सम्पादकीय

अमेरिका की वापसी: अफगानी संसाधनों पर चीन की नजर

Rani Sahu
2 Sep 2021 7:09 AM GMT
अमेरिका की वापसी: अफगानी संसाधनों पर चीन की नजर
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बिना किसी ठोस योजना के अमेरिका ने अफगानिस्तान से जिस तरह लाखों लोगों को अधर में छोड़कर वापसी की है

केएस तोमर। बिना किसी ठोस योजना के अमेरिका ने अफगानिस्तान से जिस तरह लाखों लोगों को अधर में छोड़कर वापसी की है, वह उसकी ताकत और विश्वसनीयता के क्षरण को दिखाता है और यह भी कि उसकी इस तरह वापसी ने चीन को वहां उपजे शून्य को भरने के लिए प्रोत्साहित किया है। ऐसे में चीन अफगानिस्तान के तीस खरब डॉलर के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए अपने प्रतिबद्ध सहयोगी पाकिस्तान को कठपुतली की तरह इस्तेमाल कर तालिबान तक पहुंच बढ़ा सकता है।

विश्लेषकों का मानना है कि राष्ट्रवाद की भावना और अमेरिका तथा नाटो के सैनिकों की जान बचाने की इच्छा ने जो बाइडन को दोहा समझौते के निष्पादन के लिए प्रेरित किया, जिसे ट्रंप प्रशासन के दौरान आगे बढ़ाया गया था। विशेषज्ञों का कहना है कि दोहा समझौता नए अमेरिकी प्रशासन के लिए सिरदर्द बन गया था, हालांकि यह भविष्य की राजनीति में काफी फायदेमंद हो सकता है। जाहिर है, अब अफगानिस्तान में मची अफरा-तफरी के लिए बाइडन और ट्रंप की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, जिन्होंने उन तालिबान पर भरोसा किया, जिन्होंने दोहा समझौते का सम्मान नहीं किया। ट्रंप का दोहा समझौता बाइडन ही नहीं, भारत के लिए भी सिरदर्द बन गया, जिसने अफगानिस्तान में शिक्षा, स्वास्थ्य, आधारभूत संरचना के निर्माण समेत विभिन्न क्षेत्रों में 23,000 करोड़ रुपये का निवेश किया।
विश्लेषकों का मानना है कि चीन ने पाकिस्तान के जरिये भावी साझेदारी के लिए जमीन तैयार करने और तालिबान को खुश करने के लिए तालिबान प्रतिनिधिमंडल की मेजबानी की थी। उसने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के उद्देश्य से निवेश के 'चीनी मॉडल' के क्रियान्वयन की नींव रखी है। कुछ पूर्व राजनयिकों की पक्की राय है कि अफगानिस्तान में प्रवेश का 'चीनी मॉडल' प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर आधारित हो सकता है, जो इस अशांत देश में शासकों के लिए लाभप्रद होगा। इसलिए चीन धीरे-धीरे पाकिस्तान पर अपनी पकड़ का फायदा उठाकर लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है, जो इन विद्रोहियों की गारंटी ले रहा है, जिसकी अपनी विश्वसनीयता अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच संदेह के घेरे में है।
सदियों पुरानी दुश्मनी के साथ-साथ भारत को बदनाम करने और बाधाएं पैदा करने के इरादे से चीन-पाक गठजोड़ अतार्किक रुख अपनाने पर आमादा है, जो तालिबान शासन को मान्यता न देने के अंतरराष्ट्रीय समुदाय के तर्क से भिन्न है, जो उल्टा पड़ सकता है और दुनिया में चीन और उसके सहयोगी को अलग-थलग कर सकता है। कोरोना महामारी की जानकारी छिपाने के लिए चीन पहले से ही अधिकांश देशों की नाराजगी का सामना कर रहा है। विश्लेषकों का कहना है कि चीन पाकिस्तान का इस्तेमाल तालिबान को उइगर मुसलमानों से दूर रखने के लिए कर रहा है, हालांकि इससे कश्मीर घाटी में आतंकवादी समूहों के उभार का खतरा है, क्योंकि वे तालिबान का एक हिस्सा हैं, जो भारत विरोधी समूह और हक्कानी नेटवर्क को शामिल करने से स्पष्ट है।
तालिबान ने 1996 में आतंकी समूहों की मदद की थी और कश्मीर में हिंसा को बढ़ाने में उनका सहयोग किया था, लेकिन वे ऐसी गलती का खामियाजा भुगत सकते हैं, भारत और दुनिया के देश, विशेष रूप से अमेरिका, इस मुद्दे पर हमारे साथ खड़े हैं। इस क्षेत्र में भू-राजनीतिक संतुलन में बदलाव के बारे में भारत को चिंताएं हो सकती हैं, जो धीरे-धीरे चीन, रूस, पाकिस्तान और ईरान के ध्रुवीकरण के पक्ष में झुक सकता है। भारत को काबुल में नई सरकार के प्रति रुख तय करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। भारत को दीर्घकालिक रणनीति पर विचार करना चाहिए और अफगानिस्तान के हालात पर नजर रखनी चाहिए।
अभी सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों ने भी तालिबान को मान्यता नहीं दी, जिन्होंने 1996 में बिना किसी देरी के उन्हें मान्यता दी थी। भारत को क्वाड की सद्भावना का उपयोग करना चाहिए, जो अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे समान विचारधारा वाले देशों से तालिबान के नए खतरे पर मदद पाने के लिए एक मंच प्रदान करता है।


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