सम्पादकीय

Uttar Pradesh Assembly Elections 2022: उत्तर प्रदेश के रण में सियासी पहलवान कौन!

Gulabi
24 Dec 2021 6:18 AM GMT
Uttar Pradesh Assembly Elections 2022: उत्तर प्रदेश के रण में सियासी पहलवान कौन!
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उत्तर प्रदेश के रण में सियासी पहलवान कौन!
उत्तर प्रदेश में चुनावी रण (Uttar Pradesh Assembly Elections) की तैयारी ज़ोरों पर है. एक तरफ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ (CM Yogi Adityanath) की जोड़ी है तो दूसरी तरफ़ एसपी मुखिया अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) सदल-बल जुटे हैं. हालांकि अभी चुनावों की घोषणा नहीं हुई है, लेकिन फ़रवरी तक हर हाल में चुनाव संपन्न हो जाएंगे. क्योंकि मुख्यमंत्री का कार्यकाल 18 मार्च तक ही मान्य है. दोनों तरफ़ से प्रचार, जातीय गठजोड़ और परस्पर वायरल युद्ध चल रहा है. एसपी प्रमुख उत्तर प्रदेश में पुलिसिया उत्पीड़न की फ़ोटो वायरल कर रहे हैं, तो योगी बता रहे हैं कि 2017 के पहले प्रदेश में गुंडागर्दी, लूट और अराजकता का साम्राज्य था. पब्लिक का मूड भांपने में कोई भी अभी सफल नहीं कहा जा सकता.
इसमें कोई शक नहीं कि तमाम अराजकताओं और नाकामियों के बाद भी अधिकांश लोग मानते हैं, कि एसपी राज में गुंडागर्दी अधिक थी. ग़ैर यादव पिछड़ी जातियां (OBC) भी इस अराजकता के किस्से सुनाती हैं. दिक़्क़त यह है कि आज भी रिपोर्टिंग करते समय पत्रकार स्थानीय दबंग जातियों से ही बातचीत कर छुट्टी पा लेती हैं. जैसे वेस्ट यूपी का दौरा करने वाले पत्रकार सिर्फ़ जाट, त्यागी या गूजरों से बातचीत कर लेंगे और निष्कर्ष निकाल लेंगे. कभी ये लोग चुनावी फ़िज़ां को तय करते थे. उस समय अन्य पिछड़ी जातियां वोट नहीं डाल पाती थीं. लेकिन अब दृष्य बदल चुका है. ये जातियां प्रभावशाली भले हों, लेकिन निर्णायक भूमिका में नहीं हैं. अब दलित भी खूब बढ़-चढ़ कर वोट करते हैं.
बिरादरी के हीरो का मिथ ख़त्म हुआ
इसी तरह मध्य उत्तर प्रदेश और पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी क्रमशः यादवों और कुर्मियों तथा राजपूतों, ब्राह्मणों और भूमिहारों का पहले जैसा प्रभाव नहीं रहा. ये जातियां अब किसी तरह की जातीय गोलबंदी नहीं कर सकतीं. सिर्फ़ मुसलमानों को छोड़ कर कोई भी जाति या समुदाय एकमुश्त किसी विशेष राजनीतिक दल को वोट नहीं करती. यहां तक कि बीएसपी (BSP) का 20 पर्सेंट दलित भी किधर जाएगा, कुछ नहीं कहा जा सकता. जातियों का यह ट्रेंड अब सब जगह दिखने लगा है. 2007 और 2012 में क्रमशः बीएसपी और एसपी इसलिए जीतीं क्योंकि दलित और यादवों ने एकजुट होकर वोट दिया था और ब्राह्मण व मुस्लिम वोट भी अपनी-अपनी सुविधा से अपने-अपने पाले में गए. लेकिन 2017 में बीजेपी ने हिंदू अस्मिता को इतना उछाला था कि हिंदू पहली बार एक समुदाय बन गया. यानि लड़ाई हिंदू बनाम मुस्लिम बन गई.
जातीय गठजोड़ अब गुजरे जमाने की बातें
ऐसी स्थिति में यह आकलन कर लेना कि इतने दलित और इतने यादव तथा इतने मुस्लिम हमारे साथ आ गए तो जीत पक्की. यही खामख्याली राजनीतिक महारथियों को कनफ़्यूज कर रही है. सच तो यह है कि पूरा यादव समाज अकेले एसपी के साथ जाएगा, सोचना ही ग़लत आकलन है. यह सच है कि भारत में लोग अपनी जाति के नेता को अपना हीरो समझते हैं, लेकिन जैसे-जैसे एक खाता-पीटा मिडिल क्लास पनपता है, वैसे ही जाति के किसी दबंग व्यक्ति को अपना नायक मान लेने का मिथ भी टूटने लगता है. अब तो एटा, फ़िरोज़ाबाद, मैनपुरी, फ़र्रुख़ाबाद, कन्नौज और इटावा में भी एसपी यादवों की पसंदीदा पार्टी नहीं रही, ना राजपूतों में योगी का नाम कोई सिहरन पैदा करती है. इसी तरह मायावती भी सभी जाटवों या उसके समकक्ष किसी जाति की अकेली नेता होने का दावा नहीं कर सकतीं.
