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निर्मित रूप के बीच विशाल विरोधाभास आश्चर्यजनक नहीं होना चाहिए।
जब भी हमारे शहर किसी बड़े संकट का सामना करते हैं, जैसे हाल ही में चेन्नई में बाढ़ आई थी, तो भारत में शहरी नियोजन की 'अव्यवस्थित' स्थिति आदतन बहस का विषय बन जाती है। चूंकि शहरी नियोजन और उसके प्रवर्तन को भारत के 'निष्क्रिय' शहरों का गुनहगार बताया जाता है, इसलिए वर्तमान शहरी नियोजन व्यवस्था को रेखांकित करने वाली जड़ों की जांच करना महत्वपूर्ण है। शहर की योजना बनाने का अधिकार किसके पास है? भारत के शहरी नियोजन कानूनों और प्रक्रियाओं को वैसे ही क्यों बनाया गया है, जैसे वे हैं?
हालांकि भारत की सांविधानिक व्यवस्था में, शहरी नियोजन स्थानीय निर्वाचित सरकारों का कार्य है, पर भारतीय शहरों में नियोजन का कार्य मुख्य रूप से राज्य सरकार के तहत गैर-प्रतिनिधि नौकरशाही की एजेंसियों द्वारा किया जाता है। भारत की स्थानीय शासन प्रणाली में 1992 में सांविधानिक सुधारों (73वें और 74वें संशोधन के रूप में) के साथ ग्रामीण और शहरी स्थानीय सरकारों को 'स्वशासी संस्थाओं' के रूप में काम करने के लिए सशक्त बनाने के साथ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ।
74वां संशोधन निर्वाचित नगर पालिकाओं को आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय और 12वीं अनुसूची के तहत सूचीबद्ध विषयों के लिए योजनाओं को तैयार करने और लागू करने की शक्ति प्रदान करता है। शहरी नियोजन, भूमि उपयोग का नियमन और आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए नियोजन 12वीं अनुसूची में सूचीबद्ध पहले तीन विषय हैं।
इसके अलावा, 74वां संशोधन दस लाख से अधिक की आबादी वाले महानगरीय शहरों के लिए एक मेट्रोपॉलिटन प्लानिंग कमेटी (एमपीसी) के निर्माण को अनिवार्य बनाता है, जिसमें कम से कम दो-तिहाई सदस्य चुने हए स्थानीय प्रतिनिधि होते हैं, ताकि स्थानीय निकायों द्वारा तैयार की गई योजनाओं को शामिल करते हुए महानगरीय क्षेत्र के लिए विकास योजना तैयार की जा सके।
इसलिए, सांविधानिक सुधारों ने निर्वाचित नगर पालिकाओं को शहरी नियोजन के कार्य के साथ-साथ एमपीसी के साथ जोड़ा है, जो बड़े क्षेत्र के लिए योजना तैयार करने के लिए जिम्मेदार है। हालांकि, नगरपालिका सरकार या एमपीसी के बजाय ये राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित विकास प्राधिकरण हैं, जो मुख्य रूप से भारत के अधिकांश प्रमुख शहरों में शहरी नियोजन का कार्य करते हैं।
विकास प्राधिकरण वैधानिक एजेंसियां हैं, जो शहर में ढांचागत विकास और आवास परियोजनाओं के साथ-साथ शहरी नियोजन के लिए जिम्मेदार हैं। ये नौकरशाही की एजेंसियां हैं, जिनकी किसी स्थानीय प्रतिनिधि या स्थानीय सरकार के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है। ये एजेंसियां मास्टर प्लान तैयार करती हैं, जो हर 10-20 वर्षों में शहर भर में भूमि उपयोग और विकास को नियंत्रित करती हैं।
भारत की वर्तमान शहरी नियोजन प्रणाली की उत्पत्ति 1896 में बंबई में आए बुबोनिक प्लेग की प्रतिक्रिया में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा स्थापित योजना संस्थानों और कानूनों के कारण हुई है। प्लेग की शुरुआत तक, ब्रिटिश मुख्य रूप से छावनी और आसपास के सिविल लाइंस के प्रशासन से मतलब रखते थे, जहां वे रहते थे।
