सम्पादकीय

उत्तर प्रदेश : बुलडोजर बाबा के मानी, 'प्रतीक' बार-बार दोहराए जाएं तो 'मिथक' बन जाते हैं..

Neha Dani
29 March 2022 1:43 AM GMT
उत्तर प्रदेश : बुलडोजर बाबा के मानी, प्रतीक बार-बार दोहराए जाएं तो मिथक बन जाते हैं..
x
यही ‘बुलडोजर बाबा’ का ‘डिकंस्ट्रक्शन’ है! यही नया ‘हिंदुत्व’ है!

उत्तर प्रदेश के विधानसभा के चुनावों के दौरान विपक्षियों ने योगी को नया नाम दिया 'बुलडोजर बाबा' और यही नाम योगी का 'प्रतीक' बन गया! इस प्रतीक को जितना योगी ने बनाया, उससे अधिक विपक्ष ने बनाया!

विपक्ष पहले भी ऐसा करता रहा है। इधर मोदी ने कहा : 'छप्पन इंच की छाती', उधर विपक्ष करता रहा छप्पन इंच की छाती पर कटाक्ष दर कटाक्ष, जैसे कि करोड़ों का घपला कर भाग गए कई लोग, कि चीन ने 'ये कर दिया वो कर दिया', कि कोरोना आया इतने लोगों को मार गया, कि किसान कानून वापस लेने पड़े... कहां गई छप्पन इंच की छाती...?
ध्यान से पढ़ें, तो इन तमाम कटाक्षों में 'छप्पन इंच की छाती' के होने पर कोई सवाल नहीं किया जा रहा, बल्कि उसे स्वीकार करते हुए उसको 'ताना' दिया जा रहा है कि सर जी, आपके इतने बली होते हुए भी ये होता रहा।
यानी उम्मीद 'छप्पन इंची छाती' से ही रही कि उनको कुछ करना चाहिए था! जब आप मोदी से उम्मीद करते हैं, तब मोदी ही जीत सकते हैं, क्योंकि 'मोदी उम्मीद का नाम है!' यानी आप भी यकीन करते हैं कि 'मोदी है तो मुमकिन है'!
यही है 'प्रतीकों की राजनीति'! एक ओर 'छप्पन इंच की छाती' दूसरी ओर 'बुलडोजर!' दोनों ताकत के प्रतीक हैं! 'माचो' यानी मर्दानगी के प्रतीक हैं! प्रतीकों की राजनीति सीधी नहीं होती। वह 'प्रतीक' के जरिये 'सांस्कृतिक प्रतिक्रिया' पैदा करती है और इस तरह वह आम लोगों की स्मृति में देर तक टिकी रहती है।
हम फिर 'बुलडोजर बाबा' के नए प्रतीक की ओर लौटें : 'बुलडोजर बाबा' पर चुनावों में सर्वाधिक तंज किसी ने किए, तो अखिलेश ने किए। योगी की जीत के एक जलसे में बुलडोजर ही बुलडोजर नजर आए। विपक्ष कटाक्ष करता रहा, लेकिन योगी रक्षात्मक न हुए। उन्होंने 'सॉरी' कहने की 'नकली नाटकीय विनय' को नहीं अपनाया, बल्कि 'बुलडोजर है तो है' के भाव को अपनाया।
'प्रतीक' अगर बार-बार दुहराए न जाएं, तो मर जाते हैं और अगर दुहराए जाते हैं, तो ताकतवर 'मिथक' बन जाते हैं, किंवदंती बन जाते हैं, किस्से बन जाते हैं और मनोरंजक बन जाते हैं। मनोरंजक बनते ही वे आम लोगों के दिलों में उतर जाते हैं। अपने यहां की सांस्कृतिक राजनीति में प्रतीक या चिह्न इसी तरह काम करते हैं और भाजपा और उसके नेता खासकर मोदी और योगी इसमें माहिर हैं।
यहां हम मोदी की जगह योगी के 'बुलडोजर बाबा' की छवि की करामात तक ही सीमित रहेंगे और बुलडोजर के प्रतीक की 'सक्रियता' को समझने की कोशिश करेंगे। यों यह कोशिश करना विपक्ष का काम है, लेकिन हम जानते हैं कि विपक्ष यह नहीं कर सकता, क्योंकि वह अब भी प्रतीकों की राजनीति को 'डिकंस्ट्रक्ट' करने में अक्षम है। वह आलोचना की परंपरागत भाषा में सोचता है, जबकि भाजपा के नेता नित्य नए प्रतीकों व चिह्नों की राजनीति में सोचते हैं। और चूंकि सभी प्रतीक और चिह्न सांस्कृतिक सक्रियता पैदा करने के लिए होते हैं और उनके धार्मिक संदर्भ भी होते हैं, इसलिए वे हर बार नए-नए प्रतीकों के निर्माण के जरिये आम लोगों के भावों को जगाते हैं और जरूरत के हिसाब से उनको मैनेज करते हैं, ताकि वह लोगों के मन के भावों का अयोजन-संयोजन व संगठन कर सकें।
