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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Assembly Elections) में इन दिनों केंद्र बिंदु निषाद समुदाय (Nishad Community) के लोग हैं
संयम श्रीवास्तव उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Assembly Elections) में इन दिनों केंद्र बिंदु निषाद समुदाय (Nishad Community) के लोग हैं. इन्हीं के सहारे अब उत्तर प्रदेश में मौजूदा सरकार चला रही भारतीय जनता पार्टी फिर से सत्ता में वापसी की कोशिश कर रही है. निषादों की भूमिका उत्तर प्रदेश की सियासत में कितनी ज्यादा है इसका अनुमान आप इसी बात से लगा सकते हैं कि कुछ महीने पहले तक यूपी में निषाद पार्टी को पटाने के लिए यूपी में सत्ता पक्ष और विपक्ष किस तरह छटपटा रहे थे.
निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद बीजेपी के लिए बेहद खास हैं, इसीलिए जब-जब वह बीच में नाराज होते रहे तो बीजेपी नेताओं ने उन्हें किसी भी तरह से अपने गठबंधन में रोके रखा. क्योंकि उन्हें पता है कि अगर 2022 के विधानसभा चुनाव को जीतना है तो इस समुदाय का साथ रहना बेहद जरूरी है. कुछ महीने पहले तक, जब ओमप्रकाश राजभर उत्तर प्रदेश में भागीदारी संकल्प मोर्चा बना रहे थे तब वह पूरी कोशिश कर रहे थे कि निषाद पार्टी के मुखिया संजय निषाद किसी भी तरह से उनके इस मोर्चे में शामिल हो जाएं. क्योंकि ओपी राजभर को पता था कि अगर निषाद पार्टी के मुखिया संजय निषाद उनके भागीदारी संकल्प मोर्चा में शामिल हो जाते हैं तो उत्तर प्रदेश की सियासत में उनकी धमक और बढ़ जाएगी. हालांकि अब भागीदारी संकल्प मोर्चा बचा ही नहीं है, क्योंकि ओमप्रकाश राजभर ने अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर लिया है और उनके साथ मिलकर उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं.
यूपी के करीब 5 दर्जन विधानसभा सीटों पर प्रभाव
निषाद समुदाय का दावा है कि केवट, बिंद, मल्लाह, कश्यप, नोनिया, मांझी और गोंड की आबादी उत्तर प्रदेश में लगभग 18 फ़ीसदी है. ये जातियां उत्तर प्रदेश की करीब 5 दर्जन विधानसभा सीटों पर प्रभाव रखती है. संजय निषाद की निषाद पार्टी इसी समुदाय पर अपनी पकड़ रखती है और इसी समुदाय कि सियासत की वजह से आज उनकी उत्तर प्रदेश में इतनी पूछ है. गोरखपुर, गाजीपुर, बलिया, संत कबीर नगर, मऊ, मिर्जापुर, भदोही, वाराणसी, इलाहाबाद, फतेहपुर, सहारनपुर और हमीरपुर जैसे जिलों में निषाद मतदाताओं की संख्या बहुतायत में है और बीजेपी को इन्हीं जिलों में इस समुदाय का ज्यादा समर्थन भी चाहिए.
2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजे देखें तो बीजेपी इन जिलों से अच्छे मार्जिन में सीटें निकाल कर लाई थी. हालांकि उस वक्त बीजेपी के साथ राजभर समुदाय का समर्थन भी था. लेकिन इस बार ओमप्रकाश राजभर अखिलेश यादव के साथ चले गए हैं, ऐसे में बीजेपी की मुश्किलें इन जिलों में बढ़ गई हैं. इसीलिए बीजेपी किसी भी कीमत पर उत्तर प्रदेश में निषाद समुदाय का समर्थन अपने पास से जाने नहीं देना चाहती.
पोस्टरों पर मिल रहा है बराबर का दर्जा
ऐसा बहुत कम देखा जाता है कि कोई राष्ट्रीय पार्टी किसी क्षेत्रीय दल को अपने राजनीतिक पोस्टरों पर बराबर का दर्जा दे. खासतौर से तब जब वह पार्टी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में काबिज हो. लेकिन शुक्रवार को जब उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में बीजेपी और निषाद पार्टी की संयुक्त रैली का आयोजन हुआ तो इसके पोस्टरों में जो सबसे खास बात दिखी, वह यह थी कि एक तरफ जहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और अमित शाह जैसे बड़े नेताओं की तस्वीरें थीं. तो दूसरी तरफ उसी अनुपात में निषाद पार्टी के मुखिया डॉक्टर संजय निषाद की तस्वीर थी.
