सम्पादकीय

कांग्रेस की राजनीति में उथल- पुथल

Gulabi
1 March 2021 6:51 AM GMT
कांग्रेस की राजनीति में उथल- पुथल
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देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस में जो उथल- पुथल मच रही है

देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस में जो उथल- पुथल मच रही है उससे निराश होने की इसलिए कोई जरूरत नहीं है क्योंकि इसके सवा सौ साल से भी लम्बे इतिहास में जब भी ऐसा हुआ है उसके बाद यह पार्टी और अधिक मजबूत होकर खड़ी हुई है। सबसे पहला विद्रोह स्व. मोती लाल नेहरू का ही था जिन्होंने 1923 में कांग्रेस छोड़ कर 'स्वराज पार्टी' का गठन किया था मगर कुछ वर्ष बाद ही वह पुनः इसमें लौट आये और 1928 में एक बार फिर कोलकाता के कांग्रेस अधिवेशन में इसके अध्यक्ष बने। स्वतन्त्रता के दौर में इसी पार्टी से विभिन्न समाजवादी मूलक पार्टियां निकलीं। इसके बाद 1969 में इसका पहला विभाजन हुआ। इसके बाद पुनः यह 1978 में विभाजित हुई। सबसे ताजा मामला स्व. पी.वी. नरसिम्हाराव की सरकार के दौरान हुआ जब तिवारी कांग्रेस का गठन हुआ। कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है कि स्वतन्त्र भारत में प्रत्येक विभाजन के बाद मूल या असली कांग्रेस 'नेहरू- गांधी' परिवार के आभामंडल की छत्रछाया में एकजुट होती रही और जमीन पर अपने कदम मजबूती से जमाती रही।


आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इसी विशिष्टता के चलते लगातार आठ वर्ष तक विपक्ष में रह कर अपने वजूद के लिए लड़ने वाली कांग्रेस ने 2004 में श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व में पुनः सत्ता के शिखर को चूमा और दस वर्ष 2014 तक राज किया। परन्तु इसके बाद परिस्थितियां पूरी तरह बदलीं और पहली बार कांग्रेस लोकसभा में केवल 44 स्थान ही प्राप्त कर पाई। यह इतना बड़ा आघात था कि इस पार्टी की जमीन बुरी तरह खिसक गई मगर इसके बावजूद कांग्रेस के निशान भारत के हर राज्य में 'नेहरू-गांधी' परिवार की यादगार में नुमांया रहे और यह पार्टी किसी न किसी वजूद में (राष्ट्रवादी कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, वाईएसआर कांग्रेस आदि) भेष व झंडा बदल कर जीवित रही। अतः यह लिखना कोई गलत तर्क नहीं होगा कि अखिल भारतीय कांग्रेस के स्वरूप का क्षेत्रीय दलों में इस हद तक बंटवारा हुआ कि इसका राष्ट्रीय स्वरूप सिकुड़ गया। बेशक इसे कांग्रेस पार्टी के सांगठनिक तन्त्र के जड़ से 'उधड़' जाने का समरूप रखा जा सकता है जो स्व. इन्दिरा गांधी की प्रचंड केन्द्रीकृत सत्ता के दौरान घटा था।

