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नेताओं में सफलता पाने वालों का प्रतिशत बहुत ज्यादा नहीं रहा है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, तो सपा एवं बसपा के लिए जीने-मरने तथा कांग्रेस के लिए प्रदेश में अस्तित्व का प्रश्न है। मगर कई प्रदेशों की तरह उत्तर प्रदेश भी विपक्ष के लिए निराशाजनक तस्वीर ही पेश कर रहा है। भले ही सारे विपक्षी दल मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उनकी सरकार तथा मोदी सरकार की आलोचना करते हों, पर धरातल पर वे एक-दूसरे को धक्का देते हुए ज्यादा दिखते हैं।
मसलन, अखिलेश यादव ने अभी बसपा के छह वर्तमान विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल किया है। इससे पहले उन्होंने बसपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे आर एस कुशवाहा को पार्टी में शामिल कराया। इसके बाद वह अचल राजभर और लालजी वर्मा जैसे वरिष्ठ नेताओं को पार्टी में लेकर आए। एक समय मायावती के करीबी रहे वीर सिंह और दो बार के बसपा विधायक उदय भौर भी सपा में आ गए। बसपा से मुजफ्फरनगर के पूर्व सांसद कादिर राणा अखिलेश के साथ आ गए।
ये वे बड़े नेता हैं, जिनके नाम राष्ट्रीय मीडिया में आ गए। स्थानीय खबरों पर नजर दौड़ाएं, तो अनेक जिलों में बसपा के स्थानीय नेता, कार्यकर्ता सपा में जा रहे हैं। अखिलेश यादव ने अपनी पार्टी में एक नई विंग बाबा साहेब वाहिनी गठित की है। बसपा से आए मिठाई लाल भारती को इसका राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया है। मिठाई लाल बसपा के पूर्वांचल के कोआर्डिनेटर भी रह चुके हैं।
सपा की रणनीति यही दिखाई पड़ती है कि यादव और मुसलमानों का मत पाने को लेकर वह आश्वस्त है। मुसलमान ओवैसी के साथ जाएंगे, ऐसा उसे विश्वास नहीं है, क्योंकि वे अगर भाजपा को हराना चाहते हैं, तो उनके पास ठोस विकल्प सपा ही है। सपा के रणनीतिकारों को लगता है कि इसमें यदि दलित तथा कुछ सवर्ण जुड़ जाएं, तो पार्टी फिर सत्ता में आ सकती है।
इसी को ध्यान रखते हुए उन्होंने संभवतः बसपा को नुकसान पहुंचाने की रणनीति अपनाई है। बाबा साहेब वाहिनी के द्वारा उन्होंने दलितों के बीच संदेश देने की कोशिश की है कि सपा के अंदर ही वास्तव में बसपा की वैचारिक इकाई खड़ी हो गई है। वह यह भी कह रहे हैं कि डॉ. राम मनोहर लोहिया और बाबा साहेब आंबेडकर मिलकर काम करना चाहते थे, हम आज उनके सपनों को पूरा कर रहे हैं।
सामान्य दलितों और बसपा समर्थकों के बीच इसका क्या संदेश जाएगा, यह कहना मुश्किल है। इतना जरूर कहा जा सकता है कि आने वाले समय में सपा बनाम बसपा के बीच संघर्ष के स्वर ज्यादा तीखे होंगे। मायावती ने सपा और अखिलेश यादव के इस रवैये की आलोचना की है। मायावती यह मानकर चलती हैं कि उनके जनाधार में कोई सेंध नहीं लगा सकता।
हालांकि 2014 एवं 2017 में उनका यह विश्वास गलत साबित हुआ। भाजपा को आम दलितों और यहां तक कि बसपा समर्थकों के भी वोट मिले। 2019 में भी सपा गठबंधन के कारण उन्हें हल्की कामयाबी जरूर मिली, पर भाजपा ने फिर भी उनके परंपरागत वोट पाने में कामयाबी पाई। तो मायावती चाहे जितना आत्मविश्वास प्रदर्शित करें, उनके लिए अखिलेश का रवैया चिंता का विषय अवश्य होगा।
सपा ने कांग्रेस को भी क्षति पहुंचाने की कोशिश की है। इधर प्रियंका वाड्रा ने लखनऊ में कांग्रेस की चुनावी रणनीति का ऐलान करते हुए चालीस प्रतिशत सीटें महिलाओं को देने का वादा किया। दूसरी ओर उनके विश्वस्त पूर्व सांसद हरेंद्र मलिक तथा उनके पुत्र पूर्व विधायक पंकज मलिक ने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। अखिलेश ने बाद में उन्हें अपनी पार्टी में शामिल कर लिया। यह कांग्रेस के लिए बहुत बड़ा झटका है।
प्रदेश में हो रहे ये सारे घटनाक्रम दिखाते हैं कि भाजपा के सामने विपक्ष की कोई एक सशक्त चुनौती नहीं है। भाजपा में माहौल यह है कि जब 2017 में अखिलेश और राहुल गांधी मिलकर भी उसे सत्ता में आने से नहीं रोक सके तथा 2019 में बसपा और सपा का गठबंधन लोकसभा में उन्हें पर्याप्त सीट पाने के रास्ते की बाधा नहीं बना, तो अब अलग-अलग लड़कर उन्हें सत्ता में आने से वे वंचित नहीं कर सकते। वैसे भी भारतीय राजनीति में पाला बदलने वाले नेताओं में सफलता पाने वालों का प्रतिशत बहुत ज्यादा नहीं रहा है।
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