बढ़ती मुस्लिम आबादी से हिंदुओं में भय
दरअसल मुस्लिमों का किसी एक क्षेत्र में बढ़ता असर हिंदुओं के मन में भय पैदा कर रहा है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की दिक़्क़त यह है, कि 2013 की साम्प्रदायिक हिंसा के बाद यहां के मुस्लिम गांव छोड़ कर शहरों और क़स्बों में शिफ़्ट कर गए हैं. ख़ासकर कैराना में उनकी आबादी 90 प्रतिशत के क़रीब है. जिस कैराना में कभी संगीत की लहरियां गूंजती थीं और गन्ने की मिठास व्याप्त थी, जो कभी गुड़ की मंडी हुआ करता था, वही कैराना आज हिंदू-मुस्लिम राजनीति का केंद्र बन गया है. कट्टर से कट्टर धर्मनिरपेक्ष सोच वाला हिंदू भी यहां डरा हुआ रहता है और मुस्लिम अपनी चला लेता है. इसे समझना हो तो यहां के प्रेस क्लब में बैठिए और ख़ुद को ईसाई बताइए, पता चल जाएगा.
यह अकेले कैराना का हाल नहीं है. मेरठ शहर से कुल 15 किमी की दूरी पर स्थित सरधना की स्थिति और भी विकट है. यहां हिंदुओं की सभी जातियां धीरे-धीरे शिफ़्ट कर रही हैं. क्योंकि एकजुट होती मुस्लिम आबादी, ख़ासकर कसाई समुदाय का असर उनमें भय पैदा करता है. बीजेपी के संगीत सोम इसी भय की राजनीति के चलते जीत जाते हैं.
बंटवारा साफ़ दिखता है
बदायूं ज़िले की सहसवान विधानसभा सीट में यादव सबसे अधिक हैं, इसीलिए 2017 में यहां बीजेपी चौथे नम्बर पर रही थी और एसपी के ओंकार वर्मा जीते थे. किंतु यहां के भी यादव बताते हैं, कि जिन गांवों या क़स्बों में मुस्लिम अधिक हैं वहां यादव वोट बीजेपी को जाएगा. और यह कोई अकेले सहसवान का हाल नहीं है. अमरोहा, बिजनौर, नजीबाबाद जैसे क़स्बों का भी यही हाल है. यह स्थिति पहले भी थी किंतु तब बीजेपी अपना सामर्थ्य नहीं दिखा सकी थी. खेकड़ा, बागपत, बड़ौत, शामली होते हुए सहारन पुर जाएं तो जहां कभी हिंदू-मुस्लिम आबादी के रहन-सहन और खान-पान में कोई भेद नहीं दिखा करता था, वहां अब दोनों के बीच स्पष्ट दरार दिखती है. हाल के किसान आंदोलन ने इस दरार को भरने के प्रयास किए हैं, लेकिन आंदोलन उठते ही वहां फिर से वही हाल हो गया है.
आरएलडी को ज़मीन पर जाना होगा
एक और बात है कि मेरठ, सहारनपुर और आगरा व अलीगढ़ मंडलों में जाटों पर आरएलडी के चौधरी जयंत का असर तो है, लेकिन यह सिर्फ़ इसलिए कि वे चौधरी चरण सिंह के पोते हैं. उनका निजी प्रभाव कोई ख़ास असरकारी नहीं है और युवकों में वे अपने नेतृत्त्व की धाक नहीं छोड़ पाये हैं. न जाटों का युवा वर्ग उनके नेतृत्त्व से वैसा प्रभावित है जैसा कि यादव युवा अखिलेश से है. संभव है, इसके पीछे अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव का ज़मीनी जुड़ाव और अपने क्षेत्र व गांव के प्रति उनका लगाव तथा उनके चाचाओं का भी असर रहा हो लेकिन, इसमें कोई शक नहीं कि अखिलेश यादव आज भी अपनी बिरादरी के हर कोने में लोकप्रिय हैं और मुसलमान भी उनके साथ हैं. यही बातें अखिलेश को मज़बूत करती हैं और कमजोर भी. जहां यादव आबादी मुसलमानों से अधिक है, वहां तो वह एसपी के साथ रहेगा और जहां उसकी आबादी मुस्लिम आबादी से कम है, वहां वह अपनी सुरक्षा बीजेपी में देखता है.
जो जीतेगा, वही सिकंदर होगा
2022 के विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी बात यह नज़र आ रही है, कि हर पार्टी का कट्टर समर्थक, अपनी पार्टी की जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है. उसे लगता है, शायद प्रतिद्वंदी पार्टी ही जीते. क्योंकि पहली बार लड़ाई ऐसी होने जा रही है, जब आमने-सामने दो ही दल हैं. या तो बीजेपी है या एसपी. पहली बार स्थिति यह बनती जा रही है कि कांग्रेस इतने प्रचार के बावजूद अभी तक शून्य से ऊपर नहीं उठ पा रही है और बीएसपी इतने सम्मेलनों के बावजूद चुनाव लड़ने के प्रति उदासीन है. ओवैसी का मुसलमानों पर कोई ख़ास असर नहीं है. उनका महत्त्व एक वोटकटवा से अधिक नहीं है. यही सब बातें सभी को उलझा रही हैं. हर पार्टी के भक्त भी संशय में हैं और उनके भगवान भी.
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