हालांकि प्लेग से बंबई की लगभग छह प्रतिशत आबादी की मौत हुई और शहर में व्यवसाय ठप हो गया, लेकिन औपनिवेशिक सरकार ने पूरे शहर में दखल देकर उसे विनियमित करने की आवश्यकता महसूस की। बॉम्बे इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट 1898 में बनाया गया था। यह ट्रस्ट भौतिक योजना बनाने, नई सड़कें बनाने, घरों के निर्माण और बीमारियों के प्रकोप को रोकने के उद्देश्य से भीड़भाड़ वाले इलाकों को कम करने के लिए जवाबदेह था।
औपनिवेशिक सरकार का मानना था कि जिन इलाकों में भारतीय रहते थे, वहां की भीड़भाड़ और अस्वच्छ स्थिति प्लेग के प्रसार का मुख्य कारण थी और इसलिए ट्रस्ट को शक्तिसंपन्न बनाकर मलिन बस्तियों को ध्वस्त करने और सुधारने का काम सौंपा गया। ऐसे ट्रस्ट बाद में कलकत्ता, लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद, दिल्ली और बेंगलुरु जैसे विभिन्न शहरों में स्थापित किए गए थे।
ये ट्रस्ट नगर निगमों से स्वायत्त और समानांतर रूप से काम करते थे। ऐसे ट्रस्टों के संचालन ने सुनिश्चित किया कि औपनिवेशिक नौकरशाही निर्वाचित नगरपालिकाओं के हस्तक्षेप के बिना शहरी विकास को निर्देशित और विनियमित कर सके। यह प्रथा उत्तर-औपनिवेशिक विरासत बन गई, जिसमें सिटी इंप्रूवमेंट ट्रस्ट विकास प्राधिकरण बन गए।
समय के साथ विकास प्राधिकरण शक्तिशाली बनते गए और स्थानीय सरकारों को सत्ता विकेंद्रित करने का सांविधानिक हस्तक्षेप नौकरशाही की शक्ति संरचना को ध्वस्त नहीं कर पाया, जो राज्य में अंतर्निहित हो गया। 74वें संशोधन के पारित होने के करीब तीन दशक बाद, शहरी नियोजन और विकास प्राधिकरणों को नियंत्रित करने वाले कानूनों में लोकतांत्रिक नियोजन प्रक्रियाओं को स्थापित करने के लिए कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है। शहरी नियोजन के लिए अधिकांश राज्य केंद्र सरकार के 1960 के मॉडल टाउन ऐंड कंट्री प्लानिंग कानून पर निर्भर हैं, जो स्वयं 1947 के ब्रिटिश टाउन ऐंड कंट्री प्लानिंग ऐक्ट से लिया गया है, जबकि ब्रिटेन में भी इसे पूरी तरह से बदल दिया गया है।
जब दुनिया का अधिकांश हिस्सा ज्यादा गतिशील नियोजन प्रक्रियाओं को अपना रहा है, भारत में नियोजन व्यवस्था 'मास्टर प्लान' पर टिकी है, जो सैद्धांतिक रूप से शहर में किसी भी विकास को निर्धारित और नियंत्रित करती है। हालांकि, राज्य नियोजन कानूनों के अनुसार, मास्टर प्लान ज्यादातर भूमि-उपयोग और इमारतों को विनियमित करने के लिए एक स्थानिक उपकरण है और योजना में परिवहन या पर्यावरण जैसे प्रमुख क्षेत्रों को शामिल करने की आवश्यकता नहीं है।
भले ही इन क्षेत्रों को योजना दस्तावेज में शामिल किया गया हो, जैसा कि कुछ नए मास्टर प्लान करते हैं, पर ऐसे प्रावधान कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं। इस तरह योजना शहर के आवासीय, वाणिज्यिक और औद्योगिक जैसे विभिन्न श्रेणियों के सख्त विभाजन पर केंद्रित है।
ऐसी योजना प्रणाली भारत की शहरी वास्तविकताओं के बारे में बहुत कम बात करती है, जिसकी विशेषता विविधता और गतिशील स्थान हैं, जिसके चरित्र में ऐतिहासिक रूप से स्थानों का मिश्रित उपयोग है। नतीजतन, भारतीय शहरों में कागज पर योजना और जमीन पर निर्मित रूप के बीच विशाल विरोधाभास आश्चर्यजनक नहीं होना चाहिए।
Neha Dani
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