म' की दिशा में बढ़ा जा सकता है।
-साइटसीइंग, बर्ड वॉचिंग और फॉरेस्ट वॉक के साथ ही परफॉर्मिंग आर्ट को आय के साधन के रूप में विकसित कर सकते हैं।
-इकॉनमी का सस्टेनेबल मॉडल तैयार करना होगा, जिससे गांव में ही रोजगार सृजित हो सके।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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