सम्पादकीय

बांग्लादेश सरकार पर लगाम लगाने की अमेरिकी कोशिश ने पूर्वी सीमा पर भारत की चिंता बढ़ाई

Gulabi
15 Feb 2022 12:39 PM GMT
बांग्लादेश सरकार पर लगाम लगाने की अमेरिकी कोशिश ने पूर्वी सीमा पर भारत की चिंता बढ़ाई
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अमेरिकी कोशिश ने पूर्वी सीमा पर भारत की चिंता बढ़ाई
सुबीर भौमिक।
चीन और रूस (China and Russia) के बीच बढ़ती दोस्ती और अमेरिका के साथ इन दोनों देशों के संबंध बेहद खराब दौर में होने की वजह से, यूक्रेन (Ukraine) पर रूस के हमले की आशंका से भारत का चिंतित होना जायज है. आने वाले समय में ये मुद्दे भारतीय कूटनीति (Indian Diplomacy) के लिए बडी चुनौती के रूप में सामने आएंगे. हिमालय से लगी सीमा पर चीन की लगातार हठधर्मिता और इमरान खान के हालिया बीजिंग दौरे पर चीन द्वारा कश्मीर का मसला उठाने से निश्चित रूप से भारत की चिंता बढ़ सकती है. मगर मोदी सरकार को इन मुद्दों पर ध्यान देते वक्त पूर्वी सीमा पर जो कुछ हो रहा है उसे नजरअंदाज नहीं करन चाहिए.
म्यांमार में अराजकता और गृहयुद्ध जैसे हालात और बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन की अमेरिकी चाहत, भारत को दक्षिण पूर्व एशिया की टाइगर इकॉनोमीज से जोड़ने वाली लुक ईस्ट नीति और पूर्वोत्तर राज्यों में सुरक्षा के गंभीर मसलों के लिए मुश्किल सवाल खड़े करते हैं. इन दोनों देशों और नेपाल में चीन की गहरी पैठ भी भारत के लिए शुभ संकेत नहीं है.
भारत अब इस स्थिति में नहीं है कि बांग्लादेश में एक दशक के अवामी लीग के शासन में जो फायदे हुए हैं उन पर संतोष करके बस देखता भर रहे. प्रधानमंत्री शेख हसीना ने सुरक्षा और कनेक्टिविटी संबंधी भारत की हर परेशानी को दूर करने की कोशिश की है. उन्होंने पूर्वोत्तर के उग्रवादियों पर बांग्लादेश में जोरदार डंडा चलाया है और अपने बंदरगाहों और नदियों के इस्तेमाल के साथ-साथ बांग्लादेश के रास्ते भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में जाने की इजाजत दी है. फरवरी में पटना से गुवाहाटी तक बांग्लादेश की नदी के रास्ते भारतीय मालवाहक पोत का जाना सपने के साकार होने जैसा है.
अमेरिका मानता है कि शेख हसीना चुनावों में धांधली करवा कर सत्ता में आई हैं
मगर तीस्ता नदी-जल बंटवारे का विवाद सुलझाने में भारत की विफलता और NRC-CAA के मुद्दों पर बीजेपी नेता अमित शाह की "दीमक" वाली टिप्पणी जैसी बयानबाजी से बांग्लादेश को परेशानी आ रही है. ऊपर से बांग्लादेश के सात वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारियों पर अमेरिकी प्रतिबंध, बाइडेन के दिसंबर वाले डेमोक्रेटिक समिट में बांग्लादेश को निमंत्रण नहीं भेजना और इस महीने जेनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में 'जबरन लापता किए गए' लोगों का मुद्दा उठाये जाने से बांग्लादेश सरकार चिंतित है.
अवामी लीग और प्रधानमंत्री शेख हसीना के अमेरिका के साथ रिश्ते हमेशा से ही असहज रहे हैं. कहा जाता है कि 1975 में बांग्लादेश में तख्तापलट और शेख हसीना के सभी परिवार वालों की हत्या के पीछे अमेरिका का ही हाथ रहा है. अमेरिका हसीना सरकार के मानवाधिकार रिकॉर्ड की खुले तौर पर आलोचना करता रहा है. अमेरिका मानता है कि शेख हसीना चुनावों में धांधली करवा कर सत्ता में आई हैं. हसीना के करीबियों का मानना है कि अमेरिका उन्हें सत्ता से बेदखल करने के लिए इन मुद्दों को उठा रहा है.
भारत ने वाजिब वजहों से हसीना सरकार का जोरदार बचाव किया है. 2014 के चुनावों के दौरान ढाका में भारतीय और अमेरिकी राजनयिकों के बीच तनातनी ने देश में सुर्खियां बटोरीं. लेकिन भारत अगर अभी वाशिंगटन के उकसावे से हसीना को नहीं बचाता है, तो नई दिल्ली को दक्षिण एशिया में अपना सबसे भरोसेमंद साथी चीन के हाथों खोना पड़ सकता है. क्योंकि पड़ोसी म्यांमार के जनरलों की तरह, हसीना के लिए भी बीजिंग की तरफ मुड़ना ही एकमात्र विकल्प बच सकता है.
