सम्पादकीय

शहरी विकास और महामारियां

Subhi
4 April 2022 4:17 AM GMT
शहरी विकास और महामारियां
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वैश्विक महामारी के दौर ने इस धारणा को तोड़ डाला है कि असली विकास शहरों में ही है। ये हाल तब हैं, जब बीते पांच वर्षों से देश में चुने हुए सौ शहरों को हर नजरिए से स्मार्ट शहर बनाने की मुहिम चल रही है।

अभिषेक कुमार सिंह: वैश्विक महामारी के दौर ने इस धारणा को तोड़ डाला है कि असली विकास शहरों में ही है। ये हाल तब हैं, जब बीते पांच वर्षों से देश में चुने हुए सौ शहरों को हर नजरिए से स्मार्ट शहर बनाने की मुहिम चल रही है। इसलिए यह सवाल उठता है कि क्या संसाधनों व बेहतरीन बुनियादी ढांचे से युक्त आदर्श माडल माने जा रहे हमारे शहरों को एक महामारी इस कदर पैदल भी कर सकती है?

शहरों को सभ्यता के विकास का आईना माना जाता है। हर देश अपने बड़े, सुविधा-संपन्न शहरों को दुनिया के सामने काफी चमक-दमक के साथ पेश करता है। न सिर्फ बाहरी लोगों को, बल्कि देश के भीतर भी बड़े शहर आकर्षण का केंद्र होते हैं। वे रोजगार देते हैं। वहां उपलब्ध सुख-सुविधाओं से जीवन आसान बन जाता है। लेकिन कोरोना महामारी ने इन अवधारणाओं को बदल दिया है। इसने शहरों की रौनक छीन ली है।

हाल यह है कि अमेरिका से लेकर चीन तक के बड़े शहरों की शान महामारी काल में फीकी पड़ गई। चीन के पांच प्रमुख शहर तो अभी तक भी सख्त पूर्णबंदी झेल रहे हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक बीते एक-डेढ़ साल में अमेरिका के बड़े शहरों में रहने वाले लाखों लोगों ने शहरों को अलविदा कह दिया है। सवाल है कि आखिर शहरी विकास भीतर से इतना खोखला कैसे हो गया है कि वह एक महामारी का लंबा दौर भी झेल पाने में सक्षम नहीं है।

रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच शंघाई सहित चीन के पांच बड़े शहरों में पूर्णबंदी से दुनियाभर में खलबली मची है। कहा जा रहा है कि इससे तेल की मांग में कमी आ सकती है। चूंकि चीन भी भारत की तरह तेल का बड़ा तेल आयातक देश है। यह देश हर दिन एक करोड़ दस लाख बैरल तेल खरीदता है। ऐसे में तेल की चढ़ी कीमतें एक झटके में नीचे आ सकती हैं। दावा किया गया कि चीन में कोरोना के नए आंकड़े पैंसठ हजार के करीब पहुंच चुके थे।

ऐसे में पांच शहरों में पूर्णबंदी लगा कर हालात संभालने की कोशिश की गई। उसकी जीरो कोविड नीति शहरों में नाकाम हो चुकी है, जो खुद उसके लिए गंभीर चिंता का विषय है। बढ़ते मरीजों की संख्या के चलते चीन के शहरी अस्पतालों में जगह नहीं बची है। बात सिर्फ चीन की नहीं है, अमेरिकी शहरों के हाल भी काफी खराब हैं। अमेरिकी जनगणना के नए आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2020-2021 के दौरान बड़े अमेरिकी शहरों से लाखों लोग छोटे शहरों की तरफ पलायन कर गए। इनमें पहला नंबर न्यूयार्क का रहा। इस शहर के सवा तीन लाख से ज्यादा नागरिक दूसरे इलाकों में रहने चले गए।

जनगणना के आंकड़ों में न्यूयार्क की आबादी में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई है, जिसे एक बड़ी चिंता माना जा रहा है। इसी तरह लास एंजीलिस की आबादी में पौने दो लाख की कमी आई है। शिकागो से करीब एक लाख लोग दूसरी जगहों पर चले गए। राजधानी वाशिंगटन से करीब तीस हजार लोगों ने पलायन किया। मेट्रो शहरों से बेरुखी का यह आलम दुनिया के दूसरे देशों में भी देखने को मिल रहा है। हालांकि अभी भारत में नई जनगणना के आंकड़े नहीं आ सके हैं। लेकिन अंदाजा है कि यहां भी लोगों ने बड़े शहरों से छोटे शहरों की पलायन किया है।

कोरोना महामारी के कारण बीते दो साल में हालात ऐसे बने कि अब कोई भी बड़े शहरों की ओर नहीं जाना चाहता। राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी मुंबई से लेकर ज्यादातर बड़े शहरों और महानगरों ने लोगों को बुरी तरह नाउम्मीद कर दिया है। वैश्विक महामारी के दौर ने इस धारणा को तोड़ डाला है कि असली विकास शहरों में ही है।