इस रैली में अमित शाह ने खुले मंच से यह कहा भी था कि अगर उत्तर प्रदेश में बीजेपी की दोबारा सरकार बनती है तो निषाद समुदाय के एजेंडे को पूरा किया जाएगा. हालांकि बीजेपी और निषाद पार्टी के बीच नोकझोंक भी होती रही है, जब पीएम मोदी की कैबिनेट का विस्तार हो रहा था उस वक्त संजय निषाद चाह रहे थे कि उनके बेटे प्रवीण निषाद को उसमें जगह मिले. लेकिन उनकी मांग को स्वीकार नहीं किया गया. इसे लेकर कुछ दिन तक संजय निषाद और बीजेपी आलाकमान के बीच तल्खी भी दिखी थी और कयास लगाए जा रहे थे कि यह गठबंधन शायद अब टूट जाएगा. लेकिन संजय निषाद ने 2022 का विधानसभा चुनाव में बीजेपी के साथ लड़ने का फैसला लिया और गठबंधन में बने रहे.
आरक्षण के मुद्दे पर नाराजगी बनी हुई है
संजय निषाद को समझना उतना आसान नहीं है जितना आसान आम तौर पर समझा जा रहा है. उन्हें पता है कि जिन जिलों में निषादों की आबादी ज्यादा है, वहां चुनाव जीतने के लिए बीजेपी का सहयोग लेना ही पड़ेगा. क्योंकि केवल निषादों की आबादी उन्हें जीत नहीं दिला पाएगी. बल्कि गैर यादव ओबीसी जातियों का भी उन्हें समर्थन चाहिए होगा, जो केवल बीजेपी के साथ मिल सकता है. इसीलिए वह बीजेपी के साथ इस गठबंधन में टिके हुए हैं. हालांकि निषाद समाज को अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग को लेकर उनके और बीजेपी के बीच टकराव अभी भी खत्म नहीं हुआ है.
लखनऊ की रैली में भी संजय निषाद चाह रहे थे कि मंच से अमित शाह यह ऐलान कर दें कि निषादों की मांग की उन्हें अनुसूचित जाति में शामिल किया जाए, को जल्द पूरा किया जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. इसलिए यह भी कयास लगाए जा रहे हैं कि अगर चुनाव के बाद स्थिति ऐसी बनती है कि निषाद पार्टी किंग मेकर की भूमिका में आती है तो वह या तो अपनी यह मांग पूरी कराएगी या फिर बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ लेगी.
दरअसल आरक्षण के मुद्दे को लेकर संजय निषाद के ऊपर दबाव है. यह दबाव बिहार सरकार में मंत्री रहे मुकेश सहनी और उनकी विकासशील इंसान पार्टी का है. दरअसल मुकेश सहनी भी उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी के पैर जमाने की कोशिश कर रहे हैं और उन्होंने निषाद समुदाय से वादा किया है कि वह निषाद जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करा कर ही मानेंगे. संजय निषाद को पता है कि अगर निषाद समुदाय में मुकेश सैनी की पैठ बढ़ी तो उसका सीधा नुकसान उन्हें ही होगा. इसीलिए संजय निषाद किसी भी कीमत पर निषाद जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल कराकर यह श्रेय अपने सिर पर लेना चाहेंगे.
गोरखपुर में बढ़ रहा निषादों का सामाजिक रुतबा
आजादी के बाद प्रदेश में पिछड़ी जातियों में केवल यादव और कुर्मी जातियों का उत्थान देखा गया. पर पिछले 2 दशकों का समय निषादों के उत्थान का है. गोरखपुर के ग्रामीण अंचल की 3 दशकों से पत्रकारिता कर रहे संजय श्रीवास्तव बताते हैं कि ब्राह्रण- राजपूतों और यादवों के वर्चस्व को आज कोई चुनौती देने की हैसियत में है तो वो निषाद लोग ही हैं. गोरखपुर में जमीन की रजिस्ट्री हो या ठीका पट्टा के काम निषाद लोगों की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है. गोरखपुर जिले में निषादों की हैसियत निर्दल चुनाव जीतने की भी हो चुकी है. निषाद समुदाय का साथ बीजेपी को मिलने से विपक्ष को बहुत नुकसान पहुंचाने वाला होगा. गोरखपुर शहर में स्थित बुढ़िया माई का मंदिर पिछले दो दशकों में भक्तों के बीच बहुत तेजी से लोकप्रिय हुआ है. सामान्य दिनों में यहां पर गोरखनाथ मंदिर से ज्यादा भक्तों की भीड़ जुटती है. सबसे खास बात यह है कि इस मंदिर का महंत एक निषाद ही हैं. जो इस जाति के बढ़ते सामाजिक रुतबे को बता रहा है.
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