सम्पादकीय

Urban India: व्यवस्था के चक्रव्यूह में फंसा शहरी भारत

Neha Dani
24 Nov 2022 2:13 AM GMT
Urban India: व्यवस्था के चक्रव्यूह में फंसा शहरी भारत
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पुनर्गठित करने और सबसे महत्वपूर्ण वादे और विफलता को स्वीकारने की राजनीतिक जिम्मेदारी की मांग करता है।
हर कुछ वर्षों में भारत के शहरों को मृतप्राय या मृत घोषित कर दिया जाता है। ये भावनाएं शहरी भारत के तनावपूर्ण भविष्य को दर्शाती हैं। पूरे साल को संकटों के मौसमों के रूप में विभाजित किया जा सकता है। सर्दियों के दौरान वायु प्रदूषण के कारण शहर हांफते हैं। गर्मियों की शुरुआत पानी की कमी से होती है और मानसून शहरों में बाढ़ के लाइव टेलीकास्ट के साथ आता है। और गड्ढे मानसून और सर्दी के बीच के हफ्तों को पाटते हैं। हर 'मौसमी संकट' के बाद बहानों की परेड होती है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और गंगा के किनारे बसे शहरों में वायु प्रदूषण की स्थिति साल-दर-साल बिगड़ती जा रही है और इसके लिए पराली जलाने को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। जब आंशिक सूखे के कारण पुणे या मुंबई में पेयजल का संकट होता है, तो उसका दोष प्रवासियों की बढ़ती संख्या पर मढ़ा जाता है। जब बाढ़ शहरों को प्रभावित करती है, तो उन्हें चरम मौसमी घटना के रूप में वर्णित किया जाता है और जलवायु परिवर्तन नामक वैश्विक घटना को दोषी ठहराया जाता है।
भारतीय संदर्भ में, राजनीतिक बयानबाजी केंद्र-राज्य दोषारोपण पर केंद्रित होती है और शासन की विफलता को खराब आवंटन के रूप में पेश किया जाता है। पिछले हफ्ते विश्व बैंक ने एक रिपोर्ट जारी की कि क्या किया जाना चाहिए और उस पर कितनी लागत आएगी। आंकड़ों और उपायों से भरी वह रिपोर्ट बताती है कि 'भारत को यदि तेजी से बढ़ती अपनी शहरी आबादी की जरूरतों को प्रभावी ढंग से पूरा करना है, तो अगले पंद्रह वर्षों में शहरी आधारभूत संरचनाओं में 840 अरब डॉलर यानी प्रति वर्ष औसतन 55 अरब डॉलर का निवेश करना होगा।' निर्विवाद रूप से शहरी विकास के लिए अत्यधिक आवंटन की जरूरत है, यह राज्यों और केंद्र के आवंटन के अनुपात में प्रकट होता है।
शहरीकरण की अराजक स्थिति, जहां बिना बुनियादी संरचनाओं के बस्तियां उग रही हैं, केवल खराब वित्तपोषण का नतीजा नहीं हैं। आवंटन को परिणामों में बदलने का काम शासन की संरचना पर निर्भर करता है। केंद्र, राज्यों और नगरपालिकाओं के बीच राजनीतिक और प्रशासनिक तालमेल नहीं होने के कारण कस्बों और शहरों की निरंतर उपेक्षा होती रहती है और खराब स्थितियों की निरंतरता बनी रहती है। भारत के संविधान में कहा गया है कि शहरी विकास राज्य का विषय है —और सरकारें इसे असामान्य निष्ठा के साथ संसद में बताती हैं।
शहरी विकास के सबसे बड़े कार्यक्रम और आवंटन केंद्र सरकार की तरफ से जारी होते हैं। संविधान के 74वें संशोधन में केंद्र और राज्यों से स्थानीय सरकारों को धन और कार्यों के हस्तांतरण का वादा किया गया है। पच्चीस वर्षों से अधिक समय से इस वादे को राजनीति ने बाधित कर रखा है। जैसा कि एक बार विलासराव देशमुख ने कहा था, राज्य सरकारें स्थानीय सरकारों के साथ वही बर्ताव करती हैं, जो केंद्र राज्यों के साथ करता है। अधिकार और उत्तरदायित्व के अलगाव ने शहरी भारत को एक प्रणालीगत तबाही में फंसा दिया है। हर पांच साल में मुंबई के नागरिक नगरपालिका चुनावों में पार्षदों का चुनाव करने के लिए मतदान करते हैं। मुंबई का बृहन्मुंबई नगर निगम 45,000 करोड़ रुपये से अधिक के बजट के साथ सबसे बड़ा और सबसे अमीर नगर निकाय है। यह कितना सशक्त निकाय है! इसका बजट नियुक्त अधिकारियों द्वारा पेश किया जाता है। चुने गए 227 पार्षद मुश्किल से यह बता सकते