यह इतिहास लिखने का आशय इतना भर है जिससे यह समझा जा सके कि वर्तमान में कांग्रेस के जिन 23 नेताओं ने पिछले दिनों पार्टी की अन्तरिम अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को खत लिख कर कांग्रेस को मजबूत बनाये जाने के लिए जरूरी कदम उठाने को कहा था उनका मन्तव्य क्या था? लोकतन्त्र मजबूत विपक्ष के बिना काम नहीं कर सकता, यह इस प्रणाली का ऐसा आधारभूत सिद्धान्त है जिससे आम जनता द्वारा सत्ता में बैठने के लिए किसी भी राजनीतिक दल को दिये जनादेश का पालन नियमानुसार होना इस प्रकार सुनिश्चित होता है कि हर हालत में आम नागरिक का मालिकाना हक महफूज रह सके। विपक्ष नागरिकों के जायज अधिकारों का लोकतन्त्र में इस तरह पैरोकार होता है कि सत्तारूढ़ दल के दिल में नागरिकों की समुच्य ताकत का एहसास एक पल के लिए भी न मिट सके। यह स्वैच्छिक भी होना चाहिए जिसके न होने पर कभी-कभी सत्तारूढ़ दल में ही विद्रोही गुट तैयार हो जाते हैं जैसा कि हमने साठ और सत्तर के दौर में कांग्रेस के भीतर ही 'युवातुर्क' मंडली के रूप में देखा था। इसमें स्व. चन्द्रशेखर व अर्जुन अरोड़ा व कृष्ण कान्त जैसे लोग थे। यह गुट दलगत व्यवस्था के भीतर सत्ता के लगातार लोकोन्मुखी बने रहने का दबाव बनाये रखता है और परोक्ष विपक्ष का काम करता है। परन्तु कांग्रेस के भीतर फिलहाल जिन 23 नेताओं ने कथित 'इंकलाब' का झंडा उठाया है उनकी मंशा विपक्ष की पार्टी कांग्रेस को ही मजबूत बनाने की है । इसका औचित्य तब ज्यादा कारगर होता जब पार्टी मंच पर या इसके तन्त्र के भीतर सार्वजनिक रूप से ऐसी मांग रख कर कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं के भीतर नव ऊर्जा का संचार करने की किसी तजवीज या विधि पर खुल कर चर्चा होती। कांग्रेस के युवा तुर्कों की रणनीति यही रहती थी कि वे पार्टी तन्त्र के भीतर ही विरोध या इंकलाब को सार्वजनिक विमर्श में बदलने की कोशिश करते थे जिसका लाभ अन्ततः पार्टी का जनाधार व्यापक होने से मिलता था। अब सवाल यह है कि कपिल सिब्बल या गुलाम नबी आजाद जैसे प्रतिष्ठित कांग्रेसी नेताओं की बेचैनी को शान्त करने के लिए कांग्रेस के भीतर कौन सा यत्न किया जाये जिससे पार्टी की एकता को भंग किये बिना इसके मजबूत होना का मार्ग प्रशस्त हो सके? पार्टी के इन नेताओं की उपयोगिता तय करने के लिए कोई बना- बनाया फार्मूला नहीं हो सकता।

जीवन्त लोकतन्त्र में नेता अपनी उपयोगिता स्वयं ही सिद्ध करते हैं। इस बारे में एक ही उदाहरण काफी है। 1971 के लोकसभा चुनावों मे पूर्व रक्षामन्त्री स्व. वी. के. कृष्णामेनन स्व. इंदिरा गांधी की कांग्रेस में किसी पद पर नहीं थे। वह हिन्दी बिल्कुल नहीं जानते थे। उनके सभी पुराने कांग्रेसी मित्र इंदिरा कांग्रेस की विरोधी पार्टी कांग्रेस ( संगठन) में थे। फिर भी इन चुनावों की महत्ता समझ कर वह उत्तर भारत के राज्यों में स्वयं ही इंदिरा कांग्रेस के प्रत्याशियों के समर्थन में चुनाव प्रचार करने के लिए निकल पड़े। उन्होंने एक जनसभा मेरठ के घंटाघर पर भी सम्बोधित की। वह धुआंधार अंग्रेजी में बोले। श्री कृष्णामेनन बहुत बड़े ओजस्वी वक्ता थे। उनकी जनसभा में सभी पूर्ण शान्ति के साथ सुनते रहे हालांकि अंग्रेजी मुश्किल से एक प्रतिशत से भी कम लोगों की समझ मे आ रही थी। सभा समाप्त होने पर जब लोगों ने एक-दूसरे से बातचीत की तो पहली प्रतिक्रिया यह आयी कि समझ में एक ही बात आयी है कि इन्दिरागांधी ! वैसे कृष्णामेनन जी बोले बहुत अच्छा। यह पूरा विवरण उन दिनों के सभी हिन्दी अखबारों में तफसील से छपा हुआ है। 1974 में श्री कृष्णामेनन का स्वर्गवास हो गया। सिर्फ अपनी पार्टी से प्रेम की वजह से उन्होंने 1971 के चुनावों में चुनाव प्रचार किया था। अतः सभी कांग्रेसियों को आज आत्म विश्लेषण करना चाहिए और लोकतन्त्र में मजबूत विपक्ष देना चाहिए।


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