सम्पादकीय

उत्तर प्रदेश चुनाव 2022: उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति मे अभी धुंध है..!

Rani Sahu
19 Jan 2022 12:13 PM GMT
उत्तर प्रदेश चुनाव 2022: उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति मे अभी धुंध है..!
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चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की तारीखों का एलान हो चुका है

डॉ. सीपी रॉय चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की तारीखों का एलान हो चुका है और सभी चुनावी प्रदेशों के साथ उत्तर प्रदेश का भी राजनीतिक तापमान इस कड़कडाती ठंड में बढ़ गया है। हर चुनाव की तरह इस बार भी एन मौके पर आस्थाएं दरक रही हैं और स्वार्थ को सिद्धांत या उपेक्षा के मुलम्मे में परोसा जा रहा है और घर बदल को तार्किक बनाया जा रहा है।

लंबे समय से दल-बदल बुराई और सिधान्तहीनता का नहीं बल्कि समझदारी, चालाकी और समय पर निर्णय लेने की क्षमता का प्रतीक बन चुका है। ये अलग बात है कि इन सब के नीचे दबा हुआ लोकतंत्र कराह रहा है और बनियादी मुद्दे पाताल मे पड़े हैं।
उत्तर प्रदेश के इस चुनाव मे जहां भाजपा के खाते मे तमाम वादाखिलाफी, नाकामियां, बेरोजगारी, महंगाई, कानून व्यवस्था, भ्रस्टाचार, कोरोना काल की बदहाली या योगी आदित्यनाथ का अक्खड़ स्वभाव, जनता तो दूर खुद अपने ही विधायकों से दूरी और सबकी नाराजगी तथा उनके सजातीय लोगो के वर्चस्व और कुछ अधिकारियों के हाथ मे सिमट गया सत्ता संस्थान है तो समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी के खाते में उनकी सरकारों की कुछ कड़वी यादें और उससे भी ज्यादा पिछले 5 सालों जनता के सवालों पर मुखरता का अभाव और सड़क तथा संघर्ष से दूरी है।
कांग्रेस जरूर पिछले कुछ समय से प्रियंका गांधी के नेतृत्व में जनता के बीच खास घटनाओं पर पहुची और लड़की हूं लड़ सकती हूं का नया एजेंडा दे दिया, जो आकर्षक लगा पर प्रियंका गांधी की राजनीति मे निरंतरता का अभाव और उनकी टीम का उत्तर प्रदेश की राजनीति को इवेंट के नजरिए से देखना और उनका भी उप्लब्ध नहीं होना उनकी बड़ी कमजोरी साबित हुआ है।
जब जब प्रियंका गांधी निकली राजनीति के आकाश पर चमकी पर फिर एक लंबी चुप्पी और अदृश्य हो जाना भाई-बहन दोनों को राजनीतिक रूप से अगम्भीर बनाता रहता है। उत्तर भारत की राजनीति पूर्णकालिक है और नेता को हर रोज सड़क और लोगों के बीच होना पड़ता है। इसलिए कांग्रेस से चाहे अनजाने से कुछ लोग जुड़े हों पर जाने पहचाने चेहरे या तो नदारद हैं या पलायन कर रहे हैं।
इन हालात में अब सभी दल युद्ध के मैदान मे विजयी घोड़ा साबित होने को जद्दोजहद कर रहे हैं। जहां कई प्रदेशों की हार के बाद आरएसएस और भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश चुनावी चक्रव्यूह का अंतिम और करो या मरो वाला द्वार है वहीं समाजवादी पार्टी के लिए भी पार्टी और नेता के भविष्य का निर्धारक साबित होना है।
