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डा. एके वर्मा।
राजनीतिक दृष्टि से देश के सबसे महत्वपूर्ण प्रांत उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव अंतिम चरण में हैं। परिणामों को लेकर सबकी उत्सुकता बढती जा रही है। इसमें संदेह नहीं कि बहुदलीय व्यवस्था के बावजूद चुनाव मुख्यत: दो गठबंधनों भाजपा-अपना दल-निषाद पार्टी यानी राजग और सपा-रालोद-सुभासपा आदि के बीच सिमट गया है। बसपा और कांग्रेस उतनी मजबूती से चुनाव नहीं लड़ पा रही हैं। सपा-रालोद अपनी रैलियों में आने वाली भीड़ और मुस्लिम समर्थन से उत्साहित रहीं, वहीं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कानून-व्यवस्था, विकास, गरीबों को दो वर्षों से मुफ्त राशन देने और विभिन्न वर्गों के लोगों के खातों में सीधे पैसे भेजने वाली योजनाओं को लेकर आत्मविश्वास से लबरेज दिखे। वैसे तो चुनाव परिणाम आने के बाद विश्लेषक अनेक कारणों को विजय और पराजय के लिए चिन्हित करते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में अधिकतर विश्लेषण जातीय गुणा-भाग और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के आधार पर करने की प्रवृत्ति रही है। जातीय ध्रुवीकरण ने प्रदेश को अस्मिता की राजनीति और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने दंगों की ओर धकेला। इन दोनों ध्रुवीकरणों का लाभ सभी दलों ने लेने की कोशिश की। इसमें आंशिक सफलता भी मिली। दिसंबर 1989 के बाद प्रदेश में लंबे समय तक बसपा और सपा की सरकारें रहीं। ध्यान देने की बात है कि 2007 में मायावती और 2012 में अखिलेश यादव ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई, पर दोनों का मत प्रतिशत 30 या उससे कम रहा।