भारत की विफलता से चीन को बांग्लादेश में राजनीतिक ताकत मिल सकती है
पहले भी भारत ने अमेरिका को बार-बार समझाने की कोशिश की है कि मानवाधिकार के मुद्दे पर शेख हसीना को घेरने से बांग्लादेश के सुरक्षाबलों का मनोबल टूटेगा और इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई कमजोर पड़ेगी. भले ही सीमा पर चीन की हरकत ने भारत को अमेरिका के करीब ला दिया हो, लेकिन शेख हसीना के प्रति अमेरिकी द्वेष भाव को खत्म करने का एक रास्ता नई दिल्ली को निकालना ही होगा.
बांग्लादेश के बुनियादी ढांचे में बड़े पैमाने पर निवेश के जरिए चीन पहले ही वहां की अर्थव्यवस्था में गहराई से प्रवेश कर चुका है – अमेरिका के उकसावे और और उसे रोकने में भारत की विफलता से चीन को बांग्लादेश में वो राजनीतिक ताकत मिल सकती है जिससे वह अब तक वंचित रहा है. वास्तविकता यह है कि भारत के पास ढाका में हसीना से बेहतर विकल्प मौजूद नहीं है और खालिदा जिया की बीएनपी से दोस्ती साधने में वाजपेयी की नाकामी अब तक हम भूले नहीं हैं.
म्यांमार में भारतीय कूटनीति दो विपरीत स्थितियों से गुजर चुकी है – 1988 में लोकतंत्र समर्थक विद्रोहियों को राजीव गांधी के पूर्ण समर्थन से लेकर वीजपेयी के बर्मा के सैन्य शासन के करीब जाने तक. पीएम मोदी ने सू की की एनएलडी सरकार का समर्थन करने के साथ बर्मा के सैन्य शासन तातमाडॉ के साथ भी संपर्क स्थापित कर संतुलन बनाने का काम किया. मगर फरवरी में अचानक म्यांमार में सेना का तख्ता पलट और इसके खिलाफ आम जनता के अप्रत्याशित विरोध ने भारत के लिए दोनों के बीच संतुलन रखने की संभावना को खत्म कर दिया है.
भारत के पास दांव चलने के लिए बहुत कम विकल्प बचे हैं
एनएलडी की प्रतिनिधित्व वाली नेशनल यूनिटी सरकार (एनयूजी), स्थानीय जातीय समूहों, सिविल सोसाइटी और वर्किंग क्लास के साथ म्यांमार गृह युद्ध की तरफ बढ़ रहा है. एनयूजी म्यांमार में सैन्य शासन को खत्म करने के लिए हिंसा समेत हर विकल्प के इस्तेमाल का पक्षधर है और जनरल लोकतंत्र की वापसी के लिए चर्चा तक के मूड में नहीं है. इससे भारत के पास दांव चलने के लिए बहुत कम विकल्प बचे हैं. म्यांमार का सैन्य शासन चीन के टुकड़ों पर पल रहा है और प्रतिरोध करने वाला ग्रुप चीनी हितों पर वार कर रहा है. चीनी कारखानों और खदानों को निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि वो चीन को सैन्य शासन के मुख्य समर्थक के रूप में देखते हैं.
विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला का कहना है कि भारत म्यांमार में प्राथमिकता के आधार पर लोकतंत्र की वापसी चाहता है. मगर वह इसके लिए मध्यस्थता के पक्ष में नहीं है. भारत यह देखने के लिए इंतजार करेगा कि अपने पांच बिन्दुओं वाले एजेंडे के साथ आशियान (ASEAN) की कोशिश म्यांमार में क्या रंग लाती है. म्यांमार में शांति और स्थिरता के बगैर भारत की 'लुक ईस्ट' नीति का कोई मतलब नहीं है. म्यांमार के साथ भारत की कलादान मल्टीमॉडल परिवहन परियोजना और भारत-म्यांमार-थाईलैंड राजमार्ग जैसी प्रमुख कनेक्टिविटी परियोजनाएं समय के काफी पीछे चल रही हैं. शांति स्थापित नहीं होने से इनमें और देर होने की आशंका है और निश्चित रूप से इनकी लागत में भी बढ़ोतरी होगी.
म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली होने तक वहां के सैन्य जनरलों के पास चीन के प्रतिनिथि की तरह काम करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. ये भारत के पूर्वोत्तर में सुरक्षा पर भी प्रश्न उठाता है क्योंकि म्यांमार का पहाड़ी वाला जंगली इलाका सगाइंग उत्तर पूर्व के उग्रवादियों के लिए अब भी शरणस्थली बनी हुई है. म्यांमार में अस्थिरता से भारत के पूर्वोत्तर में उग्रवाद को तो बल मिलेगा ही, नशीले पदार्थ और अवैध हथियार भी आते रहेंगे. ऐसे में निश्चित रूप से चिन, रखाइन और सगाइंग इलाकों से शरणार्थी भारत में आएंगे जिनके विरोध को कुचलने के लिए तातमाडॉ (म्यांमार की सेना) अग्नेयास्त्र समेत हर चीज का इस्तेमाल कर रही है.
(लेखक बीबीसी के पूर्व संवाददाता और पूर्वोत्तर भारत के जानकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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