बसपा टिकट के बेचने के आरोप के नीचे कराह रही है और बस अपनी उपस्थिति बनाए रखने तथा वोट बैंक बचाए रखने की चुनौती उसके सामने है पर अभी तक प्रत्यक्ष तौर पर उसमें धार का अभाव दिख रहा है और आत्मविश्वास से क्षीण मायावती मिश्रा जी के सहारे ब्राह्मण मतदाताओ से आस लगा कर बैठी हैं, तो लगता है कि कांग्रेस किसी दैवीय चमत्कार की आस लगाकर बैठी है जबकि 32 साल सत्ता के बाहर होने के कारण और प्रियंका गांधी का नया नेतृत्व होने के कारण इस चुनाव मे वो अश्वमेघ का घोड़ा साबित हो सकती थी। तमाम छोटे दल मोल भाव के हिसाब से पाले तय कर रहे हैं, तो आया राम गया राम ने भजन लाल की लकीर को पीछे छोड़ दिया है।
जहां तक रणनीति और रुझान का सवाल है, भाजपा ने पहले अपने आजमाए हुए ब्रहमास्त्र हिन्दू मुस्लमान और मंदिर पर ही मुख्य भरोसा अभी तक किया और साथ ही पहले कांग्रेस को निशाने पर लिया तो आगे चल कर प्रधानमंत्री से लेकर सभी नेताओं ने सपा पर हमला शुरु किया, जिसके कारण उसको खुद ही मुख्य प्रतिद्वंदी कबूल कर लिया और उसे मजबूती देने के साथ इधर-उधर जाने वाले नेताओं को भी उधर का रास्ता दिखा दिया।
दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा अपने मुख्य गढ़ उत्तर प्रदेश मे पहले तो प्रधानमंत्री सहित सभी के कार्यक्रमों के लिए अधिकारियों द्वारा पत्र जारी करने और भीड़ लाने की जुगत के कारण सवालों के घेरे मे आ गई तो लाई गई भीड़ के रुख से भी उसको धक्का लगा और एक सवाल उठा की इनके और आरएसएस के लाखों लोग कहां चले गए।
दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी ने बहुत सुरक्षित तरीका अपनाया और जहां भी कार्यक्रम रखा उस क्षेत्र के आसपास के 50/60 टिकट चाहने वालों को अपनी शक्ति दिखाने की चुनौती दे दी। परिणाम स्वरूप सभी अपनी अपनी भीड़ लेकर आए और संगठन भी अपनी उपस्थिति दर्ज करने पहुचा। सपा की सभाओं में बोलती हुई भीड़ ने एक संदेश देने का काम किया।
कांग्रेस ने पिछले दिनों जो अनजान से लोगों का एक नेटवर्क खड़ा किया था। ऐसा उनका दावा है की प्रियंका गांधी की इधर जो भी रैलियां हुईं वो उनके कारण विशाल हुईं। हां केवल महिलाओं के साथ संवाद में और मैराथन मे 10 से 20 हजार या उससे ज्यादा महिलाओं और लड़कियों की उपस्थिति निश्चिंत ही राजनीतिक पंडितों को भी चौंकाने वाली है तो बसपा अभी शायद किसी मुहूर्त का इन्तजार कर रही है।
इधर स्वामी प्रसाद मौर्य और काफी विधायकों और नेताओं का लगातार भाजपा, कांग्रेस और बसपा से सपा की तरफ जाना निश्चित ही एक खास सन्देश का वाहक बनता है तो सपा बसपा और कांग्रेस से लोगों का भाजपा की तरफ जाना भी सवाल पैदा करता है।
जहां पश्चिमी जिलों मे किसान आन्दोलन से उपजी परिस्थितियों पर राजनीति निगाह रख रही हैं और वोटों की करवट को परख रही हैं। वही पहले ठाकुर बनाम ब्राह्मण से शुरु किया गया खेल बड़ी जाति बनाम पिछडी बनाने की कश्मकश जारी है। जहां नोएडा गाजियाबाद मेरठ से लेकर अलीगढ हाथरस और आगरा तक भाजपा भारी दिखती है, तो सहारनपुर से लेकर रामपुर मुरादाबाद बदायू इत्यादि मे सपा दिखती है।