उदाहरण के लिए, अयोध्या में 'भव्य राम मंदिर का निर्माण': विपक्ष कटाक्ष करता रहा कि मंदिर की फंडिंग में कितने घपले हो रहे हैं, कि पैसा खाया जा रहा है आदि, लेकिन योगी अयोध्या को चमकाने और दीपक जलाने का रिकॉर्ड बनाने में लगे रहे। आलोचक उनका उपहास उड़ाते रहे कि मंदिर बनना है, तो बने, इतने दीपक जलाने का मतलब क्या?
विपक्ष यहीं चूका। वह अयोध्या को चमकाने, नदी तट पर लाखों दीपक जलाने के प्रतीकवाद को नहीं समझ पाया। आधे मन से मंदिरवादी होकर भी वह 'रामभक्तों' पर शंका करता रहा। उसके मुकाबले योगी अयोध्या-अयोध्या करते रहे, भव्य राम मंदिर का निर्माण होगा, यह कहते रहे और इस तरह अयोध्या को लोगों की स्मृति में बार-बार जगाते-जमाते रहे। वह प्रकारांतर से यह भी कहते रहे कि योगी है, तो मंदिर है, यानी योगी नहीं तो मंदिर नहीं! उनके गैरिक वसन, उनका घुटा सिर, उनका कनफटा योगी रूप, परिवार से उनका 'संन्यस्त' होना और कुलवक्ती बाबा की तरह दिन-रात लगे रहना और मीडिया द्वारा उनकी इस छवि पर एक सवाल न उठाना...उनको मोदी की तरह अहर्निश काम करने वाले के रूप में पेश करता रहा।
इस तरह आम यूपी वालों की नजर में बुलडोजर एक बाबा में तब्दील हुआ या कहें कि बाबा ही बुलडोजर बनता चला गया : बदमाशों के पीछे पड़ जाना, दंगाइयों की प्रॉपर्टी पर बुलडोजर चलवाना, कानून संगत न होने पर भी 'बुलडोजर' एक 'नए न्याय दाता' के नए मानी लिए रहा। बुलडोजर यानी न अदालत, न तारीख पर तारीख, न वकील, न जज, सीधे सजा! एकदम सांस्कृतिक कार्रवाई, जैसे कि किसी फिल्म में होती है, जिसे देख लोग ताली पीटते हैं।
ज्ञानी ध्यानी इसे लाख 'असांविधानिक' कहें, लेकिन जीवन में लोग ऐसे ही 'तुरंता न्याय' चाहते हैं। बुलडोजर यही देता है और बुलडोजर बाबा यही देते हैं, इसलिए 'बुलडोलर बाबा' आए! अनेक 'ज्ञानी ध्यानी' व 'फेमिनिस्ट' अब भी सोचने में बिजी हैं कि औरतों ने योगी को क्यों वोट दिया? इसलिए कि आम औरतें एक माचो नायक को पसंद करती हैं, जो फिल्मी हीरो की तरह उनको सुरक्षा दे, संरक्षण दे। इसके अलावा गैस, मकान व अन्य सुविधएं दे, फिर तो क्या बात है?
सांस्कृतिक राजनीति अपेक्षित भावों को जगाने की राजनीति होती है। शुष्क तर्क, तथ्य, आंकड़े आदि चंद ज्ञानियों के लिए मानी रखते हैं, आम पब्लिक सीधे भावना से काम लेती है और यह काम प्रतीक या चिह्नों से बेहतर कोई नहीं करता। प्रतीक हमेशा एक 'सांस्कृतिक नैरेटिव' (किस्सा) बनाते हैं।
बुलडोजर ऐसा ही नेरेटिव है! आज बुलडोजर बाबा बना है, तो कल देवता भी बन सकता है। कोरोना देवी का मंदिर बन सकता है, तो बुलडोजर का भी बन सकता है। तर्कवादी सोचते रहें कि कहां बुलडोजर जैसी मशीन और कहां उसका देवत्व! यही 'बुलडोजर बाबा' का 'डिकंस्ट्रक्शन' है! यही नया 'हिंदुत्व' है!

सोर्स: अमर उजाला

Next Story