ये हाल तब हैं, जब बीते पांच वर्षों से देश में चुने हुए सौ शहरों को हर नजरिए से स्मार्ट शहर बनाने की मुहिम चल रही है। इसलिए यह सवाल उठता है कि क्या संसाधनों व बेहतरीन बुनियादी ढांचे से युक्त और रोजगार से लेकर शिक्षा-स्वास्थ्य के लिए आदर्श माडल माने जा रहे हमारे शहरों को एक महामारी इस कदर पैदल भी कर सकती है? खासतौर से भारत की बात करें, तो सवाल यह उठता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि कोविड-19 ने शहरों की उन तमाम बीमारियों को एक झटके में उजागर कर दिया है, जो भ्रष्टाचार, लापरवाही और अधकचरे विकास के कारण लाइलाज हो चुकी हैं।

आंकड़ों में देखें तो पिछले साल देश के प्रमुख आठ शहरों में ही कोरोना संक्रमण के साठ फीसद से ज्यादा मामलों का पता चला था। इसमें से भी करीब आधे मामले शीर्ष चार महानगरों- दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई में सामने आए थे। वर्ष 2021 के शुरुआती चार-पांच महीनों में जो कोहराम मचा था, वह भुलाए नहीं भूलता। अमदाबाद, इंदौर, पुणे और जयपुर जैसे शहरों में स्थितियां संभाले नहीं संभल रही थी।

अगर पूछा जाए कि ऐसा क्यों हुआ, तो इसके कारण बहुत साफ नजर आते हैं। जैसे आजादी के बाद स्वास्थ्य क्षेत्र की सतत अनदेखी और रोजगार के लिए शहरों की तरफ आबादी के पलायन इन दो अहम कारणों से हमारे ज्यादातर शहर कोरोना के आगे निरुपाय हो गए। निश्चित ही शहरों की बर्बादी की ये दो अहम वजहें हैं। लेकिन यह किस्सा यहीं खत्म नहीं हो जाता है। कोई महामारी इतनी विकट हो तो संसाधनों का कम पड़ना लाजिमी है, न्यूयार्क से लेकर लंदन तक में यही हुआ। समझना होगा कि शहरों में दिख रही इस तबाही की जड़ें गहरी हैं और काफी अरसे से यहां पैठ जमाए हुए हैं।

करीब सवा दशक पहले 2007 में दिल्ली में एक सम्मेलन में शामिल हुए शहरी योजनाकारों और विशेषज्ञों ने इसी मर्ज पर उंगली रखी थी। वे सभी इस पर एकमत थे कि बिना सोचे-समझे शहरों को ऊंची इमारतों और कांच के टावरों से घेरना असल में एक किस्म का 'राक्षसी और अमानवीय' चलन है, जो किसी रोज शहरों को ले डूबेगा। उस वक्त विषाणु से पैदा हुई महामारी का कोई संकट उनके सामने नहीं था, पर संसाधनों पर पड़ने वाले बेहिसाब दबाव का अंदाज लगाते हुए उन्होंने यह जरूर कहा था कि अगर ख्वाहिश भविष्य के शहरों के निर्माण की है, तो हमें अतीत की ओर देखना चाहिए, जब लोग जमीन पर बने एक ही तल वाले मकानों में थोड़ा दूर-दूर रहते थे।

हम इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकते कि भारत के शहरों को कितने खराब ढंग से बसाया गया है। उन्हें जिस बेतरतीबी से बढ़ने की छूट दी गई, उसी का नतीजा आज कोरोना के भयानक प्रकोप के रूप में सामने है। अब तक ये शहर दो तरीके से बढ़े हैं। एक तो पहले से बसे इलाकों के भीतर ही भीतर और तंग होती गलियों और परस्पर सटते मकानों में लोगों की भीड़ जमा होती गई। बेहद सीमित आय वाले ये वैसे लोग थे और हैं, जो व्यवस्थित इलाकों में किराए पर या खुद के मकान-फ्लैट में नहीं रह सकते। दूसरा समाज वह है जो जमीन की कमी के कारण शहर से दूर इलाकों में बनी बहुमंजिली इमारतों में रहने लगा है। इन दोनों ही कारणों से हमारी सामाजिकता और सामुदायिकता की अवधारणा को गहरा आघात लगा है।

शहरी नियोजन को लेकर ज्यादातर योजनाकार इस पर एकमत हैं कि सिर्फ ऊंची इमारतें बनाने भर से काम नहीं चलता, बल्कि इसके लिए समूचा ढांचा वैसा ही बनाना पड़ता है, जैसा पश्चिम में है। यह नहीं हो सकता कि शहरों की आबादी और इमारतों की ऊंचाई तो सतत बढ़ती रहे, पर अस्पताल, बिजली, पानी, सड़क और परिवहन की व्यवस्थाएं जस की तस लचर बनी रहें। इससे तो और बड़ा विरोधाभास पनपेगा और ऐसा बेढंगा विकास हमें ले डूबेगा। अफसोस कि ये परिणतियां आज हमारे सामने प्रत्यक्ष घटित हो रही हैं। अच्छा हो कि समाज और सरकार के योजनाकार मिल-बैठ कर इस बारे में सोचें कि कैसे शहरों को उन तमाम मर्जों से निजात दिलाई जाए, जो उसकी नसों में बैठ गए हैं और एक नहीं, असंख्य महामारियों की वजह बन गए हैं।


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