सम्पादकीय

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव: देश का सबसे ताकतवर सूबा जीतना हलवा नहीं है

Gulabi
25 Aug 2021 11:06 AM GMT
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव: देश का सबसे ताकतवर सूबा जीतना हलवा नहीं है
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उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में ऊपर से सब कुछ शांत है, लेकिन अंदरखाने बेचैनी बहुत है

शंभूनाथ शुक्ल।

उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में ऊपर से सब कुछ शांत है, लेकिन अंदरखाने बेचैनी बहुत है. पब्लिक में भी और नेताओं में भी. हर राजनीतिक दल अपने तरकश से बाण निकाल रहा हैं. कोई मुसलमानों को साधने के प्रयास में है तो कोई ब्राह्मणों के. समाजवादी पार्टी (SP) और बहुजन समाज पार्टी (BSP) को लगता है कि उनके नेता की जाति का वोट तो उनके पास जमा ही है बस कुछ और मिल जाए तो बस गद्दी अपनी. इसी कुछ और के लिए सब दल जुटे हुए हैं. समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश को भरोसा है कि यादव समेत सारा ओबीसी उनके साथ है और बीएसपी सुप्रीमो को जाटव समेत सारे दलित वोटों पर विश्वास है. इन लोगों को लगता है कि बस मुस्लिम और ब्राह्मण वोट इनके पाले में आ जाएं तो जीत पक्की. उधर भारतीय जनता पार्टी को जातियों से ऊपर समस्त हिंदू वोटों की उम्मीद है. समस्त हिंदू वोट जाति में न बंटने पाएं इसके लिए बीजेपी अपने दांव चल रही है.


धर्म सदैव जाति पर भारी पड़ता है, क्योंकि जाति एक छोटे समुदाय को जोड़ती है जबकि धर्म एक विस्तृत समाज को. जाति क्षेत्र के हिसाब से बदल जाती है. एक जाति किसी क्षेत्र में पिछड़ी (Backward) है तो किसी में अगड़ी (Farward). इसके विपरीत धर्म (Religion) सर्वत्र एक समान रहता है. यही वजह है कि धार्मिक सेंटीमेंट्स (Sentiments) जातीय भावनाओं पर भारी पड़ते हैं. धर्म है इसीलिए जाति है, बिरादरी है और अपनापा है. बीजेपी (BJP) अपने इस मुद्दे पर भारी पड़ती दिख रही है. ख़ुद को सेकुलर और धर्म-निरपेक्ष कहने वाली राजनीतिक पार्टियां भी समय-समय पर धार्मिक कर्मकांड करती हैं या उसका दिखावा करती रहती हैं.

अखिलेश यादव हों या मायावती दोनों लोग अयोध्या के मामले में चुप रहते हैं. बल्कि अखिलेश ने तो यहां तक कहा है कि अयोध्या में राम मंदिर बनते ही वे सपरिवार पूजा करने जाएंगे. आख़िर वे भी हिंदू हैं. उन्होंने सहज भाव से यह बात कही लेकिन बीजेपी को पत्ता दे दिया. योगी आदित्यनाथ अब शेर हो गए हैं. उनका कहना है फिर उनके पिता ने कार सेवकों पर गोली क्यों चलाई? ये सब दांव-पेच बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में राजनीति की गली अति संकरी है. जो निकल जाए वही असली शेर साबित होगा.

वोटर एक बड़ा अंब्रेला चाहता है
पिछले कुछ चुनाव बताते हैं कि ना सिर्फ़ यूपी बल्कि पूरे देश में मतदाता अब बड़ी सामाजिक छतरी चाहता है. क्योंकि वही उसे सुरक्षा का बोध कराती है. सबसे पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में यह बात तो साफ तौर पर देखने को मिली थी और वह कि लगभग सभी जगह मतदाताओं ने वोट करते समय जाति की सीमाओं को नहीं माना. पूरे देश में चुनाव एक व्यक्ति के नाम पर लड़ा गया और वोट भी उसी के नाम पर मिला. यह अब तक के भारतीय मतदान का सबसे विहंगम समय था जब न लोकल प्रत्याशी था न मुद्दे थे और न ही सजातीय उम्मीदवार को वोट देने की इच्छा था तो बस एक ही वायदा और एक ही नारा. अच्छे दिन लाने का वायदा और सबका विकास करने का नारा. इस एक चुनाव ने अब तक के सारे मिथक तोड़ डाले थे और उसका असर आगे होने वाले चुनावों पर भी पड़ा.

