सम्पादकीय

हंगामे का सत्र

Subhi
13 Aug 2021 2:55 AM GMT
हंगामे का सत्र
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संसद का पूरा मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। उसे दो दिन पहले ही समाप्त करना पड़ा।

संसद का पूरा मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। उसे दो दिन पहले ही समाप्त करना पड़ा। यों इस सत्र में करीब बीस विधेयक पारित हुए, पर अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण से संबंधित विधेयक के अलावा किसी पर चर्चा नहीं हो सकी। सत्तापक्ष इसका दोष विपक्ष पर मढ़ रहा है। सरकार के आठ मंत्रियों ने प्रेस कान्फ्रेंस करके विपक्षी नेताओं पर आरोप लगाए कि उन्होंने सदन का कामकाज सुचारु रूप से नहीं होने दिया। उन्होंने सदन में पर्चे फेंके, मेज पर चढ़ कर अध्यक्ष की तरफ नियमावली पुस्तिका फेंकी और राज्यसभा में हिंसा की। उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई होनी चाहिए। उधर विपक्षी पार्टियों ने विरोध प्रदर्शन कर आरोप लगाया कि सरकार ने सदन में उन्हें अपना पक्ष नहीं रखने दिया। वे कृषि कानून, महंगाई, बेरोजगारी और पेगासस जासूसी मामले में चर्चा चाहते थे, पर सरकार ने इन मुद्दों पर बातचीत नहीं होने दी। यह निस्संदेह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता कि जिन मुद्दों पर संसद के भीतर चर्चा होनी चाहिए, उन्हें लेकर विपक्ष को सड़क पर उतरना पड़ रहा है। प्रधानमंत्री ने सत्र शुरू होने से पहले भरोसा दिलाया था कि सरकार विपक्ष के हर सवाल का जवाब देने को तैयार है। सदन को सुचारु रूप से चलने देना चाहिए। मगर इसे लेकर सरकार संजीदा नहीं दिखी।

हालांकि यह पहली बार नहीं है, जब कोई सत्र बिना जरूरी कामकाज के समाप्त हो गया। पिछली सरकार के समय 2-जी स्पेक्ट्रम और कोयला खदानों के आबंटन में हुई कथित अनियमितताओं को लेकर विपक्ष ने इसी तरह हंगामा किया था और करीब दो सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गए। जबकि उस बार ऐसा भी नहीं कि सरकार विपक्ष के सवालों का जवाब देने को तैयार नहीं थी। मगर इस बार कुछ नई बातें भी हुर्इं। विपक्षी नेताओं पर काबू पाने के लिए राज्यसभा में मार्शल बुलाए गए, उन्होंने प्रतिनिधियों पर बल प्रयोग किया। इसमें कुछ सांसदों को चोटें भी आर्इं। यह शायद पहली बार हुआ। सत्तापक्ष सदन में हंगामे का दोष पूरी तरह विपक्ष पर मढ़ कर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकता। अक्सर हंगामे की जड़ में सरकार का रवैया होता है। अगर सरकार विपक्ष की बात सुनने को सचमुच तैयार होती, तो उन्हें सवाल पूछने का मौका देती। विपक्ष ने पहले पेगासस मामले पर चर्चा की मांग की थी, मगर सरकार ने उस पर चर्चा कराने से इनकार कर दिया। स्वाभाविक ही विपक्ष ने इस पर तीखे तेवर अपनाए।
हालांकि यह पहली बार नहीं है, जब सरकार ने बिना चर्चा के सदन में कानून पारित करवा लिए। पहले भी कई संवेदनशील विषयों पर बने कानून इसी तरह पारित कराए जा चुके हैं। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण तीन कृषि कानून हैं। लोकसभा में सत्तापक्ष का बहुमत है, वहां उसे कानून पारित कराने में कोई अड़चन नहीं आती। राज्यसभा में उसे संघर्ष करना पड़ता है। कृषि कानूनों पर राज्यसभा में बहस नहीं होने दी गई। यहां तक कि राज्यसभा उपाध्यक्ष ने भी सत्तापक्ष का साथ दिया। इसके विरोध में विपक्ष के नेताओं ने संसद परिसर में धरना दिया। मगर सरकार बहस को तैयार नहीं हुई। फिर उन कानूनों के विरोध में शुरू हुआ देशव्यापी आंदोलन आज तक चल रहा है। मगर सरकार ने उससे भी कोई सबक नहीं सीखा। अगर सचमुच वह लोकतांत्रिक मूल्यों की हिमायती होती और सदन में चर्चा कराना चाहती, तो उसे उन विषयों को पहले पटल पर रखने में शायद कोई दिक्कत न होती, जिन पर विपक्ष चर्चा कराना चाहता था।


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