बीच मे कहीं कहीं बसपा भी खडी दिखेगी। आगे मैनपुरी से लेकर कानपुर देहात तक फिर बाराबंकी से लेकर आज़मगढ़ तक सपा मजबूत दिखती है तो इलाहबाद बनारस सहित कई जिले भाजपा के साथ आज भी खडे दिखते हैं। बुंदेलखंड में अभी तक भाजपा कुछ बढत पर दिखती है। पूरे प्रदेश में प्रत्यक्ष रूप से तो भाजपा और सपा की कांटे की टक्कर है और बाकी लोग भी अपनी जगह बनाने की जद्दोजहद में हैं।
बनिया पंजाबी और सिन्धी ही कभी भाजपा का मूल आधार थे पर मंदिर आन्दोलन के बाद कांग्रेस के नेपथ्य मे जाने के बाद जहां बड़ी जातियों मे भाजपा की तरफ रुख किया, तो धर्म के लिए कष्ट सहने वाले पिछड़ों और दलितों ने भी उधर का रुख किया। गोविंदाचार्य के फॉर्मूले पर भाजपा ने उस जातियों पर विशेष ध्यान दिया जिनको राजनीति मे कोई पूछता नहीं था पर थोड़ी-थोड़ी होने के बावजूद उनकी संख्या विधान सभा क्षेत्र मे 15 से 20 हजार या उससे ज्यादा होती है और यही अति पिछड़े तथा अति दलित भाजपा की ताकत बन गए।
यद्दपि 2014 , 17 और 19 के चुनाव मे यादव सहित ऐसी पिछडी और दलित जातियां भी हिन्दूवाद के झूले पर कम या अधिक झुली तभी भाजपा का वोट भी बढ़ा और सदन मे संख्या में। दूसरी तरह अन्य दलों को भी बार-बार सरकार बनाने का मौका मिला पर वो अपना और अपने तक सीमित हो गए।
अगर सत्ता मे रहने के दौरान अन्य पिछड़ों और दलितों को भी इन नेताओं ने बराबरी का एहसास करवाया होता और सामान अवसर दिया होता तो भाजपा अपना अस्तित्व तलाश रही होती और ये पिछड़े तथा दलित नेता अजेय हो गए होते। इस बार अंतिम समय में ही सही सपा ने अन्य पिछड़े को भी संदेश देने का प्रयास किया है और भाजपा भी उसे अपने साथ रखने के प्रयास में है।
माना जाता है राजनीति में कम से प्रमुख ढाई जाती आप के साथ है तभी आप लडाई मे रह सकते हैं और जब तक कम या ज्यादा करीब करीब सभी जातियों का थोडा बहुत वोट नहीं मिलेगा तब तक किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिल सकता है।
अब युद्ध का मैदान सजा है और सभी पक्ष अपने अपने राजनीतिक हथियारों के साथ मैदान में हैं। एक हथियार को चलते देख उसे अंतिम मान लेना उचित नहीं होगा क्योंकि दोनों पक्ष कोई दांव पेंच नहीं छोडने वाले हैं और सभी ने कुछ अस्त्र बचा कर रखे हैं समय पर प्रयोग करने को। अगर जानकारी सही है तो बसपा से प्रमुख लोगों का सपा की तरफ जाना अभी रोका गया है तो सपा से भाजपा की वैतरणी मे भी कुछ लोग डुबकी लगा सकते हैं जबकि बाकी दल अभी एक्स्ट्रा खिलाड़ी की तरह इन्तजार कर रहे हैं।
एक बात तय है कि आज की तारीख तक जाड़े के कोहरे की चादर उत्तर प्रदेश की राजनीति के भविष्य को और आगे के दृश्य को ढके हुए है परंतु जनवरी के अन्त मे कोहरा छटने लगेगा और 10 मार्च को तो सब कुछ आसमान पर लिख गया होगा।
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