शांतिपूर्ण चुनाव हो जाना चमत्कार से कम नहीं
भारत जैसे देश में, जहां मतदाता विभिन्न भाषा, बोलियों, धार्मिक, जातीय व नस्लीय पहचान में तो बंटा ही हुआ है साथ में अलग-अलग आय समूह से आता है, चुनाव निर्विघ्न संपन्न कराना आसान नहीं है. यह एक तरह का चमत्कार ही है कि भारत में हर साल लगभग कहीं ना कहीं चुनाव होते हैं और आमतौर पर चुनाव शांतिपूर्ण माहौल में ही संपन्न होते हैं. यह सही है इसके लिए चुनाव आयोग को भारी पुलिस बल तैनात करना पड़ता है और मतदान कई-कई चरणों में संपन्न कराना पड़ता है लेकिन यह भी सही है कि भारतीय मतदाता की अपनी जागरूकता भी इसकी एक बड़ी वजह है.

भारत में मतदाता मतदान के वक्त आमतौर पर जातीय व सांप्रदायिक समीकरणों को ध्वस्त कर देता है. एक उदाहरण काफी होगा. आज से 69 साल पहले 1952 के आम चुनाव में हालांकि जाति प्रभावी नहीं थी और धर्म के आधार पर वोट नहीं बटे थे. मगर 15 साल बाद 1967 में सारे समीकरण बिखर गए और मतदाता जातीय व धार्मिक आधार पर बंटने लगे. तब सिर्फ जाति के आधार पर वोट पड़े और अलग-अलग रंग लोकसभा में तो दिखे ही विधानसभाओं में मिलीजुली सरकारें बनीं जिनकी उम्र इतनी कम रही कि कुछ ही महीनों बाद राज्य सरकारें धड़ाधड़ गिरने लगीं.

ज़मींदारों के चंगुल से मुक्त हुए किसानों की महत्त्वाकांक्षा
यह शायद पहला चुनाव था जिसने कांग्रेस के परंपरागत समीकरण को तोड़ा था. कांग्रेस के झंडे तले वोट दे आने वाला वोटर अब नए नेता और पार्टी तलाश रहा था. यह भारत का किसान मतदाता था जिसे कांग्रेस की शहरीकरण की नीतियां रास नहीं आ रही थीं. वह अपने अंदर से नेतृत्व पैदा करना चाहता था. यह वह किसान था जो ज़मींदारी उन्मूलन के बाद ज़मींदारों के चंगुल से मुक्त हुआ था. एक तरह से यह ज़मींदारों का टेनेंट था. चूंकि आज़ादी के पहले अधिकांश जगह ज़मींदार अगड़ी जातियों के लोग थे और उनके टेनेंट पिछड़ी या मध्यवर्ती जातियों के किसान थे.

जब ज़मींदारी गई तो मध्यवर्ती किसान जातियों के इन टेनेंट्स को ज़मीन मिल गई और धीरे-धीरे ये संपन्न होने लगे थे. इसीलिए पूरे उत्तर भारत में संविद सरकारें बनीं जिनके पीछे कहीं न कहीं कांग्रेस के ही ग्रामीण नेताओं का विद्रोह था और वे उन जातियों से पनपा था जो अब सत्ता में बराबरी चाहती थीं. उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह और बिहार में कर्पूरी ठाकुर इसी नई सोच की उपज थे.

कांग्रेस का दांव फिर उलट गया
मगर कांग्रेस ने जिस तरह से अगले ही चुनाव में गरीबी हटाओ का नारा लगाया गांवों में उभर कर आईं इन मध्यवर्ती जातियों का उफान धरा का धरा रह गया. क्योंकि कांग्रेस ने अपने इस नारे से शहरी गरीब और गांवों के गरीब को पकड़ा. यह नारा कांग्रेस के परंपरागत समीकरण से मेल खाता था. शहर में गरीब ब्राह्मण जातियां थीं और गांव में इसके दायरे में दलित आ गए. मुसलमानों के लिए कांग्रेस का ही सहारा था इसलिए मध्यवर्ती जातियां फिर गच्चा खा गईं. इसके अलावा प्रीवीपर्स को खत्म कर कांग्रेस ने एक दांव और चला. सामंती जातियों की रीढ़ तोड़ दी.