हैं कि पैसा कैसे खर्च किया जाता है।
आवंटन की व्यापक शक्ति औपनिवेशिक बनी हुई है और यह क्षेत्रीय नगर नियोजन अधिनियम के तहत राज्य सरकार के पास है। यह कई राज्यों में नगर निगमों के लिए सच है। नगर निकाय बुनियादी ढांचे और रख-रखाव के लिए काफी हद तक राष्ट्रीय योजनाओं के तहत सृजित अनुदान पर निर्भर हैं। वास्तव में, नगरपालिका वित्त पर रिजर्व बैंक की नवीनतम रिपोर्ट से पता चलता है कि 'भारत में समग्र नगरपालिका राजस्व में कोई विशेष वृद्धि नहीं हुई, जो 1946-47 से मोटे तौर पर अपरिवर्तित रही।' राज्यों और केंद्र की उदारता पर बहुत कुछ निर्भर करता है।
बड़ी-बड़ी घोषणाओं की कोई कमी नहीं है। यूपीए सरकार वर्ष 2005 में जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन लाई थी। कैग की ऑडिट रिपोर्ट बताती है कि वह कैसे चला। भाजपा ने वर्ष 2014 के अपने घोषणापत्र में सौ नए शहरों के निर्माण का वादा किया था। कितना स्मार्ट फ्यूचरिस्टिक विचार था, जिसे सौ शहरों के लिए स्मार्ट सिटी कार्यक्रम में रूपांतरित किया गया। वह किस तरह से खत्म हो गया? पिछले सात वर्षों में सौ स्मार्ट शहरों को 30,751.41 करोड़ रुपये दिए गए, जिसमें से 27,610.34 करोड़ रुपये खर्च हुए। शहरों ने 1.90 लाख करोड़ रुपये की 7,822 परियोजनाओं के टेंडर निकाले, उनमें से केवल 66,912 करोड़ रुपये की 4,085 परियोजनाएं ही पूरी हो पाई हैं। देश भर के शहरों में धन और उसे खर्च करने की क्षमता की भारी कमी है।
परिभाषाएं परिणामों को परिभाषित करती हैं। कस्बे और शहर तो हैं ही, फिर भी 5,000 की आबादी वाले 'सेन्सस टाउन' (जनगणना शहर) हैं, जो ग्रामीण और शहरी क्षेत्र की परिभाषाओं के बीच आते हैं। वर्ष 2001 में भारत में 1,362 जनगणना शहर थे। 2011 में जनगण ना शहरों की संख्या बढ़कर 3,892 हो गई, जिनमें से 267 उत्तर प्रदेश में, 188 झारखंड में, 112 मध्य प्रदेश में और 60 बिहार में थे। 2015 में शहरी विकास मंत्रालय ने राज्यों से जनगणना शहरों को शहरी स्थानीय निकायों में बदलने के लिए कहा। 2022 में भी यह सलाह एक सलाह ही है और जनगणना शहर प्रणालीगत उदासीनता को उजागर करते हुए अनियोजित शहरीकरण का प्रतीक बने हुए हैं।
राजनीतिक व्यवस्था में पूर्वाग्रह ने शहरी भारत को कम प्राथमिकता वाला क्षेत्र बना दिया है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि 1.4 अरब की आबादी वाले भारत की 35 फीसदी से अधिक जनसंख्या शहरों में रहती है। शहरी भारत देश की जीडीपी में 60 फीसदी का योगदान करता है और जाहिर तौर पर 1.4 लाख करोड़ रुपये के औसत मासिक जीएसटी संग्रह का बड़ा हिस्सा यहीं से आता है। शहरीकरण सामाजिक विकास और आर्थिक विकास के लिए जरूरी है। हालांकि इसका लाभांश तभी मिलेगा, जब शहरी विकास को सक्षम किया जाएगा। यह निर्वाचित शहरी स्थानीय निकायों के प्रणालीगत सशक्तीकरण, प्राधिकरण एवं जवाबदेही के स्थापत्य को पुनर्गठित करने और सबसे महत्वपूर्ण वादे और विफलता को स्वीकारने की राजनीतिक जिम्मेदारी की मांग करता है।

सोर्स: अमर उजाला

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