सम्पादकीय

उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव 2022: धामी के सामने मारक मिथक तोड़ने की चुनौती

Gulabi
28 Jan 2022 3:30 PM GMT
उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव 2022: धामी के सामने मारक मिथक तोड़ने की चुनौती
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उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव 2022
आसन्न विधानसभा चुनाव में उत्तराखण्ड के युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के समक्ष दो मारक मिथकों को तोड़ने की गंभीर चुनौती आन पड़ी है। मिथक तोड़ने की पहली चुनौती राज्य में एण्टी इन्कम्बेंसी के कारण सत्ताधारी दल की हार और विपक्ष की सत्ता में वापसी की है और दूसरी चुनौती स्वयं मुख्यमंत्रियों के चुनाव हारने के मिथक की है।
अब तक राज्य में हुए चार चुनावों में भाजपा और कांग्रेस बारी-बारी से सत्ता में आते रहे हैं। अगर यही मिथक नहीं टूटा तो इस बार सत्ता में कांग्रेस की बारी है। चार चुनावों में दो बार चुनाव अभियान का नेतृत्व तत्कालीन मुख्यमंत्रियों ने किया और दोनों ही बार उनकी पार्टियां भी हारीं और वे स्वयं भी हारे। मुख्यमंत्रियों को हराने वाला उत्तराखण्ड तीसरा राज्य बना था और लगातार हराने वाला देश का पहला राज्य है बना।
पहले ही चुनाव में पहले मुख्यमंत्री की हार
नवम्बर 2000 में जब उत्तराखण्ड राज्य का गठन हुआ तो नए प्रदेश की शासन व्यवस्था चलाने के लिए अंतरिम विधानसभा और अंतरिम सरकार बनाई गई। अंतरिम विधानसभा में उत्तराखण्ड से उत्तर प्रदेश विधानसभा और विधान परिषद के 30 सदस्यों को शामिल किया गया। उस समय के अंतरिम मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी 2002 का विधानसभा चुनाव कपकोट सीट से तो जीत गए मगर उनकी पार्टी चुनाव हार गई और साथ ही प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी पहले विधानसभा चुनाव में देहरादून की लक्ष्मण चौक सीट से हार गए।
भाजपा के वरिष्ठतम् नेता और पूर्व मंत्री केदारसिंह रावत ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि उस समय कोश्यारी के अलावा मुख्यमंत्री पद के समस्त दावेदार नित्यानन्द स्वामी, रमेश पोखरियाल निशंक और वह स्वयं चुनाव हार गए थे।
खण्डूड़ी चुनाव हारने वाले देश की तीरे मुख्यमंत्री
राज्य के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनी तो 2007 में हुए दूसरे विधानसभा चुनाव में भाजपा की सरकार बन गई। इस सरकार के मुख्यमंत्री भुवनचन्द्र खण्डूड़ी ने भारी मतों से धूमाकोट सीट से उप चुनाव जरूर जीता मगर वह पौड़ी गढ़वाल की कोटद्वार सीट पर कांग्रेस के सुरेन्द्र सिंह नेगी से 4,623 मतों से हार गए। उनके साथ ही भाजपा भी सरकार बनाने से चूक गई।
देश में मुख्यमंत्री रहते हुए चुनाव हारने वाले भुवनचन्द्र खण्डूड़ी तीसरे नेता थे। उनसे पहले 1971 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले की मनीराम सीट पर त्रिभुवन नारायण सिंह मुख्यमंत्री रहते हुए रामकृष्ण द्विवेदी से और 2009 में सिब्बू सोरेन मुख्यमंत्री रहते हुए झारखण्ड की तमार सीट पर गोपाल कृष्ण पतार से चुनाव हार गए थे।
अब तक राज्य में हुए चार चुनावों में भाजपा और कांग्रेस बारी-बारी से सत्ता में आते रहे हैं।
उत्तराखण्ड लगातार मुख्यमंत्री हराने वाला पहला राज्य
उत्तराखण्ड में भुवनचन्द्र खण्डूड़ी के बाद मुख्यमंत्री रहते हुए हार का सिलसिला हरीश रावत ने 2017 में जारी रखा। वह एक से नहीं बल्कि दोनों सीटों से चुनाव हार गए। उन्हें हरिद्वार ग्रामीण से भाजपा के यतीश्वरानन्द ने 12,278 मतों से तथा उधमसिंहनगर की किच्छा सीट पर राजेश शुक्ला ने 2,127 मतों से पराजित किया। इसी वर्ष गोवा के लक्ष्मीकान्त पारसेकर मुख्यमंत्री रहते हुए हारने वाले देश के पांचवें मुख्यमंत्री बने। उन्हें कांग्रेस के दयानन्द सोप्ते ने मान्द्रेम सीट पर 7,119 मतों से हराया था।
धामी के सिर अपना भी और पार्टी का भी खतरा
चूंकि उत्तराखण्ड के दूसरे विधानसभा चुनाव में पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी चुनाव ही नहीं लड़े थे। इसलिए उनकी हार का सवाल ही नहीं उठता था। लेकिन उसके बाद मुख्यमंत्री निरन्तर 2012 और 2017 में हारते रहे।
अब अगला चुनाव सिर पर है। प्रदेश की नजर उधमसिंहनगर की खटीमा सीट पर लगी हुई है। इस सीट पर मुख्यमंत्री धामी का मुकाबला कांग्रेस के भुवनचन्द्र कापड़ी पर है। इन दोनों का मुकाबला 2017 में भी इस सीट पर हो चुका था। उस चुनाव में भयंकर मोदी लहर के बावजूद भुवनचन्द्र कापड़ी केवल 2,709 मतों से हारे थे।
खटीमा में किसी की भी जीत सुनिश्चित नहीं
खटीमा सीट पर दोनों प्रतिद्वन्दी प्रत्याशियों के पक्ष और विपक्ष में समीकरण बन और बिगड़ रहे हैं। दोनों प्रतिद्वन्दियों में एक के नकारात्मक समीकरण दूसरे के लिए सकारात्मक बने हुए हैं। धामी को एण्टी इनकम्बेंसी और हार का मिथक सता रहा है तो हाल के कुछ महीनों में उन्होंने जो लगभग 400 करोड़ की योजनाओं की घोषणाएं कीं वे उनकी चुनावी संभावनाओं को बढ़ाती हैं। उनके पक्ष में उनका मुख्यमंत्री का होना भी है।
धामी का व्यवहार कुशल होना भी उनके हित में ही है। लेकिन किसान आन्दोलन और खास कर सिखों की नाराजगी उनको भारी पड़ सकती है। इसीलिए कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्य भाजपा छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हो गए थे। उनको सबसे बड़ा खतरा अपने ही दल के भीतरघातियों से हो सकता है। उनकी कम उम्र के कारण उन्हें राजनीति में लम्बी रेस का घोड़ा माना जा सकता है बशर्ते पार्टी के अन्य दावेदार धामी का यह अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न होने दें..!
किसानों और सिखों की नाराजगी के बीच आप पार्टी का प्रत्याशी धामी के लिए मददगार हो सकता है। इस सीट पर लगभग 40 प्रतिशत पहाड़ी वोटर हैं जो कि पिथौरागढ़, मुन्स्यारी, लोहाघाट, चंपावत इलाके से आकर तराई में बसे हुये हैं। जबकि शेष 60 प्रतिशत वोटर थारू, सिख, बंगाली और मुसलमान है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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