नतीजा यह हुआ कि गांव और कस्बों में धाक जमाए सामंत प्रीवीपर्स खत्म हो जाने के कारण अपना रोजगार तलाशने लगे और राजनीति से लगभग संन्यास ले लिया. इससे ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले नेता धराशायी हो गए. पर कांग्रेस सरकार द्वारा बैंकों का राष्ट्रीयकरण किए जाने की वजह से गांवों में पिछड़ी जातियों को सबसे अधिक लाभ हुआ. कृषि में आधुनिक बीजों और नई किस्म की खादों के कारण उपज बढ़ी जिसका लाभ किसान जातियों को मिला तब उनके अंदर फिर से राज करने की इच्छा जागी. दूसरी तरफ कांग्रेस की सरकारों ने अपने भ्रष्ट आचरण और दमनकारी नीतियों से अपनी साख गिरा ली. 1973 के विधानसभा चुनावों से लगने लगा था कि शायद केंद्र में कांग्रेस का लौटना अब मुश्किल होगा.

कांग्रेस इस नए बदलाव को समझने की बजाय और आक्रामक हो गई तथा 1975 में उसने देश में आपात्काल लगा दिया. इस का खामियाजा कांग्रेस को ही भुगतना पड़ा. कांग्रेस का मतदाताओं के प्रति व्यामोह एकदम से समाप्त हो गया और जाति व धर्म की उसकी राजनीति सिफर हो गई. यह एक चौंकाने वाला नतीजा था कि आपातकाल के बाद जैसे ही 1977 में लोकसभा के चुनाव हुए कांग्रेस बिहार से लेकर दिल्ली तक साफ हो गई. मतदाता के समक्ष न शहरीकरण था न जातिगत समीकरण और न ही धर्म का गणित. सबने एक सुर से कांग्रेस के विरोध मे मत डाला. भले वह जनता पार्टी की नीति को नहीं समझता हो पर मतदाता के समक्ष असली लक्ष्य कांग्रेस को हटाना था.

कांग्रेस फिर भी बची
लेकिन कांग्रेस साफ़ नहीं हुई, 1980 में वह फिर लौटी. ना सिर्फ़ केंद्र में बल्कि देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में भी. इसके बाद कांग्रेस 1984 में आई तो मगर एक भावनात्मक और साम्प्रदायिक उफान के सहारे. इंदिरा गांधी की हत्या ने परिदृश्य बदल दिया था. किंतु कांग्रेस के अंदर का परिवारवाद उसे खा गया. राजीव गांधी ने अनजाने में ही सही हिंदू और मुस्लिम कट्टरपंथ को बढ़ावा दिया. वीपी सिंह ने हिंदू साम्प्रदायिक उभार को दबाने के लिए मंडल के ज़रिए विशाल हिंदू समाज को जाति में बांटा तो आडवाणी ने राम रथ यात्रा निकाल कर पहली बार हिंदू समाज को बहुसंख्यक होने का आभास कराया. इसके बाद कांग्रेस का पतन शुरू हुआ. यूपी और बिहार से वह साफ़ हो गई. मंडल जातियों ने कांग्रेस के ब्राह्मण, मुसलमान और दलित वोट को छिन्न-भिन्न कर दिया. अलबत्ता इस बीच दो बार 1991 और 2017 में बीजेपी हिंदू समाज को एक करने में सफल रही. दोनों बार उसे बहुमत मिला.

दारोमदार ब्राह्मणों पर
अब 2022 का विधान सभा चुनाव निकट है. अग्निपरीक्षा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भी है तो समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव की भी और बीएसपी की मायावती को भी अपनी ताक़त दिखानी होगी. उत्तर प्रदेश में न एसपी अपने यादव वोट बैंक तथा मुसलमान वोटों के सहारे यूपी फ़तेह कर सकती है ना बीएसपी दलितों व मुस्लिमों के सहारे. इसलिए ये सब अगड़ों में किसी एक को अपने साथ लाने के लिए जुटे हैं. वैश्य और राजपूत वोट बीजेपी के साथ पूरी ताक़त से है इसलिए दारोमदार ब्राह्मणों पर है. ब्राह्मण अपने चातुर्य से और लोगों को अपने प्रभाव में ला सकता है. लेकिन अभी तो ब्राह्मण राम मंदिर में मगन है.
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