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नवभारत टाइम्स: राष्ट्रपति चुनावों से ऐन पहले राज्यसभा चुनाव नतीजों ने सत्तारूढ़ बीजेपी और इसके सहयोगी दलों का मनोबल और बढ़ाने का काम किया है। राज्यसभा में इस बार खाली हुई सीटों की संख्या तो 57 थी, लेकिन चुनाव सिर्फ चार राज्यों की 16 सीटों के लिए हुए। बाकी 41 सीटों पर प्रत्याशी निर्विरोध निर्वाचित हो गए थे। मगर बची हुई इन 16 सीटों पर भी चुनाव इतनी शिद्दत से लड़े गए कि लगा ही नहीं यह राज्यसभा का चुनाव है, जिसमें वोटर सिर्फ विधायक होते हैं, जो अमूमन पार्टी लाइन पर ही वोट देते हैं और इसलिए चुनाव नतीजे भी प्राय: उम्मीदों के अनुरूप ही होते हैं। इस बार इनमें से कोई भी बात सच नहीं हुई। वोटरों को लुभाने और येन केन प्रकारेण प्रभावित करने की कोशिशें इतने जोरों पर थीं कि कोई भी पक्ष अपने विधायकों के विवेक पर भरोसा किए बैठा नहीं रह सका। उन्हें रिसॉर्ट और होटलों में भेजकर लगभग बंधक बनाने का काम दोनों पक्षों ने किया। इसके बावजूद न केवल क्रॉस वोटिंग की शिकायतें आईं बल्कि वोट खराब किए जाने के भी मामले सामने आए। बहरहाल, साम, दाम, दंड भेद शुरू से राजनीति के औजार माने जाते रहे हैं। आज की तारीख में भी लोकतांत्रिक और संवैधानिक आग्रहों के बावजूद राजनीति नैतिकता का पालन करते हुए चलने की आदी नहीं हुई है।
लिहाजा आश्चर्य नहीं कि जहां राजस्थान में कांग्रेस के कई नेता यह दावा करते खुश हो रहे थे कि बीजेपी में भगदड़ मची हुई है, वहीं हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजों पर फाउल प्ले का आरोप सामने आने में भी देर नहीं लगी। इस आरोप-प्रत्यारोप से अलग केवल चुनाव नतीजों की बात करें तो राजस्थान में भले बीजेपी समर्थित निर्दलीय प्रत्याशी सुभाष चंद्रा की हार को कांग्रेस अपनी उपलब्धि मान ले, हरियाणा में अजय माकन की हार उसके लिए कम बड़ा झटका नहीं है। सबसे बड़ी बात महाराष्ट्र में सत्ता में होने के बावजूद शिवसेना उम्मीदवार का बीजेपी के हाथों हार जाना एक ऐसी चीज है, जिसे पचाना शिवसेना समर्थकों के लिए भी आसान नहीं होगा। कर्नाटक में भी तीन सीटें जीतकर बीजेपी संतोषजनक स्थिति में है। कुल मिलाकर देखा जाए तो बीजेपी शुरू से राज्यसभा चुनावों को लेकर आक्रामक मुद्रा में रही। उसी ने अतिरिक्त प्रत्याशियों के जरिए चुनावी मुकाबले सुनिश्चित करवाए। चुनावों के दौरान उसकी रणनीति भी ज्यादा चुस्त दुरुस्त रही। विपक्षी खेमे में कई जगहों पर आपसी तालमेल की कमी नजर आई। यही वजह रही कि बीजेपी चार में से तीन राज्यों में अपने अतिरिक्त उम्मीदवार जिताने में सफल हुई। चुनावों से पहले माना जा रहा था कि बीजेपी इस बार राज्यसभा की 20 सीटें ही बचा पाएगी। मगर वह अपने 22 प्रत्याशियों के साथ-साथ एक निर्दलीय प्रत्याशी को जिताने में सफल रही। राष्ट्रपति चुनाव की तैयारियों में जुटे पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए इन चुनावों के अनुभव में सीखने को बहुत कुछ है।