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सरकारों के अहम फैसले भी चुनावी मंच पर गर्दिश में चले जाते हैं और ऐसा ही एक संकेत मंडी नगर निगम के कद पर प्रश्र उठा रहा है
By: divyahimachal
सरकारों के अहम फैसले भी चुनावी मंच पर गर्दिश में चले जाते हैं और ऐसा ही एक संकेत मंडी नगर निगम के कद पर प्रश्र उठा रहा है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर स्वयं कह चुके हैं कि जनगणना के आधिकारिक आंकड़े आने के बाद शहरी गांव फिर ग्रामीण बन जाएंगे। यानी जिस उद्देश्य या जरूरत से नए नगर निगम बने या आगे बन सकते हैं, उसकी राजनीतिक क्षति देखी जा रही है। ऐसे में यह क्यों न माना जाए कि हिमाचल में अहम फैसले भी राजनीतिक नीयत से ही होते हैं। यहां प्रश्न अगर शहरी व्यवस्था का है, तो आबादी का एक बड़ा हिस्सा चिन्हित होना चाहिए। कम से कम प्रदेश के दो दर्जन शहर तीव्रता से विकास करते हुए आर्थिकी, रोजगार और नागरिक जीवन शैली का नया परिचय दे रहे हैं। यहां दरअसल हमने ग्राम एवं नगर योजना कानून को सही परिप्रेक्ष्य में रखने के बजाय सियासी शॉर्टकट ढूंढे हैं और इस तरह क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण के गठन को ही बाइपास कर दिया है। कायदे से देखें तो मंडी नगर निगम के गठन का उद्देश्य उस दिन पूरा होगा, जब इसके साथ-साथ मंडी-नेरचौक-सुंदरनगर क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण का गठन होता है।
कई मामलों में नेरचौक का विकास मंडी से भी अहम हो जाता है क्योंकि फोरलेन निर्माण के बाद शहरी वातावरण अब आवासीय, व्यवसायी तथा पर्यटन की संभावनाओं का विस्तार करते हुए सुंदरनगर को छूने लगा है। ऐसे में यह सारा भूक्षेत्र शहरी गांव की अवधारणा में ऐसा शहरीकरण पैदा कर रहा है, जिसे तुरंत संबोधित करना होगा। दूसरी ओर ग्रामीण गांव केवल ग्रामीण आर्थिकी या प्रमुख रूप से कृषि-बागबानी पर आधारित ही माने जा सकते हैं और इनके विकास की भूमिका में सरकार व ग्रामीण विकास विभाग को अपना ढर्रा बदलना होगा। दरअसल मसला नागरिक समाज के योगदान का भी है, जिसे केवल यह सिखाया जा रहा है कि सभी कार्य सरकारी तौर पर ही होंगे और बदले में उसे कर अदायगी भी नहीं करनी। मुफ्त सुविधाभोगी समाज कभी भी व्यवस्था को उसके उच्च मुकाम पर नहीं पहुंचने देगा। इसी परिप्रेक्ष्य में देखें तो मंडी नगर निगम में शामिल गांव यह तो ख्वाहिश रखते हैं कि उनके भीतर शहरी सुविधाएं, लाभ तथा आर्थिक खुशहाली आए, लेकिन बाशिंदे चाहेंगे कि न तो निर्माण का नक्शा पास कराना पड़े और न ही नागरिक सुविधाओं का कुछ खर्च वहन करना पड़े। इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि नगर निगम बनाने से पहले इनके भविष्य, कार्य योजना, कार्य निष्ष्पादन और जन भागीदारी से आगे बढऩे का न कोई खाका बना और न ही विभागीय तौर पर परिवर्तन किए गए। अगर जलशक्ति विभाग को ही गांव से नगर निगम क्षेत्र तक पानी पिलाना है, तो अंतर कैसे आएगा।
अगर विद्युत आपूर्ति का सारा दारमोदार बिजली महकमे के कंधे पर ही रहेगा, तो शहर कब अपनी योजनाएं बनाने के योग्य होगा। इसी तरह अन्य अनेक दायित्व के बीच नगर निगम सिर्फ एक सियासी तरक्की या नेताओं की पगड़ी पहन कर तो नहीं चल सकते। मसला आर्थिक संसाधन जुटाने से सामाजिक चरित्र को जवाबदेह बनाने का है। यह कुछ गांव को शहर की परिधि से हटा कर होगा या शहर की सीमा को निरंतर बढ़ा कर पूरा होगा, यह तय राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही होगा। हमारा मानना है कि जयराम सरकार ने प्रदेश में तीस से पैंतीस फीसदी तक पहुंचे शहरीकरण को संबोधित करने के लिए तीन नए नगर निगम बनाने तक तो अच्छा फैसला लिया, लेकिन इसके बावजूद शहरीकरण और ग्रामीण विकास के प्रश्र हल नहीं हुए। पूरे प्रदेश को जब तक ग्राम एवं नगर योजना कानून के तहत नहीं लाया जाता, न शहर संभलेंगे और न ही गांव मूल स्वरूप में बचेंगे। इसके लिए प्रमुख शहरों के केंद्र में कम से कम आधा दर्जन क्षेत्र विशेष प्राधिकरण बना कर एक साथ कई शहरों, कस्बों तथा गांवों का समन्वित विकास होगा। क्षेत्र विशेष प्राधिकरण के तहत एक भूमि बैंक बना कर प्रमुख शहरों की भीड़ घटाते हुए, कर्मचारी बस्तियों तथा कुछ अन्य गतिविधियों पर केंद्रित विभागों को ग्रामीण इलाकों में स्थानांतरित किया जा सकता है। एक साथ दो-तीन शहरों व दर्जनों गांवों की प्लानिंग से किसी केंद्रीय स्थल पर बड़े बस स्टैंड, अदालतों तथा बड़े सम्मेलनों का आयोजन तथा कर्मचारियों को आवासीय सुविधाएं प्रदान की जा सकती हैं।
Rani Sahu
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